कृत्रिम राष्ट्रीयता का विखंडन

ब्रिटेन के जनमत संग्रह में 52 फीसदी जनता के यूरोपीय यूनियन से अलग होने के पक्ष में वोट देने का असर अर्थव्यवस्था पर दिखाई दे रहा है। जनमत संग्रह के नतीजों के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने तीन महीने में पद छोड़ने का ऐलान भी किया है। 48 फीसदी नागरिकों ने यूरोपीय संघ के पक्ष में वोट दिया है। यह भी साफ हो गया है पूर्वोत्तर इंग्लैंड, वेल्स और मिडलैंड्स में ज्यादातर नागरिकों ने यूरोपीय संघ से नाता तोड़ने के पक्ष में राय दी है और लंदन, स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड के ज्यादातर लोग यूरोपीय संघ के साथ ही रहना चाहते थे।

पाउंड की कीमत भी कम हो रही है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि भारत के व्यापार पर भी इसका असर पड़ेगा। 1991 में सोवियत संघ 16 स्वतंत्र राष्ट्रों में बंटा था। 1995 में यूगोस्लाविया का चार हिस्सों में विभाजन हुआ। भारत से अलग हुए पाकिस्तान का भी 1971 में बंटवारा हुआ था। ऐसी घटनाओं का निश्चित तौर पर दुनिया में असर पड़ता है। इन सब से यह सीख भी मिलती है कि किसी खास वाद या विचारधारा और धर्म के आधार पर राष्ट्रीय एकता को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। यानी यह साफ हो गया है कि कृत्रिम तौर पर बनाई गई राष्ट्रीयता को लोग स्वीकार नहीं कर पाते हैं।

ऐसे माहौल में एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 50 साल पहले मानव, समाज, संस्कृति, धर्म, राष्ट्र, अर्थव्यवस्था आदि विषयों पर दी गई अवधारणाओं की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। उपाध्यायजी ने कहा था कि किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी चिति के कारण होता है। चिति के ही उदयावपात होता है। भारतीय राष्ट्र के भी उत्थान और पतन का वास्तविक कारण हमारी चिति का प्रकाश अथवा उसका अभाव है। बिना चिति के ज्ञान के प्रथम तो हमारे प्रयत्नों में प्रेरक शक्ति का अभाव रहने के कारण वे फलीभूत नहीं होंगे, द्वितीय मन में भारत के कल्याण की इच्छा रखकर और उसके लिए जी तोड़ परिश्रम करके भी हम भारत को भव्य बनाने के स्थान पर उसको नष्ट कर देंगे। स्वप्रकृति के प्रतिकूल किए हुए कार्य के परिणामस्वरूप जीवन में जो परिवर्तन दिखाई देता है, वह विकास के स्थान पर विनाश का द्योतक है और इस प्रकार “विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम” की उक्ति चरितार्थ होती है।

दीनदयालजी ने 50 साल पूर्व जो दर्शन दुनिया के सामने रखा, उसे तब बेशक लोगों ने नहीं माना पर दुनियाभर के हो रहे बदलावों में उनकी दूरदर्शिता आज दिखाई दे रही है। उन्होंने जो विचारधारा दी, उसे अब दुनिया को मानने का समय भी आ गया है। ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन के अलग होने के फैसले से यह तो तय हो गया है कि किसी विचार को थोपकर राष्ट्रीय एकता बरकरार नहीं रखी जा सकती है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल और दुनियाभर के तमाम ऐसे लोग जो भारत को एक कृत्रिम राष्ट्र बताते रहे, आज भारत को परम वैभव की तरफ बढ़ते देख ग़लत साबित हो रहे हैं।

स्कॉटलैंड को ब्रिटेन से अलग करने को लेकर हुए जनमत संग्रह के बाद से ही यूरोपीय यूनियन से अलग होने की मांग तेज हुई थी। स्कॉटलैंड तो ब्रिटेन से अलग नहीं हुआ था पर तभी से यूरोपीय यूनियन से बाहर होने की मांग लगातार उठने लगी थी। यूरोपीय यूनियन का गठन दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देशों की खराब होती आर्थिक स्थिति के कारण किया गया था। अमेरिका, सोवियत संघ और अन्य देशों के बढ़ते व्यापार के आगे यूरोपीय देशों की हालत खराब हो रही थी। तब छह देशों ने यूरोपीय यूनियन बनाई। शुरुआत में ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन में शामिल नहीं हुआ पर बाद में फायदा देखकर शामिल हो गया। यूरोपीय यूनियन के देशों ने आपसी व्यापार को बढ़ावा दिया। छह देशों के सहयोग से बने इस संघ के आज 28 देश सदस्य हैं। सोवियत संघ बिखरने के बाद अलग हुए यूक्रेन और इस्लामी देश टर्की भी यूरोपीय यूनियन में शामिल होने की कोशिश में हैं। ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन में जनमत संग्रह के बाद ही फैसला किया था। यूरोपीय यूनियन से अलग होने का फैसला भी जनमत संग्रह करके किया गया। इस फैसले को अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।

यह माना जा सकता है कि उस समय दुनियाभर के घटनाक्रम पर दीनदयालजी की पैनी नजर थी। इसी कारण दीनदयालजी की साफ राय थी कि समाजवाद हो, पूंजीवाद हो या साम्यवाद से समस्याओं का समाधान नहीं होना है, भटकाव ही होना है। यह सब भौतिकवाद की तरफ ले जाते हैं। मानव को पूंजीवाद या साम्यवाद में बांट कर एक खुशहाल समाज या राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है, इसीलिए उन्होंने मानववाद की अवधारणा दुनिया के सामने रखी। यानी सभी विचारधाराओं और वादों में मानव को केंद्र में रखा जाए। मानव के विकास के लिए एकात्म दर्शन की उन्होंने पूरी व्याख्या भी की। मानव को सभी प्रकार की जरूरतों की मजबूरी है। यह मजबूरी पशु-पक्षियों की नहीं हैं। जानवर तो जंगल में बिना मानव के ही आनंद से रहते हैं।

भारत के मनीषियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो चार पुरुषार्थ बताएं हैं, ये मानव को लक्ष्य की तरफ जाने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके केंद्र में धर्म ही है। इसी कारण एकात्म मानव दर्शन के केन्द्र में मानव रहा। पश्चिम में जो अर्थवाद गढ़ा गया, उसके नतीजे हमारे सामने आ ही रहे हैं। कृत्रिम और काल्पनिक सिद्धांतों के जरिये समाज को विवश तो किया जा सकता है, परंतु उसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। एकात्म मानववाद मानव के संपूर्ण विकास की अवधारणा है।

उपाध्यायजी ने एक लेख में लिखा था कि भारत का राष्ट्र जीवन युग-युग में भिन्न-भिन्न स्वरूप में व्यक्त हुआ है, किंतु उसके मूल में उसकी धर्म भावना रही है, इसीलिए अनेक विद्वानों ने कहा भी है कि भारत धर्मप्राण देश है। आज अपनी इस आत्मा की प्रेरणा को अवचेतन से चेतन के क्षेत्र में लाने पर ही राष्ट्र जीवन में जो विकृति दिखाई देती है, जो विक्षुब्ध, संघर्षमय, अनिश्चितता की अवस्था है, वह दूर की जा सकती है। अपनी इसी अवधारणा को विकसित करने के लिए उन्होंने समाजवाद और पूंजीवाद के प्रभाव से दूर रहने का संदेश दिया। उस समय तमाम बहसों में न उलझते हुए उन्होंने कहा था कि मानव व्यक्ति और समाज की एकात्मता में से उत्पन्न होता है। व्यक्ति और समाज को बांटने से मानव अस्तित्व मिट जाता है। व्यष्टि और समष्टि ही एकात्म है। इस एकात्म को ही मानव कहा गया। उनकी राय थी कि व्यक्तिवादी होकर मानव का विकास नहीं किया जा सकता है। व्यक्तिवादी सोच समाज का भला नहीं करने देती है।