नए दौर में नए तरीके से हो साहित्य पत्रकारिता

पुनर्जागरण और नवाचार को भीतर समाहित कर, आवाम के मनोभावों को शब्दों के धागे में पिरोकर, चेतना के ऊर्ध्वाधर आभामंडल में, स्वच्छता, स्वच्छंदता और सर्वांगीण विकास की इमारतों का निर्माण करने वाली वैचारिक शक्ति को संसार साहित्य मानता है, और इसी के भीतर वह शक्ति होती है, जो जनमानस को सहज भाव से, आत्मीय होकर, मन से जुड़ता हुआ प्रभावित कर सकता है। साहित्य का स्वभाव जनजागरण, नवाचार और परिवर्तन है, इन्हीं कारणों से साहित्य का उदय भी हुआ और अस्तित्व भी कायम है।

आज़ादी के पहले से साहित्य पत्रकारीता, पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं का चलन है और इनसे भारत का आज़ादी आन्दोलन मज़बूत और प्रभावी भी हुआ था, इसी कारण से अख़बार को राष्ट्र जागरण का कारक माना जाता रहा है। किंतु वर्तमान दौर में न साहित्य और न ही साहित्यिक संस्थाओं के उद्देश्यों की स्थापना प्रभावी हो रही है क्योंकि सामान्य अख़बारों से साहित्य का क्षरण और साहित्य पत्रकारिता जैसी विधा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। साहित्यिक पत्रकारिता एक प्रकार की गद्य पत्रकारिता है, जो कथा तकनीक और शैलीगत रणनीतियों के साथ तथ्यात्मक रिपोर्टिंग को पारंपरिक रूप से कथा साहित्य से जोड़ती है। लेखन के इस रूप को कथात्मक पत्रकारिता या नई पत्रकारिता भी कहा जा सकता है। साहित्यिक पत्रकारिता शब्द का उपयोग कभी-कभी रचनात्मक रूप से ग़ैर-बराबरी के साथ किया जाता है, हालांकि, इसे एक प्रकार की रचनात्मक ग़ैर-कल्पना के रूप में माना जाता है।

साहित्यिक पत्रकारिता की शुरूआत भारत में 19वीं सदी में हो चुकी थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को साहित्यिक पत्रकारिता का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने वर्ष 1868 में साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधा का प्रकाशन किया। भारतेन्दु जी के जन्मस्थल बनारस से उस समय छः पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं- कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र-मैगज़ीन, बालबोधिनी, काशी समाचार व आर्यमित्र। द्विवेदी युग (1900-1918 ई.) में कई साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई। वर्ष 1900 में इलाहबाद से मासिक पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन शुरू  हुआ। वर्ष 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपादन में इस पत्रिका ने नई ऊंचाइयों को छुआ। साहित्य के क्षेत्र में द्विवेदी जी ने व्याकरण एवं खड़ी बोली को एक नई दिशा प्रदान की। इस समय की अन्य पत्रिकाएँ सुदर्शन, देवनागर, मनोरंजन, इन्दु समालोचक आदि थी।

छायावाद काल में चांद, माधुरी, प्रभा साहित्य, संदेश, विशाल भारत, सुधा, कल्याण, हंस, आदर्श, मौजी, समन्वय, सरोज आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ सामने आईं। वर्तमान में सारिका, संचेतना, निहारिका, वीणा, प्रगतिशील समाज, साहित्य ग्राम, मातृभाषा, कथासागर, सन्देश, आलोचना, सरस्वती संवाद, नया ज्ञानोदय, हंस आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। नॉर्मन सिम्स ने अपनी ग्राउंड-ब्रेकिंग एंथोलॉजी द लिटररी जर्नलिस्ट्स में कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता 'जटिल, कठिन विषयों में विसर्जन की माँग करती है। लेखक की आवाज़ यह दिखाने के लिए है कि एक लेखक काम पर है।'

आजकल के अख़बारों से साहित्य को दरकिनार किया जा रहा है ,क्योंकि अब अख़बार का रास्ता टकसाल से गुज़रने लगा है। और यह अकाट्य सत्य है कि जब रास्ता टकसाल की तरफ़ भी मुड़ जाए तो यक़ीन जानना, वह अपने उद्देश्यों पर कम ही कायम रहा पाएगा। इस समय टकसाल की ओर मुड़ना मजबूरी तो माना जा सकता है किन्तु इसके लिए मूल्यों से इतना समझौता करना फ़ायदे का कम पर अधिक नुक़सान का सौदा नज़र आ रहा है।

बाज़ारवाद के दौर में साहित्यिकी आयोजनों, लेखन, चर्चा इत्यादि भी अख़बारों में कम प्रकाशित होती है, इससे चिंतन का मौन वर्तमान पर हावी हो रहा है। जिस साहित्य का मूल उद्देश्य ही राष्ट्र जागरण होता है, आज वही साहित्य मुख्य धारा की मीडिया से उपेक्षित-सा बर्ताव हासिल करेगा तो स्वयं टूटते हुए टूटता हुआ समाज बनाएगा।

इस दौर में साहित्य पत्रकारिता के नए मानक, नए छोर तैयार हो रहे हैं, जिसे अपनाते हुए नए मानक गढ़ना आवश्यक है, और इस कार्य में मीडिया संस्थान और पत्रकारिता और जनसंचार महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। जब साहित्य की पहुँच गाँव-गाँव तक है और हिन्दी पत्रकारिता भी लगभग हिन्दुस्तान के गाँव-गाँव तक पहुँच चुकी है, तब साहित्य पत्रकारिता में भी जनमानस का दख़ल अनिवार्य रूप से होना चाहिए। पत्र-पत्रिकाओं को प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करना चाहिए, गाँव से शहर और जिला स्तर पर भी नए पत्रकार तैयार करना चाहिए। वर्तमान दौर डिजिटल युग है, और इस समय वेबसाइट, डिजिटल पोर्टल, डिजिटल पत्रिकाएँ, व्यक्तिगत वेबसाइट जितना साहित्य को प्रचारित और प्रसारित कर रही हैं, उतना अन्य माध्यमों में कम दिखाई देता है। और समझदारी इसी बात में भी है कि आम जन मानस को भी इंटरनेट की उपलब्धता का फ़ायदा उठाते हुए स्वयं को नए दौर के लिए तैयार कर लेना चाहिए। वेबदुनिया डॉट कॉम, दी क्विंट, साहित्य आजतक, कविता कोश, मातृभाषा डॉट कॉम, गद्य कोश, जैसी तमाम वेबसाइट इस समय हज़ारों लेखकों को लाखों पाठकों से जोड़ रही हैं।

इन्दौर जैसे महानगर से मातृभाषा डॉट कॉम एक वेबसाइट 2016 में शुरू हुई, जिसने प्रारंभिक दौर में कुछ सौ रचनाकार जोड़े और आज हज़ारों लेखक जुड़कर अपने नए पाठक तक पहुँच रहे हैं। उनका लेखन प्रचारित और प्रसारित हो रहा है।

इस तरह की वेबसाइटों के माध्यम से भी निरंतर साहित्य पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ग्राम, नगर में साहित्य पत्रकारों को तैयार करना चाहिए। उन्हें नए युवाओं को जोड़ना चाहिए, प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करना चाहिए, नए लोगों को पत्रकारिता से भी जोड़ना चाहिए, इस बहाने हिन्दी पत्रकारिता में भी पुराने ढर्रे पर चलने की प्रवृत्ति बदलेगी और नवाचार आएगा।

इस समय स्मार्टफ़ोन यूज़र्स की संख्या में तेज़ी से वृद्धि होने के साथ ग्रामीण भारत में डिजिटल अपनाने की प्रकिया में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है। हाल ही में सामने आई एक नई रिपोर्ट के मुताबिक इस ट्रेड को देखते हुए तीन साल बाद यानी 2025 तक कुल सक्रिय इंटरनेट आबादी के 90 करोड़ तक पहुँचने की संभावना है। पिछले साल इनकी संख्या 62.2 करोड़ थी। और शहरी भारत में इंटरनेट उपयोगकतार्ओं की संख्या में 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साल 2020 में ये आँकड़ा 32.3 करोड़ उपयोगकतार्ओं (शहरी आबादी का 67 प्रतिशत) तक पहुँच गया था। ये आँकड़े द इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (आईएएमएआई)की ओर से जारी रिपोर्ट में सामने आए हैं।

इन आँकड़ों पर ग़ौर किया जाए तो निश्चित तौर पर पत्रकारिता और साहित्य जगत को भी अपने आप को नए साँचे में ढाल लेना चाहिए। कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है और इसी नियम के मद्देनज़र व्यवस्था और नियामकों को भी अपने दायरों में बदलाव लाना चाहिए। साहित्य पत्रकारिता भी नए ढंग से पाठकों तक पहुँच बना सकती है और इस विधा के ज़िम्मेदारों को भी तकनीकी रूप से समृद्ध करते हुए दक्ष करना चाहिए।

बहरहाल, चिन्ताओं के बीच इस बात को भी स्वीकार किया जा सकता है कि मुख्य धारा की पत्रकारिता ने तो साहित्य पत्रकारिता को हाशिए पर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु नए दौर के नए मीडिया ने आज भी साहित्य समाज को ऑक्सीज़न दे रखी है, लगातार समयानुकुल साहित्य जगत की ख़बरें, लेखन, काव्य इत्यादि प्रकाशित भी हो रहा है और पाठकों की संसद में सराहा भी जा रहा है। ऐसे समय में नए मीडिया पर भरोसा भी किया जा सकता है और इस मीडिया को साहित्य की मुख्य धारा बनाया जा सकता है।