यूरोपीय औद्योगिक क्रांति की कोख से उत्त्पन्न औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने अपनी जडें जमाने के लिए एक से बढ कर एक ऐसे-ऐसे नायाब षड्यंत्रों का आविष्कार-प्रचार और इस्तेमाल किया कि उपनिवेशित देशों की कथित आजादी के बावजूद उसके वो षड्यंत्र आज भी दुनिया भर में जारी हैं । कम से कम एशियायी देशों, विशेष कर भारत में तो पूरी मुस्तैदी और आक्रामकता के साथ । एशियायी देशों पर अपने औपनिवेशिक शासन के पक्ष में समर्थन हासिल करने के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों ने एक ओर जहां अपने चर्च के मजहबी विस्तारवादी एजेण्डों को क्रियान्वित किया , वहीं दूसरी ओर दुनिया भर में विभिन्न देशों के ऐतिहासिक तथ्यों, धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं, रीतियों, परम्पराओं को तोड-मरोड कर अपने हिसाब से प्रस्तुत किया और ज्ञान-विज्ञान , शोध-अनुसंधान के नाम पर अपनी तत्सम्बन्धी नीतियों को भी अंजाम दिया । उननें न केवल उपनिवेशित देशों की शिक्षण-पद्धति को नष्ट-भ्रष्ट कर वहां अपने अनुकूल शैक्षिक प्रणाली विकसित की , बल्कि ज्ञान के स्थापित सत्य को उलट कर भ्रामक असत्य ही स्थापित कर दिया ।
मालूम हो कि भारत में विदेशी ब्रिटिश शासन की स्वीकार्यता कायम करने के लिए अंग्रेजों ने न केवल इतिहास की किताबों में यह असत्य प्रतिपादित-प्रक्षेपित किया कि ‘आर्य’ भारत के मूल निवासी नहीं हैं , बाहर से आये हुए हैं ; बल्कि अपने इस प्रतिपादन को सत्य सिद्ध करने के लिए ‘नस्ल-विज्ञान’ को ज्ञान की एक नई शाखा के रूप में स्थापित कर उसके माध्यम से यह भी प्रमाणित-प्रचारित करने में लगे रहे (आज भी लगे हुए हैं) कि भारत के लोग नाक-नक्श , कद-काठी से भारतीय नहीं , यूरोपीय हैं और ‘मनु’ की नहीं ‘नूह’ की संतानें हैं । उनने अपनी इस परिकल्पना का आधार बनाया बाइबिल की उस कथा को जिसके अनुसार प्राचीन काल में एक महा जल-प्रलय के बाद नूह की सन्तानों ने पृथ्वी को आबाद किया । नूह के तीन पुत्र थे- ‘हैम’ , ‘शेम’ और ‘जाफेथ’ । नूह नग्न रहा करता था, जिसकी नग्नता पर एक बार हैम हंस पडा तो उससे अपमानित होकर उसने उसे श्राप दे दिया कि वह (हैम) सदा ही उसके दो भाइयों ( शेम और जाफेथ) की संतानों के दासत्व में जीवन व्यतीत करे । इस कपोल-कल्पित और बे-सिर-पैर की कथा को पूरी दुनिया का इतिहास मान अंग्रेजों ने स्वयं को नूह के दो पुत्रों- शेम व जाफेथ की सन्तति घोषित कर लिया और उपनिवेशित देश (गुलाम देश) के लोगों को गुलामी के लिए अभिशप्त हेम की सन्तति करार देते हुए उन्हें ‘गुलामी के लायक ही’ घोषित कर दिया ।
फिर तो उनके इस प्रचार (दुष्प्रचार) के आधार पर उनके औपनिवेशिक साम्राज्य का औचित्य सिद्ध करने में समूचा यूरोप ही उनके साथ खडा हो गया । समस्त यूरोप के बुद्धिजीवियों वैज्ञानिकों व दार्शनिकों ने इस भ्रामक तथ्य को स्थापित प्रतिपादित करने का एक अभियान ही चला दिया , जिसकी परिणति है नस्ल-विज्ञान । प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली के प्रखर प्रवक्ता उत्तमभाई जवानमल शाह और गो-हत्या के विरूद्ध अभियान चला रहे वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरविन्द भाई पारेख का मानना है कि श्वेत चमडी वालों ने अश्वेत प्रजा को समाप्त कर देने और दुनिया के समस्त संसाधनों पर अपना कब्जा जमा लेने के लिए भिन्न-्भिन्न तरह के बौद्धिक षड्यंत्र कायम कर रखा है, जिनमें से एक नस्ल-विज्ञान भी है ।
मालूम हो कि भारत के सम्पर्क में आने के पश्चात भारतीय सभ्यता संकृति की जडों को तलाशने के क्रम में वेदों के अध्ययन व संस्कृत भाषा के मंथन से यूरोपीय विद्वानों-दार्शनिकों को जब ‘आर्य ’ जाति की श्रेष्ठता व बौद्धिकता का साक्षात्कार हुआ तब उननें भाषा-विज्ञान का प्रतिपादन कर उसके सहारे कतिपय शब्दों व ध्वनियों की संगति बैठा कर यह मिथक गढ दिया कि संस्कृत ‘इण्डो-यूरोपियन’ भाषा-परिवार की एक भाषा है तथा आर्य मूलतया यूरोप के निवासी व नूह की सन्तान थे और श्वेत चमडी वाले थे , जो भारत पर आक्रमण करने के पश्चात वहां रहने-बसने के दौरान वहां की अश्वेत प्रजा से घुलने-मिलने के कारण स्वयं भी थोडा प्रदूषित (‘अश्वेत’) हो गए । जोजेफ आर्थर कामटे डी गोबिनो नामक एक फ्रांसिसी इतिहासकार ने मानव की ‘गोरी श्रेणी’ और उसके भीतर ‘आर्य-परिवार’ की श्रेठता का सिद्धांत प्रतिपादित किया , जिसके अनुसार उसने पृथ्वी पर तीन नस्लों की परिकल्पना प्रस्तुत की- ‘श्वेत’ , ‘ अश्वेत ’ और ‘ प्रदूषित ’ ।
कालान्तर बाद अठारहवीं शताब्दी में उन यूरोपियन विद्वानों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ का आविष्कार कर के औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का औचित्य सिद्ध करना शुरू कर दिया , जबकि साम्राज्यवादी हुक्मरानों द्वारा इस भ्रामक विज्ञान का इस्तेमाल शासन के एक प्रभावकारी उपकरण के रूप में किया जाने लगा । ब्रिटिश योजनापूर्वक प्रतिस्थापित और बहु-प्रचारित विद्वान फ्रेडरिक मैक्समूलर ने वैदिक साहित्य के अनुवाद के क्रम में वेदों की व्याख्या दो नस्लों के पारस्परिक संघर्ष के रूप में कर के यह विभेद स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत के मूलवासी द्रविड-अनार्य हैं, जो आर्यों द्वारा शोषित होते रहे हैं ( जबकि भारत में बसे हुए आर्य स्वयं भी हेम की संतति हैं जो नूह के शेष दो पुत्रों की दासता के लिए अभिशप्त हैं ) । उसने भारतीयों में नस्ली-भेद निर्धारण के बावत वेद-वर्णित विभिन्न वर्णों-समुदायों से सम्बद्ध लोगों के बीच की शारीरिक विशिष्टतायें-भिन्नतायें खोजने का बहुत प्रयास किया , किन्तु कुछ नहीं मिला; क्योंकि वर्ण-व्यवस्था शारीरिक भिन्नता अथवा नस्ल-भेद पर तो आधारित थी नहीं । तब उसने थक हार कर ऋग वेद में किसी स्थान पर प्रयुक्त ‘अनास’ शब्द (जिसका सम्बन्ध नासिका से कतई नहीं है) के आधार पर यह व्याख्यायित कर दिया कि वेदों में विभिन्न जनजातियों के लिए उनकी नासिकाओं (नाकों) की अलग-अलग पहचान का वर्णन है ।
बाद में लन्दन स्थित रायल एन्थ्रोपोलोजिकल इंस्टिच्युट के एक प्रभावशाली ब्रिटिश अधिकारी- हर्बर्ट होप रिस्ली ने मैक्समूलर की उसी अधकचरी व्याख्या को अपनी सुविधानुसार खींच-तान कर एक पूरी की पूरी नासिका-तालिका ही बना दी, जिसमें विभिन्न आकार-प्रकार की नाकों की लम्बाई-चौडाई-ऊंचाई के आधार पर सम्बन्धित नाक वालों के नस्ल का निर्धारण कर दिया । इस नस्ल-निर्धारण का सिर्फ और सिर्फ एक ही उद्देश्य था- भारतीय समाज की जीविका व श्रम आधारित वर्ण-व्यवस्था को नस्ल-आधारित बनाना अर्थात सामाजिक विखण्डन का बीज बोना और अपने सहयोगी-शुभचिन्तक लोगों-समुदायों की नाकों को अपनी नाकों के समान घोषित कर अपना औपनिवेशिक साम्राज्यवादी उल्लू सीधा करते रहना । द्रविड और दलित दायरों में पश्चिमी हस्तक्षेप विषयक पुस्तक- “ भारत विखण्डन ” के लेखक-द्वय राजीव मलहोत्रा व अरविन्दन नीलकन्दन के अनुसार नासिका-तालिका बनाने वाले उस ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा भी है कि “ वह अपने नस्ल विज्ञान के सहारे हिन्दू-जनसमुदाय से अनार्यों की एक बडी जनसंख्या को अलग कर देना चाहता था ” ।
मालूम हो कि रिस्ले द्वारा प्रतिपादित नस्ल-विज्ञान विषयक नासिका तालिका के विभिन्न आंकडों के आधार पर ही अंग्रेजों ने मैदानी क्षेत्रों में वास करने वाली विभिन्न जातियों को हिन्दू और जंगली क्षेत्रों में रहनेवाली जनजातियों को गैर-हिन्दू के रूप में चिन्हित-विभाजित कर भारतीयों को सात नस्ल-समूहों और दो प्रमुख नस्ल-समुच्चयों- आर्य व द्रविड में विभाजित कर दिया । फिर तो सन १९०१ में भारतीय जनगणना आयोग का अध्यक्ष बन रिस्ले ने अपनी उसी नासिका तालिका के आधार पर जनगणना करा कर समस्त भारतीयों को २३७८ जातियों-जनजातियों और ४३ नस्लों में विभाजित कर दिया । रिस्ले द्वारा शुरू की गई वह जनगणना आज भी हर दस वर्ष पर होती है, जिसमें हर भारतीय को उसी रिस्ली वर्गीकरण के आधार पर अपनी जाति दर्ज करानी होती है । ऐसे में यह समझा जा सकता है कि आज अपने देश में व्याप्त जातीयता के विष-बेल का बीज वस्तुतः अंग्रेजों के इसी नस्ल-विज्ञान से निकला हुआ और उन्हीं के द्वारा बोया हुआ है श्वेत चमडी की स्वघोषित श्रेठता और उसकी औपनिवेशिक साम्राज्य-सत्ता का औचित्य सिद्ध करने के लिए । इस नस्ल-विज्ञान के भीतर का विधान ऐसा विभेदकारी है अब दक्षिण भारत के लोग खुद को आर्यों से अलग द्रविड मानते हुए अपनी अलग राष्ट्रीयता की वकालत करने लगे हैं, जबकि वनवासी जनजातियां भी वामपंथी-माओवादी शक्तियों और चर्च की ‘ श्वेत गतिविधियों ’ के बहकावे में आकर अपनी पृथक पहचान की बात करने लगे हैं ।