कांग्रेस में नए जिलाध्यक्षों पर सवाल और राजस्थान में बवाल

     राजस्थान में नए कांग्रेस जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के बाद जबरदस्त घमासान मचा है। कहीं नए जातिगत समीकरणों पर सवाल खड़े हो रहे हैं, तो कहीं कमजोर को कमान सौंपने का मुद्दा है। किसी की विचारधारा पर विवाद है, तो कहीं पर उसका जनाधार ही न होने पर बवाल है। हर जिले में नए जिलाध्यक्ष नहीं बने नेताओं ने, जिलाध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के लिए यह बेहद मुश्किल हो रहा है कि उनके बनाए जिलाध्यक्षों को कई जिलों में स्वीकारा ही नहीं जा रहा है। इस घमासान का नुकसान कांग्रेस कैडर को हो रहा है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के दस्तखत से नए घोषित कुल 45 जिलाध्यक्षों की नियुक्ति पर मचे इस घमासान से कांग्रेस संगठन को मजबूत बनाने के बजाय बिखराव की मुश्किलें ज्यादा बढ़ रही है। नए बने जिलाध्यक्षों में 12 वर्तमान और 5 पूर्व विधायक – मंत्री हैं। पांच जिलों में कुछ ज्यादा ही विवाद होने से घोषणा रोक दी गई है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के फॉर्मूले पर युवक कांग्रेस में चुनाव पहले से ही उसका कबाड़ा कर चुके हैं, और अब कांग्रेस में भी संगठन सृजन की बहुप्रचारित फार्मूले के तहत लंबी रायशुमारी और अध्यक्ष पद की दावेदारी में छंटनी से छन कर निकले जिलाध्यक्षों का यह ‘संगठन सृजन’ संगठन विसर्जन अभियान ज्यादा लग रहा है।

राहुल के फार्मूले की विफलता

कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी ने कांग्रेस को कैडर आधारित, चुनावी तैयार संगठन में बदलने के लिए ‘संगठन सृजन’ जैसा मॉडल अपनाया, जिसमें मुख्य संगठन और युवक कांग्रेस, महिला कांग्रेस, सेवादल, एनएसयूआई संगठनों में चुनाव, सर्वे और पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट के आधार पर नई टीमें बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। युवक कांग्रेस में आंतरिक चुनाव करवाने का प्रयोग भी इसी सोच का हिस्सा था, लेकिन इससे कई जगह पैसे, गुटबाजी और स्थानीय ताकतवर नेताओं का दखल इतनी बढ़ा कि संगठन में असंतोष और विभाजन पहले से ज्यादा सामने आ गया। टिकट और पद के लालच में गुट बना कर चुनाव लड़ने से युवा कार्यकर्ताओं का वैचारिक प्रशिक्षण और दीर्घकालिक निष्ठा कमजोर हुई, और हारने वाले खेमे पार्टी से दूर या निष्क्रिय हो गए, तथा कमजोर लोग ज्यादा हावी भी हो गए। शताब्दी गौरव के संपाक सिद्धराज लोढ़ा का मानना है कि राहुल गांधी का कांग्रेस को अपने तरीकों से मजबूत करने का फार्मूला फेल साबित हो रहा है। युवक कांग्रेस में चुनाव करवाने से पहले ही कांग्रेस का नुकसान हुआ मगर राहुल गांधी समझने को ही तैयार नहीं है। लोढ़ा कहते हैं कि संघ परिवार की धारा से आए लोगों को भी विधायक बनाने के बाद अब जिला कांग्रेस की कमान भी सौंपी गई है। आज नए जिला अध्यक्षों को लेकर राजस्थान कांग्रेस में जो धमाल दिख रहा है, उसे राहुल के प्रयोगवादी मॉडल को एक स्थिर संगठन के लिए सवाल के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।

समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी

संगठन सृजन अभियान के तहत राजस्थान में 45 नए जिलाध्यक्षों की सूची जारी होते ही कई जिलों में विरोध, इस्तीफे और सार्वजनिक नाराजगी की लहर उठी। कुछ नवनियुक्त जिलाध्यक्षों ने खुद जिम्मेदारी लेने से इंकार किया या त्यागपत्र की बात कही, तो कई दावेदार और उनके समर्थक सोशल मीडिया और ज्ञापनों के जरिए खुले विरोध पर उतर आए, जिससे अभियान का मकसद यानी संगठन को मजबूत करना, उलटा पार्टी के लिए सिरदर्द बन गया है। वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह राजपुरोहित बताते हैं कि जोधपुर, जालोर, बाड़मेर और जयपुर जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील जिलों में नाराज नेताओं का आरोप है कि पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गई और असली फैसला सिफारिश, धनबल और गुटीय दबाव के आधार पर हुआ, जिससे पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी हुई और स्थानीय जातीय व राजनीतिक संतुलन भी बिगड़ गया। कई जगह कार्यकर्ताओं ने सामूहिक इस्तीफे, बैठकों का बहिष्कार और मीडिया बयानबाजी का रास्ता पकड़ लिया, जिसने यह संदेश दिया कि नई जिला अध्यक्ष की सूची को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल पाई है।

गुटबाजी से बने कमजोर जिलाध्यक्ष

राजस्थान कांग्रेस पहले से ही सचिन पायलट की खेमेबाजी और लंबी खींचतान और गुटबाजी से जूझती रही है, जिससे पार्टी का संगठनात्मक मनोबल कई बार गिरा है। ऐसे माहौल में लगातार साढ़े पांच साल से ज्यादा समय से प्रदेश अध्यक्ष पद पर बैठे गोविंद सिंह डोटासरा को यह स्पष्ट अंदाजा है कि भविष्य में भी इस पद पर बने रहना उनके लिए अपने व्यक्तिगत जनाधार के बूते कतई आसान नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने नए जिलाध्यक्ष नियुक्ति को अपने सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की है। राजनीतिक विश्लेषक राजकुमार सिंह का कहना है कि राजस्थान के कई जिलों में ऐसे लोगों को भी जिलाध्यक्ष बनाया गया, जो या तो अपेक्षाकृत कमजोर या जनाधारहीन माने जाते हैं या फिर स्थानीय जातीय समीकरणों के खिलाफ हैं, ताकि वे व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति ज्यादा निर्भर और वफादार रहें तथा आगे चलकर प्रदेश में ताकतवर गुट के रूप में डोटासरा की ही नेतृत्व वाली भूमिका सुरक्षित रहे। राजस्थान के दिग्गज पत्रकार त्रिभुवन कहते हैं कि जिस तरह से नेताओं के बेटे-बेटियों को पद और ज़िम्मेदारियां बांटी गई हैं, वे आने वाले समय में कांग्रेस के लिए भारी बोझ साबित हो सकते हैं। जानी – मानी पत्रकार रेणु मित्तल दुख व्यक्त करते हुए कहती है कि ऐसा संभवतया पहली बार हुआ है कि कुछ जिलाध्यक्ष के पद बेचे गए और पैसे का लेनदेन हुआ है। इससे संगठन में दो तरह का नुकसान हुआ है, एक तरफ स्थानीय समाज में प्रतिनिधित्व और संतुलन का भाव कमजोर पड़ा, दूसरी तरफ पुराने प्रभावशाली नेताओं और कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर देने की धारणा ने बगावत की जमीन तैयार की, जो आज जिले ‑ जिले में दिखाई दे रही है।

अब बड़े नेताओं की जिम्मेदारी

नई सूची में समझा जा रहा है कि नाम तय करने में गोविंद सिंह डोटासरा का, कुछ में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का, तो कुछ में कांग्रेस महासचिव सचिन पायलट का प्रभाव ज्यादा रहा। कुछ जिलों  में नाम को लेकर दिल्ली स्तर तक खींचतान हुई और हाईकमान को पैनल वापस मंगाकर फिर से मंथन करना पड़ा, जो इस बात का संकेत है कि तीनों शीर्ष राज्य नेताओं के हिस्से के जिला अध्यक्षों की अनौपचारिक बंदरबांट की राजनीति भी काम कर रही थी। अब जब सूची से असंतोष खुलकर सामने आ चुका है, तो तीनों नेताओं पर दोहरी जिम्मेदारी है कि वे अपने‑अपने समर्थक जिलाध्यक्षों से बात कर उन्हें शांत और सक्रिय रखें साथ ही जिन जिलों में उनके विरोधी या दूसरे गुट के लोग नियुक्त हुए हैं, वहां संवाद, समन्वय और साझा कार्यक्रमों के जरिए यह संदेश दें कि जिला अध्यक्ष किसी एक नेता का नहीं, पूरी कांग्रेस का प्रतिनिधि है। अगर डोटासरा, गहलोत और पायलट मिलकर नाराज व विरोध करने वाले जिला स्तरीय नेताओं से एक साथ मिल कर चर्चा करे, तथा कुछ विवादित नियुक्तियों पर संशोधन या समायोजन जैसे संगठनात्मक कदम जल्दी नहीं उठाए जाते, तो नए जिलाध्यक्षों की यह सूची अगले विधानसभा और पंचायत चुनावों से पहले कांग्रेस के लिए अवसर की बजाय बड़ी कमजोरी साबित हो सकती है।

 

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