अधर्म युद्ध

 

इतिहास गवाह है इस पृथ्वी पर जितना रक्तपात धर्म क्षेत्र और धर्म के नाम पर हुआ हैं उतना अधर्म या युद्ध क्षेत्र में भी नहीं हुआ है फिर बात चाहे महाभारत की हो या इस सदी में धर्म के आधार पर भारत, पाक विभाजन की हो या मंदिर, मस्जिद की हो या अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के नाम पर राजनीति की दुकान चलाने की हो। भारतीय संविधान भी न केवल धर्म निरपेक्षता की बात कहता है बल्कि इन सभी चीजों को भी नकारता है फिर न तो हम मानते है और न ही हमारे नेता। हम यही नहीं रूकते अपने स्वार्थ के लिए कौमों को आपस में लड़ाने के लिए संविधान में भी विशेष प्रावधान करने से भी नहीं चूकते फिर बात चाहे अल्पसंख्यक की हो या केन्द्र में पूर्व शासित सरकार के द्वारा बहुसंख्यक के प्रति लाए जाने वाले ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011’’ का असफल, आत्मघाती एवं जहर की फसल बोने की बात हो।

 

चूंकि प्रत्येक मानव धर्म भीरू होता है फिर चाहे वह पढ़े-लिखे की हो या अनपढ़ की  इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। उलट पढ़े-लिखे चालाकी से शब्दों के सहारे शातियारा अंदाज में ऐसा ‘‘विष जाल’’ बुनते है कि गंभीर घाव भी करें और धर्म निरपेक्ष न केवल बने रहे बल्कि जनता को दिखते भी रहे। युद्ध में तो बिल्कुल स्पष्ट होता है कौन अपना, कौन पराया, किसे मारना है और किसे बचाना है।

धर्म का दुरूपयोग जितना पोंगा पंडित, ढोंगी बाबाओं, ढांेगी मौलवियों या अन्य तथाकथित धर्माचार्यों ने किया है। शायद ही अधर्मियों ने किया हो। फिर बात चाहे धर्म की दुकान की आड़ में यौन शोषण की हो, हत्या, डकैती, अपहरण जैसे आरोपों से इनके जूझने की हो।

हकीकत में देखा जाए तो धर्म पर व्याख्या को लेकर लिखा एवं कहा तो काफी गया है लेकिन समझा उतना ही कम गया है। ऐसे आडम्बरकारियों की इतनी बड़ी भीड़ और फौज हैं, इन्हें संभालने के लिए कई बार तो शासन, प्रशासन को भी न केवल विषम संकट से जूझना पड़ता बल्कि शासन भी खतरे में आ जाता हैं।

आजकल बाकायदा पृथक से धार्मिक चैनल भी चलन में आ गये हैं।

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस भी अब इस मुद्दे पर चिंतन में सभी फौज-फांटे के साथ जुट गई हेै। कही हमारी छबि हिन्दू विरोधी तो नहीं बन गई? अब राजनीतिक पार्टियों का भविष्य भी धर्म के इर्द-गिर्द न केवल गढ़ा जा रहा है बल्कि धर्म पर ही धूम रहा है। इतिहास भी इस बात का गवाह है फिर बात चाहे विश्वव्यापी फेैले हिन्दू एवं हिन्दू संस्कृति की हो या मुस्लिम शासन की हो।

यह भी निर्विवाद सत्य है कि कौन व्यक्ति किस धर्म, सम्प्रदाय पंत को अपना जीवन जीना चाहता है। यह उसका नितांत व्यक्तिगत् मसला है। हाल ही में धर्मान्तरण को ले जनमानस में काफी भूचाल सा आया हैं।

धर्म की भी बाकायदा अब तो मार्केटिंग की जा रही है। पक्ष-विपक्ष धर्म की भूमि पर अधर्मियों की तरह समय-समय पर ताल ठोक अपने को श्रेष्ठ साबित करने के जतन में जी जान से लगे है फिर इसमें अहिंसा की जगह कितनी ही हिंसा क्यों न हो।

धर्म कोई कपड़ा नहीं जिसे जब जी चाहे जैसा चाहे बदल लिया। ये तो आदमी में होश के साथ ही आता है और होश खोने के बाद भी रहता हेै। इस पर बहस केवल मति भ्रम से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। वैसे भी कहा गया है ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बेैर रखना’’ धर्म को जिसने भी समझा अनंत आकाश हो गया, ना समझ नाले को ही समुन्दर समझ गोते लगा केवल दुर्गन्ध को ही फैला रहे हैं। हाल ही में पाकिस्तान में शिक्षा के मंदिर में बाल मासूमों में बसता अनाम परमात्मा का कत्ल इसका उदाहरण हैं। जिसका सभी धर्म के लोगों ने विरोध कर ‘‘मानव धर्म’’  की उत्कृष्ट एवं बैजोड़ मिसाल पेश की।

प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से कहा ’’विकास में तेजी लानी है तो लोग कम से कम दस साल तक के लिए जाति एवं धर्म के झगड़े को भुला दें।’’

मोदी की विकास धर्म की बात अपनी जगह सौ फीसदी सही है लेकिन यह भी एक कड़वा व निर्विववाद सच है। आज देश में चुनाव एवं रियासते जाति एवं धर्म पर ही आधारित है इसकी जड़ भी कहीं न कहीं वोट बैंक ही है, रहा सवाल वर्ण व्यवस्था का तो यह पूर्ण रूपेण सटीक थी। यहां मैं जन्म नहीं कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की बात कर रही हूं। यदि इसी माडल को शासन अपना ले तो विकास की यात्रा दूर नहीं होगी। हर व्यक्ति अपनी रूचि के अनुसार कार्य में संलग्न हो विकास की यात्रा में अपना एकात्मक एवं पूर्णात्मक सहयोग भी देगा। तभी राजधर्म के साथ विकास धर्म भी फलेगा-फूलेगा। मोदी का विकास का सपना भी पूरा होगा।