अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ता पाकिस्तान

                कभी मुस्लिम जगत पर अपना वर्चस्व बनाने की तमन्ना रखने वाले पाकिस्तान के समक्ष इन दिनों अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती दरपेश है। ज़ाहिर है पाकिस्तान की दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही छवि तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके अलग-थलग पड़ते जाने के पीछे किन्हीं विदेशी शक्तियों का दखल नहीं बल्कि पाक के स्थानीय नेतृत्व व सेना तथा आईएसआई की अकुशलता का परिणाम अधिक है। यदि पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के समय से ही जातिवाद व क्षेत्रीयता का शिकार होने लगा हो और केवल दो दशकों के बाद ही उस स्वयंभू इस्लामी राष्ट्र में बंगला देश के अंकुर फूटने लगे तो पाकिस्तान किसी दूसरे देश पर इसका इल्ज़ाम कैसे मढ़ सकता है? ज़ाहिर है बंगाली मुसलमानों को अपने साथ न रख पाने तथा उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझने व बंगला भाषी होने के नाते उन्हें पिछड़ा अथवा अयोग्य समझने का दोष इन्हीं पाकिस्तानी अवाम व हुक्मरानों का ही था। उसके बाद पाक में जातिवाद का ज़हर घोलने की कोशिश में राष्ट्रपति जि़या-उल-हक ने अपनी पूरी ताकत झोंक डाली। आज पाकिस्तान में फैली सांप्रदायिकता,जातिवाद तथा नफरत की बुनियाद ज़ाहिर है जि़या-उल-हक के प्रयासों से उन्हीं के शासनकाल में रखी गई। उस शासक ने नफरत का इतना बड़ा खेल खेला कि ज़ुल्फकार अली भुट्टो को उसने फांसी पर चढ़ा दिया। पाक की उस अंदरूनी सियासत में आखिरकार किसी दूसरे देश का क्या दखल हो सकता है? इसी प्रकार अमेरिका व रूस के बीच चल रहे शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मुजाहिदीन व तालिबान के लिए अपने द्वार खोल दिए। उन्हें पाकिस्तान में पनाह दी तथा अफगानिस्तान में आतंकवादियों की तालिबान हुकूमत को मान्यता देने वाला पहला देश पाकिस्तान बना। पाकिस्तान ने तालिबान से दोस्ती निभा कर दुनिया में अपनी क्या छवि बनाई और आज उन्हीं तालिबानों ने पाकिस्तान का क्या हश्र कर दिया है यह सारी दुनिया देख रही है। ज़ाहिर है इसके लिए भी कोई दूसरा देश दोषी नहीं है।

                आज पाकिस्तानी रहनुमाओं के इसी प्रकार के गलत फैसलों ने पाक को बरबादी की उस कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां उसके एक ओर खाई तो दूसरी ओर कुंए जैसे स्थिति पैदा हो गई है। भले ही आज अमेरिका व चीन अपने राजनैतिक स्वार्थ को साधने के लिए पाकिस्तान के साथ मजबूरीवश अपने संबंध बनाए हुए हों परंतु इन संबंधों को भी दोस्ताना संबंध नहीं कहा जा सकता। अमेरिका यदि पाकितान को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में अपना सहयोगी समझने की $गलती करता आ रहा है और पाकिस्तान को हथियारों के बाज़ार के रूप में देखता है तो चीन भी पाकिस्तान को एक बाज़ार के सिवाए और कुछ नहीं समझता। पाकिस्तान भी चीन के साथ अपने दोस्ताना संबंधों को इसलिए और भी मज़बूत दर्शाने की भी कोशिश  करता है ताकि समय पडऩे पर भारत के मुकाबले चीन उसके साथ खड़ा दिखाई दे सके।

                परंतु जिस प्रकार पिछले दिनों पाकिस्तान में 9-10 नवंबर को होने वाले दक्षिण एशिया सहयोग स मेलन (सार्क ) देशों की बैठक केवल इसलिए स्थगित करनी पड़ी क्योंकि भारत के साथ-साथ बंगला देश,भूटान तथा अफगानिस्तान ने भी इस्लामाबाद में प्रस्तावित इस शिखर बैठक में भाग न लेने का निर्णय किया था। भारत ने इस बैठक में सबसे पहले शिरकत न करने का एलान इन शब्दों के साथ किया था कि क्षेत्रीय सहयोग और चरमपंथ एक साथ नहीं चल सकते। इसलिए भारत इस्लामाबाद स मेलन में शामिल नहीं होगा। $गौरतलब है कि सार्क देशों में शामिल 8 देशों भारत,पाकिस्तान,बंगलादेश,अफगानिस्तान,भूटान,नेपाल,श्रीलंका व मालदीव के राष्टाध्यक्ष प्रत्येक दो वर्ष के अंतराल पर होने वाली इस बैठक में क्षेत्रीय सहयोग पर विचार-विमर्श करने हेतु शिखर वार्ता करते रहते हैं। ज़ाहिर है भारत तथा पाकिस्तान इन 8 देशों में दो बड़े देशों की हैसियत रखते हैं तथा यह दोनों परमाणु संपन्न राष्ट्र भी हैं। और यदि इन्हीं दोनों देशों के मध्य तनावपूर्ण वातावरण बना रहे, पाकिस्तान भारत को अस्थिर करने तथा यहां आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ाने में मश$गूल रहे ऐसे में किसी प्रकार के परस्पर सहयोग अथवा सहयोग आधारित स मेलन का औचित्य ही क्या रह जाता है? पिछले दिनों ज मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में जिस प्रकार पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने लगभग 19 भारतीय सैनिकों को शहीद किया उसके बाद भी यदि पाकिस्तान भारत से क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की उ मीद रखे और दोस्ताना संबंध बनाए रखने की उत्सुकता दिखाए तो उसका यह सोचना गैरमुनासिब है।

                   आज पाकिस्तान के हुक्मरानों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि दुनिया में आ$िखर कौन सा देश ऐसा है जिसे पाकिस्तान अपने मित्र अथवा सहयोगी देश के रूप में गिनता हो? जिस अमेरिका के बल पर कल तक पाकिस्तान फूला नहीं समाता था उसी अमेरिका की संसद में पाक विरोधी स्वर कई बार उठ चुके हैं। दुनिया की नज़रों में खासतौर पर अमेरिका के सामने पाकिस्तान इस विषय को लेकर बेनकाब हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध लडऩे के नाम पर अमेरिका से जो भारी-भरकम रकम ठगता आ रहा है उन पैसों का इस्तेमाल या तो वहां के हुक्मरानों ने भारत में आतंकवाद फैलाने में किया था या फिर उन पैसों से इन्होंने अपनी ही जेबें भरी हैं। जहां तक ‘अज़म-ए-ज़र्ब’जैसे पाक सेना के आतंक विरोधी आप्रेशन का प्रश्र है तो पाक सेना ने इस ऑप्रेशन के तहत आमतौर पर तभी कार्रवाई की है जब आतंकवादियों द्वारा पाकिस्तानी सैनिक ठिकानों अथवा उनके हितों को निशाना बनाया गया हो। अन्यथा पूरी दुनिया इस बात से बा$खबर है कि तालिबान व तहरीक-ए-तालिबान से लेकर लश्कर-ए-तैयबा तथा जैश-ए-मोह मद सहित कई सुन्नी चरमपंथी संगठनों की पनाहगाह के रूप में पाकिस्तान का इस्तेमाल किया जा रहा है। पाकिस्तान इन तथ्यों से यह कहकर इंकार नहीं कर सकता कि भारत या कोई दूसरा देश उसके ऊपर इस प्रकार के आरोप लगाता रहता है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लाडेन का पाया जाना,पाकिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर संचालित करना, भारत से छुड़ाए गए कंधार विमान अपहरण कांड के आतंकियों का समय-समय पर पाकिस्तान में सार्वजिनक स्थलों पर भारत में ज़हर उगलना, भारत के मोस्ट वाटेड आतंकी दाऊद इब्राहिम के पाकिस्तान में होने के पु$ ता सुबूत होना जैसी अनेक बातें हैं जो पाकिस्तान को आईना दिखाने के लिए का$फी हैं।

                   पाकिस्तान की इस दुर्दशा का एक मुख्‍य  कारण यह भी है कि वहां के प्रमुख हुक्मरान घराने सीधेतौर पर व्यवसायकि घराने हैं और जनहित या राष्ट्रहित से भी ज़्यादा चिंता उन्हेंअपने व्यवसाय को सुदृढ़ करने या उसे बढ़ावा देने की रहती है। बेनज़ीर भुट्टो के प्रधानमंत्री रहते समय उनके उद्योगपति शौहर आसि$फ अली ज़रदारी को मिस्टर टेन परसेंट के नाम से मीडिया तथा आम लोगों द्वारा पुकारा जाता था। बाद में यही ज़रदारी स्वयं राष्ट्रपति की कुर्सी सुशोभित करते नज़र आए। यही हाल नवाज़ शरीफ तथा उनके परिवार के कई सदस्यों का भी है। उनका पूरा घराना एक व्यवसायिक घराना है जो ज़ाहिर है अपने आर्थिक हितों की चिंता पहले करता है राष्ट्रहित या जनहित की बाद में। पिछले दिनों ‘पनामा लीक्स’ के दस्तावेज़ में नवाज़ शरीफ का नाम भी उजागर हुआ था। पाकिस्तानी अवाम नवाज़ शरीफ की ओर से पनामा दस्तावेज को लेकर स$फाई मांग रही है। वहां का स्थानीय मीडिया भी उनसे इस विषय पर स्पष्टीकरण चाह रहा है। परंतु नवाज़ शरीफ को पाकिस्तान से लेकर संयुक्तराष्ट्र संघ तक में कश्मीर का राग अलापने से ही फुर्सत नहीं मिल रही है। उनकी यह रणनीति दरअसल कश्मीरियों के प्रति हमदर्दी के लिए नहीं चली जा रही बल्कि वे पनामा लीक्स से पाक अवाम का ध्यान हटाने के लिए कश्मीर राग को और तेज़ी से अलाप रहे हैं।

                   अब ब्लूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तानी सरकार तथा वहां की सेना के प्रति भी भारी गुस्सा दिखाई दे रहा है। आए दिन इन दोनों ही क्षेत्रों के लोग पाक सरकार के िखलाफ धरना-प्रदर्शन करते सुनाइ्र दे रहे हैं। और जगह-जगह अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। पाक अधिकृत कश्मीर व ब्लूचिस्तान के नागरिक पाकिस्तान के हुक्मरानों की उनदेखी तथा सेना के ज़ुल्मो-सितम से इतना तंग आ चुके हैं कि अब यहां के लोग अपनी सहायता की $गरज़ से विश्व बिरादरी की ओर देखने लगे हैं। शेष पाकिस्तान में भी गरीबी,बेरोज़गारी,अव्यवस्था,अराजकता तथा जातिवाद का ज़हर घुल चुका है। रेल यातायात गिरावट की ओर बढत़ा जा रहा है। कट्टरपंथ व कठमुल्लापन का बोलबाला होता जा रहा है। जनरल मुशर्रफ के राष्ट्रपति रहते हुए हुआ आप्रेशन लाल मस्जिद तथा सलमान तासीर की उन्हीं के संरक्षक द्वारा की गई हत्या इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है। आतंकवादियों ने बर्बरता की सीमाएं किस हद तक पार कर ली हैं इसका अंदाज़ा गत् वर्ष पेशावर में एक सैनिक सकूल में सैन्य कर्मियों के बच्चों पर हुए नृशंस आक्रमण से लगाया जा सकता है। परंतु पाकिस्तान को इन सब बातों से निपटने की शायद ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही। बजाए इसके पाकिस्तान ने उस भारतीय कश्मीर में टांग अड़ाए रखने को पाक नेताओं की प्रतिष्ठा का प्रश्र बना लिया है जहां उसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। पाकिस्तान यदि कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला समझकर इस विषय को भारत व कश्मीरियों के मध्य का विवाद ही रहने दे तो भी यह विषय यथाशीघ्र सुलझ सकता है। परंतु पाकिस्तान द्वारा यहां के अलगाववादियों को निरंतर दी जाने वाली शह उन्हें भारत के विरुद्ध साजि़शें रचने पा मजबूर करती है। लिहाज़ा अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ते पाकिस्तान के हुक्मरानों को अपने देश तथा वहां की अवाम की चिंता करनी चाहिए भारतीय कश्मीरियों की नहीं ।