भ्रष्टाचार करते हैं अफसर, बदनाम होते है विधायक

समाज में यह समान्य धारणा है कि नेता भ्रष्ट होते हैं। कमीशन लेकर लोगों को ठेका दिलाते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में एक हकीकत इससे अगल है। यहां अनेक ऐसे विधायक हैं जो खुद भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं। अफसरशाही के ब्रेकरों से वे अपने निधि से करने वाले विकास कार्यों को पूरा नहीं करवा पा रहे हैं। अफसरशाही के इस ब्रेकर को तोड़ विधायक निधि से खर्च होने वाली राशि का एक कमीशन है। निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार की शिकायतें तो आम हैं, लेकिन विधायक निधि से स्वीकृत कार्य करने के लिए भी कमीशनखोरी की शिकायत खुद जनप्रतिनिधि करें, तो इससे व्यवस्था की पोल खुल जाती है।

छत्तीसगढ़ में अनेक ऐसे विधायक हैं जो अपने क्षेत्रों में विकास कार्यों को मूर्त रूप देने के लिए विधायक निधि की राशि खर्च करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, लेकिन ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में विधायक निधि से स्वीकृत कार्य कमीशनबाजी के खेल में वर्षों से अटके पड़े हैं। मजेदार बात यह है कि यह पीड़ा केवल विपक्ष कांग्रेस के विधायकों की ही नहीं है, बल्कि सत्ताधारी दल भाजपा के विधायक भी निचले स्तर पर कमीशनखोरी से त्रस्त हैं। विधायक निधि से स्वीकृत कार्यों के सालों तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने से परेशान विधायकों ने एक सुर में मानिटरिंग के लिए कमेटी गठन की मांग उठाई है। विधायकों का मानना है कि उनकी निधि में होने वाले निर्माण कार्यों में अड़ंगा होगा, तो अन्य सरकारी  निर्माण कार्यों के हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। स्वीकृत कार्यों की समीक्षा के लिए बैठकें भी नियमित नहीं हो पा रहीं। रायपुर ग्रामीण के भाजपा विधायक नंदकुमार कहते हैं कि नगरीय निकायों के कार्यों में बहुत परेशानी हो रही है। टेंडर समय पर नहीं लग पाता। ठेकेदार भी काम लेकर बीच में छोड़ रहे हैं। ऐसे में फिर क्या मतलब रह जाता है। समय सीमा में काम हो ऐसा प्रयास होना चाहिए।

तकनीकी स्वीकृति के अभाव में एस्टीमेट भले ही वर्षों अटका दिया जाता हो, लेकिन नियमों में साफ उल्लेखित है कि योजना मंडल को अनुमानित राशि  सात दिनों में तकनीकी स्वीकृत के साथ भेजा जाए। विधायक का कहना है कि ये केवल नियमों में हकीकत कुछ और है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब विधायकों के कार्यों में अफसरशाही के इतने अड़ेंगे आ रहे हैं तो आम आदमी कितना हलाकान होगा। विधायक निधि से विकाय कार्यों की योजना मंडल से प्रस्ताव जनपद पंचायत या ब्लाक स्तर पर भेजा जाता है। यहां सीईओ तकनीकी स्वीकृति के अभाव में काम अटका देते हैं। टीएस एस्टीमेट जमा नहीं होने से सालभर काम ठंडे बस्ते में चला जाता है। राशि जनपदों में भेजने पर सीईओ और बाबू फाइलें दबा रहे हैं। यदि उन्हें कमीशन या कुछ रिश्वत दी जाए तो फाइल आगे बढ़ती है।

कसडोल के कांग्रेस पार्टी के विधायक राजकमल सिंघानिया भी अफसरशाही से ऐसे ही पीड़ित है। श्री सिंघानिया बड़ी ही तल्खी से सीधे-सीधे आरोप लगाते हुए कहते हैं कि केवल विधायक निधि ही नहीं, बल्कि सांसद निधि में भी कमीशनखोरी के चक्कर में अफसर काम आगे नहीं बढ़ाते। मेरे क्षेत्र में तो विधायक निधि के 50 फीसदी काम भी पूरे नहीं हुए। अपनी ही पार्टी की सरकार को हमेशा ही कटघरे में खड़े कर सुर्खियों में रहने वाले धरसीवां  के विधायक देवजी पटेल बिना किसी लाग लपेट के कहते हैं कि जनपद पंचायतों में कमीशनखोरी हो रही है। विधायक और सांसद निधि से संबंधित काम को पेचीदा प्रक्रिया से मुक्त करना चाहिए। यह बहुत ही गंभीर मामला है।

विलाईगढ़ विधायक डा. शिव डहरिया और रायपुर उत्तर के कुलदीप जुनेजा का भी दर्द यही है। उनका कहना है कि विधायक निधि से स्वीकृत कार्यों के टेंडर के बाद अफसर देखने तक नहीं जाते। निर्माण की गुणवत्ता तो दूर की बात है। तीन-तीन साल से नगर निगम में राशि स्वीकृत पड़ी है, लेकिन अफसर ध्यान ही नहीं देते। अफसरों पर नियंत्रण नहीं है। राशि की बंदरबांट हो रही है। कई क्षेत्रों में तो शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों के करीब अस्सी प्रतिशत कार्य अधूरे पड़े हैं। बातीचीत में अनेक विधायक इसी तरह अपना दर्द रोते हैं। विपक्ष के विधायक तो खुल कर अपना दर्द बयान करते हैं। भाजपा के विधायक दबी जुबान में यह सच स्वीकारते हैं और सीधे-सीधे कहते हैं कि भ्रष्ट तो अफसर है और बदनाम नेता है।