योगी राज में दूरी और असुरक्षा से सहमी महिला शिक्षक

संजय सक्सेना 

     उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की तबादला नीति और उससे जुड़ी जटिलताओं पर लंबे समय से बहस जारी रही थी। सरकार द्वारा बार‑बार नए आदेश जारी किए जा रहे थे, किन्तु शिक्षकों की समस्याओं का समाधान नहीं निकल पा रहा था। विशेषकर महिला शिक्षिकाओं के लिए यह मुद्दा किसी बोझ से कम नहीं माना जा रहा था। दूरस्थ स्थानों पर नियुक्ति, परिवार से दूरी, परिवहन की कठिनाइयाँ और कार्यस्थल पर अपेक्षित सुविधाओं का अभाव उनके जीवन को और कठिन बना देता था।राज्य में यह कहा जा रहा था कि शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने और विद्यालयों में शिक्षकों का संतुलित वितरण सुनिश्चित करने के लिए तबादला नीति बनाई गई थी। परंतु जब उसका क्रियान्वयन हुआ तो उसमें पारदर्शिता की कमी और पक्षपात के आरोप लगे। जिन शिक्षकों को पास में नियुक्ति की अपेक्षा थी, वे कई बार सैकड़ों किलोमीटर दूर भेज दिए गए। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत शिक्षक यह कहा करते थे कि विद्यालयों तक पहुँचना स्वयं एक बड़ी चुनौती थी। सड़कें जर्जर रहती थीं और परिवहन के साधन सीमित होते थे। 

     महिलाओं के लिए यह कठिनाई और बढ़ जाती थी। विवाहित महिला शिक्षिकाएँ परिवार और नौकरी के बीच संतुलन बनाने में असमर्थ हो रही थीं। बच्चों की पढ़ाई, बुज़ुर्गों की देखभाल और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच यदि किसी दूरस्थ गाँव में नियुक्ति हो जाती थी, तो दैनिक जीवन कष्टमय हो जाता था। कई बार यह सुनने में आता था कि महिला शिक्षिकाएँ सुरक्षा कारणों से अकेले विद्यालय तक जाने में आशंकित रहती थीं। अनेक महिला शिक्षिकाएँ यह अनुभव कर रही थीं कि यदि विद्यालय तक जाने के लिए बस या साझा सवारी उपलब्ध न हो, तो सुबह‑सुबह घर से निकलकर शाम को अंधेरा होने के बाद लौटना बहुत असुरक्षित लगता था। कुछ प्रकरणों में यह बताया जा रहा था कि अभिभावक और परिवारजन स्वयं महिलाओं को रोज़ाना विद्यालय तक पहुँचाने और वापस लाने के लिए बाध्य हो रहे थे। यह बोझ पूरे परिवार के जीवन को प्रभावित करता था। 

     जब शासन की ओर से यह घोषणा की गई थी कि तबादला नीति के माध्यम से शिक्षकों को उनकी प्राथमिकता दी जाएगी, तब शिक्षकों ने उम्मीद जताई थी। किन्तु वास्तविकता में यह देखा गया कि कई नाम आवेदन करने के बावजूद अपेक्षित रह गए। ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत कुछ शिक्षिकाएँ यह कह रही थी कि उनकी वरिष्ठता और सेवा अवधि को अनदेखा किया गया था। अनुसूचित क्षेत्रों और पिछड़े गाँवों में नियुक्त महिला शिक्षिकाओं का दर्द और गहरा था। वे यह मान रही थीं कि विद्यालय में बच्चों को पढ़ाना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि वहाँ तक सुरक्षित पहुँचना किसी संघर्ष से कम नहीं होता। 

     समाज में शिक्षकों को आदर्श माना जाता रहा है, परंतु जब स्वयं उनका जीवन संघर्षमय हो तो यह आदर्श धुंधला पड़ने लगता है। महिला शिक्षिकाओं ने अपने अनुभव साझा किए थे कि सुबह‑सुबह परिवार को छोड़कर अजनबी परिवेश में जाना, छोटे‑छोटे बच्चों से दूर रहना और लगातार असुरक्षा झेलना उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर थका देता था। कई शिक्षिकाओं ने यह कहा था कि परिवार के सदस्य बीमार पड़ जाएँ तो छुट्टी लेकर घर पहुँचना आसान नहीं होता। लंबी दूरी और सीमित परिवहन सुविधा इस समस्या को और विकट बना देती थी।  कहा जाता है पढ़ाई का वातावरण तब ही बेहतर बन सकता था जब शिक्षक मानसिक रूप से संतुलित और संतुष्ट हों। किंतु जब शिक्षकों को स्थानांतरण की अनिश्चितता और दूरदराज़ की कठिन नियुक्तियों का बोझ झेलना पड़ता, तो उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती थी। बच्चों को पूर्ण मनोयोग से पढ़ाना कठिन हो जाता था।  महिला शिक्षिकाओं ने यह स्वीकार किया था कि कई बार वे पढ़ाते समय भी मन ही मन घर और बच्चों की चिंता करती थीं। इस कारण उनकी अध्यापन की जो क्षमता होती थी, उसमें कमी आ जाती थी। 

     शिक्षकों तथा शिक्षिकाओं की ओर से यह मांग लगातार उठती रही थी कि नीति में पारदर्शिता लाई जाए। वरिष्ठता, सेवा अवधि और पारिवारिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर स्थानांतरण किया जाए। विशेषकर महिला शिक्षिकाओं की सुरक्षा, बच्चों की देखभाल और परिवार से निकटता को प्राथमिकता दी जाए। कई संगठनों ने यह प्रस्ताव रखा था कि विवाहित महिला शिक्षिकाओं को संभव हो सके तो पति के कार्यस्थल के निकट ही नियुक्ति दी जाए। अविवाहित और युवा शिक्षिकाओं को सुरक्षित एवं सुगम परिवहन वाले क्षेत्रों में रखा जाए। अतिरिक्त आवश्यकता के बिना किसी को अत्यधिक दूर न भेजा जाए। 

     हालाँकि शासन की ओर से यह दावा किया जाता रहा था कि हर समस्या पर गंभीरता से विचार हो रहा है, किन्तु शिक्षक समुदाय का अनुभव कुछ और कह रहा था। शिक्षिकाओं को लगता था कि उनकी आवाज़ को उचित महत्व नहीं दिया जा रहा है।वर्षों से यह देखा जा रहा था कि शिक्षक संगठन इस विषय पर धरना‑प्रदर्शन करते रहे। पत्राचार और शिकायतों के बावजूद समाधान लंबित रहता था। महिला संगठन विशेष रूप से यह कहते रहे कि यदि महिलाओं को शिक्षा क्षेत्र से हतोत्साहित किया गया, तो इसका नकारात्मक असर आने वाली पीढ़ियों पर पड़ेगा।  तमाम महिला शिक्षिकाएं अक्सर कहती मिल जाती हैं कि पढ़ाना केवल उनका कर्तव्य नहीं था, बल्कि समाज के भविष्य को आकार देने का प्रयास था। परंतु जब वह हर दिन विद्यालय जाते समय असुरक्षा और दूरी का भय महसूस करती थीं, तो उनका मनोबल टूट जाता था।  उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की तबादला नीति केवल एक शासकीय दस्तावेज़ भर नहीं थी, बल्कि उससे हज़ारों शिक्षकों का जीवन तय होता था। महिला शिक्षिकाएँ तो इस व्यवस्था से सबसे अधिक प्रभावित हो रही थीं। उनके सामने घर और विद्यालय दोनों का संतुलन साधने की चुनौती थी। प्रशासन यदि उनकी परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करता रहा, तो शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता पर भी गंभीर असर पड़ना तय था।  इसलिए यह भावना प्रकट की जा रही थी कि नीतियों को ज़मीनी वास्तविकताओं से जोड़ना ज़रूरी है। केवल नियम बनाने से समस्या हल नहीं होती। जब तक महिला शिक्षकों की असल पीड़ा को सुना और समझा नहीं जाएगा, तब तक शिक्षा जगत में संतुलन और न्याय स्थापित नहीं हो पाएगा। 

                                    ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, उपरोक्त लेख उसके स्वयं के विचार हैं)

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

*