क्यों मानें किसी बुखारी का फतवा?

हमारे देश में शंकराचार्य, ईसाई धर्मगुरु, दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम, देवबंद तथा अन्य कई इमामों के फतवों व दिशा निर्देशों की खबर कभी-कभी सुर्खियों में नज़र आती रहती है। परंतु यह इस देश की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था तथा वहां की धर्मनिरपेक्षतापूर्ण सोच का ही परिणाम है कि भारत में आज तक कभी भी धर्म व जाति के आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर मतदान नहीं हुआ। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी जिसे कि देश का मुस्लिम समाज खुलकर मुस्लिम विरोधी राजनैतिक दल मानता है उसके बावजूद इस पार्टी में भी हमेशा से ही कोई न कोई मुस्लिम समुदाय के नेता उच्च पदों पर देखे गए हैं। और आज भी देखे जा सकते हैं।

भारतवर्ष में विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के तमाम हथकंडे इस्तेमाल किए जाते हैं। कई प्रकार की लोकलुभावनी बातें की जाती हैं। झूठे आश्वासन दिए जाते हैं। न पूरे करने वाले वादे किए जाते हैं। तरह-तरह के लालच दिए जाते हैं तथा प्रत्याशी व क्षेत्र के अनुसार जाति व धर्म के आधार पर वोट भी ठगने के प्रयास किए जाते हैं। और इसी प्रयास की एक प्रमुख कड़ी के रूप में कई राजनैतिक दल विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं को भी किसी न किसी प्रकार के लालच में फंसाकर उनसे अपनी बिरादरी के लिए अपने पक्ष में फतवा या दिशानिर्देश जारी करवा लेते हैं। उधर ऐसे धर्मगुरु भी बिना यह सोचे-समझे हुए कि उनका अपना धर्म, बिरादरी अथवा वर्ग या समुदाय में कोई जनाधार है भी या नहीं, आंखें मूंद कर किसी पार्टी या नेता के पक्ष में मतदान करने का निर्देश जारी कर बैठते हैें। परिणामस्वरूप उनके $फतवे या निर्देशों के अनुसार उनका समुदाय मतदान करे अथवा न करे। परंतु धर्मगुरुओं के इस राजनैतिक पक्षपातपूर्ण रवैये से उनका अपना पूरा का पूरा समुदाय संदेह के घेरे में ज़रूर आ जाता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या उन्हें सत्ता या सत्ता परिवर्तन जैसे राजनैतिक मुद्दों पर अपने समुदाय के लोगों को किसी विशेष दल के लिए मतदान करने का फतवा या निर्देश देना चाहिए। और खासतौर पर वह भी भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में जहां कि धर्म या जाति आधारित मतदान इस देश की एकता और अखंडता के लिए कतई उचित नहीं कहा जा सकता?

इन हालात में यदि देश का कोई इमाम किसी एक पार्टी के पक्ष में अथवा किसी एक पार्टी के विरोध में मुस्लिम समुदाय के लोगों से मतदान की अपील करे तो यह कहां तक मुनासिब है? और वह भी तब जबकि राष्ट्रीय स्तर पर उस इमाम का अपनी जमात या बिरादरी में प्रभाव भी न हो? पिछले दिनों दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम ने देश के मुसलमानों से कांग्रेस पार्टी के पक्ष में मतदान करने की अपील कर एक बार फिर ऐसा ही विवाद खड़ा कर दिया है। देश के मुसलमान दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम की बातों व फतवों का कितना स मान करते हैं इसकी मिसाल उनके अपने परिवार में ही देखने को मिल सकती है। वर्तमान शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी के अपने सगे छोटे भाई यहया बुखारी ने ही इमाम बुखारी के इस फतवे का खुलकर विरोध किया है। सोचा जा सकता है कि जब इमाम का फतवा उनका अपना सगा भाई नहीं मान रहा तो देश के दूसरे मुसलमान उस फतवे को कैसे मानें और क्योंकर मानें?

2014 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में दिल्ली की ही फतेहपुरी मस्जिद के इमाम डॉ मुफ्ती मोहम्मद मुकर्रम के इस बयान से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि देश के मुसलमान अपनी समस्याओं, क्षेत्रों व प्रत्याशियों के अनुसार अपनी मर्जी से जहां और जिसे चाहें मतदान कर सकते हैं। मुफ्ती मोहम्मद अकरम साहब ने भी मौलाना अहमद बुखारी के फतवे से अपनी पूरी असहमति व्यक्त की है। जब एक धर्मगुरु के फतवे को उसी का दूसरा धर्मगुरु ही न माने, यहां तक कि उसका अपना सगा भाई भी सहमत न हो तो इस बात का अंदाज़ा अपने-आप लगाया जा सकता है कि धर्मगुरुओं के मतदान संबंधी फतवे आखिर कितने प्रभावी होते हैं।

इसी प्रकार पिछले विधानसभा चुनाव में यही शाही इमाम अहमद बुखारी समाजवादी पार्टी का झंडा बुलंद किए हुए थे। उनके इस समर्थन से खुश होकर या बुखारी साहब के निवेदन पर मुलायम सिंह यादव ने उनके दामाद उमर अली खां को सहारनपुर के बेहट विधानसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी बना दिया। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र होने के बावजूद मौलाना के दामाद उमर अली चुनाव हार गये। हारने के बाद भी उन्हें सपा से ही विधानपरिषद का सदस्य बना दिया गया। यही नहीं आज भी वे सपा में हैं तथा पार्टी का प्रचार कर रहे हैं। ज़रा सोचिए जो शाही इमाम अपने दामाद को विधानसभा चुनाव नहीं जितवा सकते तथा सपा से उनका मोह नहीं भंग कर सकते वह पूरे देश के मुसलमानों से कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने का फतवा देकर कांग्रेस की नैया पार लगाने की कल्पना कैसे कर सकते हैं? ऐसी ही एक गलतफहमी मौलाना बुखारी को उस समय भी हुई थी जबकि इन्होंने 2007 में उत्तर प्रदेश युनाईटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट के नाम से एक राजनैतिक दल गठित किया था। और उत्तर प्रदेश में 54 उम्मीदवार खड़े किए थे। इन 54 में से 51 उ मीदवारों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई थी। इन सब सच्चाईयों के सामने आने के बावजूद मौलाना बुखारी यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि देश के मुसलमान चुनाव संबंधी उनके दिशा निर्देश या फतवे मानने को तैयार नहीं। बावजूद इसके कि शाही मस्जिद के इमाम होने के नाते उनके अनुयायी मुसलमान उनका स मान भी करते हैं तथा पूरी श्रद्धा के साथ उनके पीछे खड़े होकर नमाज़ भी अदा करते हैं।

वैसे भी दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम के हवाले से आने वाला $फतवा कई बार इमाम के अपने निजी संबंधों या राजनैतिक नफे-नुकसान से प्रभावित नज़र आया है। उदाहरण के तौर पर इमरजेंसी के दौरान जिस समय देश में संजय गांधी के विरुद्ध जबरन नसबंदी कराए जाने की एक सुनियोजित अ$फवाह फैलाकर देश के मुसलमानों को कांग्रेस के विरुद्ध लामबंद किया गया। 1975-76 का यह वही दौर था जबकि दिल्ली के तुर्कमान गेट क्षेत्र से दुकानों के अवैध कब्ज़े बुलडोज़र द्वारा हटाए गए। उस समय कांग्रेस से नाता तोड़कर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी नामक राजनैतिक पार्टी गठित कर चुके बाबू जगजीवन राम तथा हेमवती नंदन बहुगुणा ने सबसे पहले कांगेस विरोधी मुस्लिम भावनाओं को भुनाने के लिए मौलाना अब्दुल्ला बु$खारी से बात की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि मौलाना बु$खारी को राष्ट्रपति बनाए जाने तक का ‘लॉलीपोप’ दिखाया गया था। इसके बाद 1977 के चुनाव में बावजूद इसके कि जनसंघ व आरएसएस सहित सभी दल व संगठन कांग्रेस के विरोध में एकजुट होकर जनता पार्टी का रूप धारण कर चुके थे फिर भी मौलाना बुखारी ने देश के मुसलमानों से कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध तथा जनता पार्टी के पक्ष में मतदान करने का $फतवा जारी किया था। इसके पश्चात जब जनता पार्टी ने शाही इमाम से किए गए अपने ‘वादे’ पूरे नहीं किए तो इमाम साहब का मोह जनता पार्टी से भंग होने लगा। उधर दुनिया में अपनी राजनीति का लोहा मनवाने वाली इंदिरा गांधी ने 1979 में संजय गांधी के साथ अब्दुल्ला बुखारी से मुलाकात कर उन्हें अपने पाले में बुला लिया। और फिर 1979 में कांग्रेस के पक्ष में इमाम का $फतवा जारी हुआ। उसके पश्चात शाही इमाम ने एक बार फिर 1989 में करवट बदली और देश के मुसलमानों से विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले जनता दल को समर्थन देने की अपील की तथा खुलकर राजीव गांधी के विरोध में आ खड़े हुए। लगता है उसी नक्शे कदम पर चलते हुए मौलाना अब्दुल्ला बुखारी के सुपुत्र अहमद बुखारी भी अपने नफे-नुकसान के अनुसार फतवे जारी करने में पारंगत हो चुके हैं। और इसी कारण देश के मुस्लिम समाज का मोह इनके फतवों व राजनैतिक दिशा निर्देशों से भंग हो चुका है।

 

जहां तक भारतवर्ष की धर्मनिरपेक्षता का प्रश्र है तो यह बात मैं एक बार फिर बड़े ही विश्वास तथा दावे के साथ कहना चाहता हूं कि भारतवर्ष यहां के मुसलमानों या मुस्लिम धर्मगुरुओं की वजह से धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि इस देश की धर्मनिरपेक्षता का सेहरा यहां के बहुसंख्य धर्मनिरपेक्ष हिंदू समाज के ही सिर पर है। महात्मा गांधी इस देश की धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्म संभाव रूपी विचारधारा के मुख्य प्रेरक थे। जब तक यह देश गांधी के आदर्शों के देश के रूप में पहचाना जाएगा तब तक इस देश में धर्मनिरपेक्षता का परचम लहराता रहेगा। हमारे देश के जिस संविधान में देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे का तथा यहां के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाए रखने का ज़ोरदार प्रयास किया गया है उसी देश के इसी संविधान में धर्म व जाति के आधार पर मतदान करने, कराने, उकसाने तथा धर्मगुरुओं द्वारा फतवे या दिशा निर्देश जारी करने का कोई प्रावधान कतई नहीं है। हां स्वतंत्रता खासतौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धर्मगुरु अपने धार्मिक रुतबे का लाभ उठाकर यदा-कदा ऐसे फतवे जारी करते ज़रूर दिखाई देते हैं। यदि हर धर्म व जाति के धर्मगुरु इसी आधार पर फतवे जारी करने लगें तथा दुर्भाग्यवश उन धर्मगुरुओं की बातों में आकर उनके अनुयायी मतदान भी करने लगें तो इस बात की बड़ी आसानी से कल्पना की जा सकती है कि इस देश का क्या हश्र होगा तथा इस देश में कानून व्यवस्था व धार्मिक व जातिवादी अन्माद का क्या आलम होगा?