अल्पसंख्यकों पर मेहरबान सरकार

 

जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, कांग्रेस पार्टी अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को हड़पने और भुनाने के लिये किसी भी हद तक गिर सकती है, लेकिन केरल के आगामी चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व में UDF मोर्चे के उम्मीदवारों की लिस्ट देखकर चौंकना स्वाभाविक है। हालांकि उम्मीद तो नहीं है फ़िर भी कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट से “सेकुलरों” के मन में बेचैनी उत्पन्न होना चाहिये, एवं कांग्रेस के भीतर भी जल्दी ही इस बात पर विचार मंथन शुरु होना चाहिये कि उनका भविष्य क्या है।

सेकुलर समाज को यह जानकर खुशी होगी कि केरल के आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस (सोनिया गांधी की शैली में ‘खानग्रेस’) पार्टी ने कुल 140 में से 74 टिकिट अल्पसंख्यकों को दिये हैं। यह तो अब एक स्वाभाविक सी बात हो गई है कि जिन विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम अथवा ईसाई जनसंख्या का बहुमत है, वहाँ एक भी हिन्दू को टिकिट नहीं दिया गया है (“सेकुलरिज़्म की रक्षा” की खातिर दिया ही नहीं जा सकता), लेकिन ऐसे कई अल्पसंख्यक उम्मीदवार हैं जिन्हें हिन्दू बहुल क्षेत्रों से “खानग्रेस” ने टिकिट दिया है। यह रवैया साफ़ दर्शाता है कि “खानग्रेस” पार्टी को पूरा भरोसा है कि ईसाई और मुस्लिम वोट तो कभी भी “सेकुलरिज़्म” नाम के लॉलीपाप के झाँसे में आने वाले नहीं हैं, इसलिये जहाँ ईसाईयों और मुस्लिमों का बहुमत है वहाँ सिर्फ़ उसी समुदाय के उम्मीदवार खड़े किये हैं, जबकि हिन्दू तो चूंकि परम्परागत रूप से मुँह में “सेकुलरिज़्म” का चम्मच लेकर ही पैदा होता है इसलिये वहाँ “कोई भी ऐरा-गैरा” उम्मीदवार चलेगा, वह तो उसे वोट देंगे ही। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दुओं की जिम्मेदारी है कि “केरल में धर्मनिरपेक्षता” बरकरार रहे…।

जिस प्रकार कश्मीर में सिर्फ़ मुसलमान व्यक्ति ही मुख्यमंत्री बन सकता है, उसी प्रकार अगले 10-15 साल में केरल में यह स्थिति बन जायेगी कि कोई ईसाई या कोई मुस्लिम ही केरल का मुख्यमंत्री बन सकता है, यानी केरल “अल्पसंख्यकों की एक्सक्लूसिव सरकार” दूसरा रोल मॉडल सिद्ध होगा। अब यह तो “खानग्रेस” पार्टी के हिन्दू सदस्यों, विधायकों, पूर्व विधायकों, सांसदों को आत्ममंथन कर सोचने की आवश्यकता है कि 1970 में खान्ग्रेस से कितने अल्पसंख्यकों को टिकट मिलता था और 2010 में उसका प्रतिशत कितना बढ़ गया है, तथा सन 2040 आते-आते खान्ग्रेस पार्टी में हिन्दुओं की स्थिति क्या होगी, शायद उस वक्त 100 से अधिक उम्मीदवार मुस्लिम या ईसाई होंगे?

एक बात और… 170 सीटों में से 74 उम्मीदवार अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, जबकि बाकी बचे हुए 66 उम्मीदवार सिर्फ़ कहने के लिये ही हिन्दू हैं, क्योंकि सही स्थिति किसी को भी नहीं पता कि इन 66 में से कितने “असली” हिन्दू हैं और इनमें से कितने “अन्दरखाने” धर्म परिवर्तन कर चुके हैं। जिस प्रकार भारत के भोले (बल्कि मूर्ख) हिन्दू सोनिया गाँधी और राजशेखर रेड्डी जैसों को हिन्दू समझते आये हों, वहाँ इन 66 उम्मीदवारों के असली धर्म का पता लगाने की “ज़हमत” कौन उठायेगा? और मान लें कि यदि 66 उम्मीदवार हिन्दू भी हुए, तब भी असल में वे हैं तो इटली की मैडम के गुलाम ही…

मजे की बात तो यह है कि इतने सारे अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के बावजूद, त्रिचूर के कैथोलिक चर्च ने UDF के समक्ष ईसाईयों को “पर्याप्त” सीटें न दिये जाने पर अप्रसन्नता व्यक्त की है, इसी प्रकार मलप्पुरम क्षेत्र की मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने पूरे इलाके में समुदाय को सिर्फ़ 10 सीटें दिये पर नाराज़गी जताई है।

ऐसा नहीं है कि वामपंथी नेतृत्व वाला LDF कोई दूध का धुला है, बल्कि वह भी उतना ही राजनैतिक नीच है जितनी कांग्रेस। उन्होंने भी चुन-चुनकर कई हिन्दू बहुल इलाकों में ईसाई और मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किये हैं और वे ढोल बजा-बजाकर यह प्रचारित भी कर रहे हैं कि वामपंथ ने अल्पसंख्यकों के लिये “क्या-क्या तीर” मारे हैं। वामपंथियों के, अब्दुल नासेर मदनी और पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया (जिसके खिलाफ़ NIA राष्ट्रद्रोह और बम विस्फ़ोटों के मामले की जाँच कर रही है) से मधुर सम्बन्ध काफ़ी पहले से हैं (ज़ाहिर है कि “धर्म अफ़ीम है” जैसा वामपंथी ढोंग, सरेआम और गाहे-बगाहे नंगा होता ही रहता है, क्योंकि उनके अनुसार “सिर्फ़ हिन्दू धर्म” ही अफ़ीम है, बाकी के सभी पवित्र हैं)।

स्वाभाविक सी बात है, कि जब आज की तारीख में खानग्रेस और वामपंथी शासित राज्यों में हिन्दुओं के हितों की रक्षा नहीं होती, तो जिस दिन केरल और बंगाल विधानसभा में सिर्फ़ और सिर्फ़ “अल्पसंख्यकों” का ही दबदबा और सत्ता पर कब्जा होगा तब क्या हालत होगी? अभी जो नीतियाँ दबे-छिपे तौर पर जेहादियों और एवेंजेलिस्टों के लिये बनती हैं, तब वही नीतियाँ खुल्लमखुल्ला भी बनेंगी… अर्थात निश्चित रूप से कश्मीर जैसी…। कांग्रेस के बचे-खुचे हिन्दू विधायक या तो मन मसोसकर देखते रह जायेंगे या फ़िर उन तत्वों से समझौता करके अपना मुनाफ़ा स्विस बैंक में पहुँचाते रहेंगे।

जनसंख्या बढ़ाकर, वोट बैंक के रूप में समुदाय को “प्रोजेक्ट” करने से क्या नतीजे हासिल हो सकते हैं यह जयललिता की घोषणा से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने तमिलनाडु के मतदाताओं को सोने की चेन, लैपटॉप इत्यादि बाँटने का आश्वासन देने के बावजूद, सभी ईसाईयों को बेथलेहम (इज़राइल) जाने के लिये सब्सिडी की भी घोषणा की है। जयललिता का कहना है कि जब मुस्लिमों को हज जाने पर सबसिडी मिलती है तो ईसाईयों को भी बेथलेहम जाने हेतु सबसिडी, उनका “हक” है। हिन्दू धर्म के अलावा, किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ हेतु की जाने वाली घोषणाओं से भारत का “धर्मनिरपेक्ष” चरित्र खतरे में नहीं पड़ता, भाजपा सहित सभी के मुँह में दही जम जाता है, सभी लोग एकदम भोले और अनजान बन जाते हैं। लेकिन जैसे ही विहिप अथवा नरेन्द्र मोदी, हिन्दुओं के पक्ष में कुछ कहते हैं तो हमारे मीडिया और मीडिया के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदारों को अचानक सेकुलर उल्टियाँ होने लगती हैं, संविधान की मर्यादा तथा गंगा-जमनी संस्कृति इत्यादि के मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं।

लेकिन ज़ाहिर है कि इसके जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू और इनके हितों का दम भरने वाली पार्टियाँ ही हैं, जिन्होंने “राम” के नाम पर सत्ता की मलाई तो खूब खाई है, लेकिन “सेकुलरिज़्म” के नाम पर हिन्दुओं का जो मानमर्दन किया जाता है, उस पर चुप्पी साध रखी है। सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद का डोज़, हिन्दुओं की नसों में ऐसा भर दिया गया है कि हिन्दू बहुल राज्य (महाराष्ट्र, बिहार) का मुख्यमंत्री तो ईसाई या मुस्लिम हो सकता है, लेकिन कश्मीर का मुख्यमंत्री कोई हिन्दू नहीं… जल्दी ही यह स्थिति केरल में भी दोहराई जायेगी।