भारत माता की जय और राष्ट्रवाद

                        सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ देश में पहली बार पूर्ण बहुमत से केंद्रीय सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल के शुरुआती दौर में ही कभी घर वापसी, तो कभी लव जेहाद,कभी जो हमसे असहमत उसे पाकिस्तान भेजो तथा गाय और गंगा जैसे तमाम विवादित एवं ज्वलंत विषयों पर देश में गर्मागर्म बहस होती देखी गई। इसी प्रकार सहिष्णुता व असहिष्णुता के विषय पर भी एक लंबी बहस चली। देश के सैकड़ों बुद्धिजीवियों,लेखकों,समाजसेवियों तथा अन्य विभिन्न क्षेत्र के लोगों द्वारा कथित रूप से देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरुद्ध अपने-अपने सम्मान व पुरस्कार वापस लौटाए गए। और विवादों के इसी वातावरण के बीच अब दिल्ली के केंद्रीय विश्वविद्यालय जेएनयू में कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से देश विरोधी नारे लगाए जाने का मामला एक गर्मागर्म बहस का विषय बन गया है। शातिर राजनीतिज्ञों द्वारा इस विषय को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने की तथा इसी विषय पर राष्ट्रवाद बनाम गैर राष्ट्रवाद की बड़ी रेखा खींचने की कोशिश की जा रही है। जेएनयू में कुछ छात्रों द्वारा जहां कई राष्ट्रविरोधी तथा आपत्तिजनक नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हुए लगाए गए वहीं जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के विश्वविद्यालय में छात्रों के मध्य दिए गए भाषणों का भी गहन पोस्टमार्टम किया जा रहा है।

                        गौरतलब है कि कन्हैया ने अपने भाषण में जहां तमाम वह बातें कीं जो कम्युनिस्ट विचारधारा से ओतप्रोत थीं वहीं उसने अपने भाषण में एक वाक्य यह भी कहा कि-‘यदि भारत माता में मेरी मां शामिल नहीं है फिर आखिर मैं भारत माता की जय कैसे बोलूं’? अब कन्हैया के इस वाक्य के विश£ेषण कर्ताओं पर निर्भर है कि वे इसे किस नज़रिए से देखें। या तो इसे इस नज़रिए से समझा जाए कि उसकी उपरोक्त बात में भारत की गरीब,पिछड़ी,दलित तथा आए दिन शोषण का शिकार होने वाली मांओं का दर्द छुपा है। या फिर इस बात को उसकी राजनैतिक विचारधारा को देखते हुए इस लिहाज़ से सोच लिया जाए कि वह व्यक्ति भारत माता की जय बोलने से इंकार कर रहा है अत: उसकी राष्ट्रभक्ति व उसका राष्ट्रप्रेम संदिग्ध है। जिस समय कन्हैया कथित राष्ट्रद्रोह के आरोप से ज़मानत पाकर जेल से रिहा हुआ और जेएनयू कैंपस में आकर उसने अपना एक ऐसा ऐतिहासिक भाषण दिया जिसे देश के अधिकांश टीवी चैनल्स द्वारा लाईव प्रसारित किया गया तथा पूरे देश में करोड़ों लोगों द्वारा उसके भाषण को बड़ी ही गंभीरता से सुना गया। इसके बाद तमाम राजनैतिक दलों के नेताओं ने कन्हैया के भाषण पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी थीं। जहां विभिन्न दलों के नेताओं ने कन्हैया के भाषण की तारीफ की वहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इसपर अपनी प्रतिक्रिया में कन्हैया को ‘चूहा’ बताया तथा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से बचने की कोशिश की। परंतु संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस घटना के बाद ही यह बयान दिया कि देश की नई पीढ़ी के लोगों को भारत माता की जय बोलना सिखाना होगा।

                        भागवत के इस बयान पर कन्हैया अथवा उसके प्रेरक राजनैतिक दल कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से तो कोई प्रतिक्रिया $िफलहाल नहीं आई परंतु हैदराबाद से संचालित होने वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इतिहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष एवं हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी द्वारा संघ प्रमुख को इसी संदर्भ में अपना उत्तर दिए जाने की अकारण आवश्यकता महसूस की गई। और पिछले दिनों उन्होंने महाराष्ट्र में एक जनसभा में अपने समर्थकों में जोश का संचार करने के लहजे में यह कह डाला कि वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे भले ही उनकी गर्दन पर चाकू क्यों न रख दिया जाए। उन्होंने अपने इस कथन को मज़बूती देने के लिए संविधान का उल्लेख करते हुए कहा कि संविधान मे यह कहीं भी नहीं लिखा है कि भारत माता की जय बोलना ज़रूरी है। दूसरी ओर यही ओवैसी हिंदुस्तान जि़ंदाबाद बोलने से इंकार भी नहीं करते। इस विषय पर मीडिया में छिड़ी बहस के दौरान उन्होंने यह कहा भी कि हम हिंदुस्तान जि़ंदाबाद का नारा लगाते हैं तथा इसे लगाने से कोई परहेज़ नहीं करते फिर आखिर  भारत माता की जय बोलने पर ही इतना ज़ोर क्यों दिया जा रहा है?  खासतौर पर संघ परिवार हिंदोस्तान जि़ंदाबाद व भारत माता की जय के शब्दांतर की बाज़ीगरी का लाभ उठाते हुए इस विषय पर क्योंकर राजनीति करना चाह रहा है?

                        हालांकि यहां ओवैसी के इस कथन से भी मैं व्यक्तिगत् रूप से सहमत नहीं कि भारत माता की जय किसी कीमत पर नहीं बोलूंगा चाहे उनकी गर्दन पर छुरी ही क्यों न रख दी जाए। भारत का प्रत्येक नागरिक जो राष्ट्रगान के प्रति अपनी आस्था रखता है तथा विभिन्न अवसरों पर राष्ट्रगान या राष्ट्रगान की धुन बजने के समय खड़ा होकर उसके प्रति अपना सम्मान दर्शाता है उस राष्ट्रगान का अंत ही जय हे जय हे जय हे पर होता है। फिर आखिर यह भारत की नहीं तो किसकी जय का गुणगान है?  दूसरी बात यह कि यदि यह राष्ट्रगान जो आज हमारे प्रचलित व मान्यता प्राप्त राष्ट्रगान का रूप धारण कर चुका है उसके यदि चार छंद और जोड़ दिए जाते जोकि राष्ट्रगान के और अधिक बड़ा हो जाने के कारण नहीं जोड़े गए तो भारत की विशेषता तथा इसकी भिन्नता एवं अनेकता में एकता की आत्मा को और भी अच्छे तरीके से समझा जा सकता था। ऐसा ही न पढ़े जाने वाले एक छंद की पंक्तियां इस प्रकार हैं-‘अहरह तव आह्वान प्रचारित,शुनि तव उदारवाणी। हिंदू,बौद्ध,शिख,जैन, पारसिक,मुसलमान,ख्रिस्तानी। पूरव-पश्चिम आसे,तव सिंहासन पाशे, प्रेमहार जयगाथा। जन-गण-ऐक्य-विधायक जय हे,भारत भाग्य विधाता। जय हे जय हे जय हे, जय जय जय जय हे। यह छंद अपने-आप में यह प्रमाणित करने के लिए का$फी है कि भारतवर्ष किसी एक धर्म-जाति,विचारधारा की धरती नहीं यहां तक कि इसमें स्वदेशियों व विदेशियों तक के मान-सम्मान की बात कही गई है। ऐसी पावन धरती को जय कहने पर किसी भारतवासी को तो क्या किसी विदेशी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

                        जहां तक भारतमाता की जय के नारे की उत्पत्ति का प्रश्र है तो वास्तव में इसके उद्घोष की  शुरुआत भारतीय स्वाधीनता संग्राम के समय हुई थी। स्वाधीनता के संग्राम में जूझ रहे सेनानियों में जोश व उत्साह के संचार हेतु इस उद्घोष को इस्तेमाल किया जाता था। केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोग उस धरती को अपनी मां के रूप में ही देखते हैं जिस जगह वे जन्म लेते हैं या जिस मिट्टी का पैदा किया गया अन्न खाते हैं या जिस धरती पर रहकर वे अपना संपूर्ण जीवनयापन करते हैं। इसी संदर्भ में $भारत माता के अतिरिक्त फ़ारसी के मादर-ए-हिंद शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। हम अपनी राष्ट्रभाषा को मादरी  ज़बान या मातृभाषा कहकर भी संबोधित करते हैं। फिर आखिर हमें भारत माता शब्द से या इसके उच्चारण से कैसी आपत्ति हो सकती है? भारत में जन्मे किसी भी व्यक्ति को होनी भी नहीं चाहिए। परंतु भारतमाता की जय बोलना ही होगा और भारत माता की जय नहीं बोलूंगा चाहे इसके लिए मेरी गर्दन पर छुरी ही क्यों न रख दी जाए जैसी बातें कर देश के माहौल को $खराब करने को कोशिश कतई नहीं की जानी चाहिए।

                        जहां ओवैसी को किसी समाज या दल विशेष की ओर से यह कहने का अधिकार नहीं कि उनके कहने पर कोई व्यक्ति या समाज भारत माता की जय बोलेगा अथवा नहीं वहीं संघ अथवा किसी दूसरे राजनैतिक दल या विचारधारा के लोगों को भी यह अधिकार नहीं कि वे किसी व्यक्ति अथवा समाज अथवा राजनैतिक दल की राष्ट्रभक्ति की कसौटी यही निर्धारित करें कि अमुक व्यक्ति,समाज अथवा दल के लोग भारतमाता की जय का उद्घोष करते हैं अथवा नहीं। यदि संघ आज भारतमाता की जय के उद्घोष को लेकर देश के लोगों को राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रवाद का प्रमाणपत्र बांटने की कोशिश करता है तो निश्चित रूप से संघ से व इसके नीति निर्धारकों से यह सवाल ज़रूर पूछे जाएंगे कि जिस समय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में भारत माता की जय के उद्घोष का श्रीगणेश हुआ था और अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत माता के सभी सुपूत बिना किसी धर्म व जाति के भेदभाव के भारतमाता की जय के उदघोष के साथ अंग्रज़ों भारत छोड़ो का नारा बुलंद कर रहे थे उस समय आप जैसे स्वयंभू राष्ट्रवादी स्वयंसेवक अपना गणवेश धारण कर कहां छुपे बैठे थे? उस समय तो आपके नीति निर्धारक हमारे देश के उस राष्ट्रगान की आत्मा के विरुद्ध जिसने अनेकता में एकता का सबक सिखाया है, अपना सांप्रदायिकतावादी फलसफा झाड़ते हुए मुसलमानों,कम्युनिस्टों तथा ईसाईयों को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बता रहे थे तथा देश के लोगों को अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई लडक़र अपनी उर्जा नष्ट न किए जाने की सीख दे रहे थे। ओवैसी ने निश्चित रूप से भारत माता की जय बोलने से इंकार कर कोई काबिल-ए-तारीफ काम हरगिज़ नहीं किया परंतु जो लोग भारत माता की जय कहलवाने पर ही आमादा हैं उनके पिछले रिकॉर्ड तथा भविष्य की राजनैतिक चालबाज़ी को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।