दुनिया के लिये प्रेरणा है अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान का स्वावलंबी होना ?

     विश्व के सिर पर सवार अमेरिकी वर्चस्व का भूत अब धीरे धीरे उतरने लगा है। ख़ासकर डोनल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे शासनकाल में जैसा बर्ताव दुनिया के अनेक देशों के साथ किया है उससे भी अमेरिका की साख को काफ़ी गहरा धक्का पहुंचा है। कभी वे कनाडा को 51 वां अमेरिकी राज्य बताकर खलबली पैदा कर देते हैं तो कभी दुनिया के अनेक देशों पर मनमानी टेरिफ़ लगाकर आर्थिक संकट खड़ा करते हैं। कभी भारत और रूस जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाओं को 'मृत अर्थव्यवस्था ' बताकर इन देशों को अपमानित करते हैं। तो कभी वीज़ा फ़ीस असीमित कर लोगों की चिंता बढ़ा देते हैं। ग़ौर तलब है कि गत 31 जुलाई को राष्ट्रपति ट्रंप ने एक विवादास्पद टिप्पणी पोस्ट करते हुए लिखा था कि "मुझे भारत का रूस के साथ क्या करना है, उसकी परवाह नहीं। वे अपनी मृत अर्थव्यवस्थाओं को साथ ले जा सकते हैं, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उसी समय ट्रंप ने भारत को रूस से सैन्य उपकरण और ऊर्जा (तेल) ख़रीदने के लिए "दंड" लगाने की भी धमकी दी थी। ट्रंप का कहना था कि चीन के बाद भारत रूस का सबसे बड़ा ऊर्जा ख़रीदार है। जबकि अमेरिका यूक्रेन युद्ध रोकने के लिए रूस पर दबाव डाल रहा है। ट्रंप का मत था कि भारत से तेल से मिलने वाले पैसों का इस्तेमाल रूस, यूक्रेन युद्ध में कर रहा है। इस घटनाक्रम में एक मज़ेदार मोड़ तब आया था जब स्वयं यूक्रेन ने कह दिया था कि उसे भारत रूस के व्यापारिक रिश्तों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है।

      इसी तरह ग़ज़ा में अमेरिकी संरक्षण में जिसतरह इस्राईल जनसंहार कर रहा है दुनिया के तमाम देश,संयुक्त राष्ट्र संघ,अंतर्राष्ट्रीय अदालत सब इस्राईल ख़ासकर नेतन्याहू की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध हैं। बार बार इस्राईली नीतियों के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पास हो रहे हैं, नेतन्याहू के विरुद्ध वारंट जारी हो रहे हैं परन्तु इस्राईल का दमनचक्र जारी है और उसका परममित्र अमेरिका ख़ामोश है ? और दुनिया ने यह भी देखा कि  इज़राइल ने किस तरह मध्य एशिया में अमेरिका के परम् सहयोगी देश क़तर पर हमास लीडरशिप को निशाना बनाकर ताबड़तोड़ हवाई हमले किये। इतना ही नहीं बल्कि ज़रूरत पड़ने पर आगे भी क़तर पर हमले की चेतावनी दी। परन्तु अमेरिका इस कार्रवाई को भी देखता रह गया। गोया यह इज़राईल व नेतन्याहू को दी जा रही अमेरिकी सरपरस्ती का ही परिणाम है कि इस्राईल के ही दो पूर्व प्रधानमंत्री एहुद बराक और एहुद ओल्मर्ट को यहाँ तक कहना पड़ चुका है कि 'नेतन्याहू इस्राईल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अछूत बनाने की ओर ले जा रहे हैं'।

       ऐसे में ईरान जैसे देश घोर अमेरिका विरोधी देश की तरफ़ नज़र डालना भी ज़रूरी है। क्योंकि अमेरिका ने ईरान पर 1979 की ईरानी क्रांति के बाद से ही आर्थिक और राजनयिक प्रतिबंध लगाए हुये हैं। सबसे पहले 1979 में अमेरिकी ने अपने तेहरान दूतावास में बंधक संकट के बाद पहली बार व्यापक प्रतिबंध लगाए थे जिसमें ईरानी तेल आयात पर रोक लगा दी गयी थी और ईरानी संपत्तियों को फ्रीज़ कर दिया गया था। उसके बाद 1980-90 के दशक में ईरान को आतंकवाद का समर्थक बताकर और परमाणु कार्यक्रम की आशंकाओं का बहाना बनाकर इन प्रतिबंधों को और सख़्त किया गया।  इसके बाद 1995 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने ईरान के साथ सभी व्यापारिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिये। इसी तरह 2000 के दशक में पुनः ईरान के परमाणु कार्यक्रम की आड़ में संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने ईरान पर और नए प्रतिबंध लगा दिये । इन प्रतिबंधों का निशाना ईरान के वित्तीय संस्थान, तेल निर्यात और तकनीकी व्यापार थे। हालांकि ईरान द्वारा अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने के वादे के बाद 2015 में संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA), यानी ईरान परमाणु समझौते के तहत, कई प्रतिबंध हटाए भी गए थे। परन्तु राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में ईरान पर ख़ासकर तेल निर्यात, बैंकिंग और शिपिंग सेक्टर पर फिर से कड़े प्रतिबंध लागू कर दिये। ट्रंप प्रशासन ने ही 2020 और उसके बाद ईरान के परमाणु, बैलिस्टिक मिसाइल और हथियार कार्यक्रमों को रोकने के लिए नए प्रतिबंध जोड़े। यहाँ तक कि 2025 में भी, ट्रंप द्वारा ईरान के तेल व्यापार और परमाणु कार्यक्रम से जुड़े व्यक्तियों और कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए गए।

     अमेरिका ने इसी वर्ष ईरान के तेल व्यापार, पेट्रोकेमिकल उद्योग और परमाणु अनुसंधान पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं। अभी इसी वर्ष गत मई में ही अमेरिका ने परमाणु वार्ता के बीच ही पुनः नए प्रतिबंध लगा दिये थे। इस प्रतिबंध में तीन ईरानी अधिकारियों और एक कंपनी को निशाना बनाया गया है। इसी तरह गत जुलाई में अमेरिका ने ईरान के तेल व्यापार से जुड़े शिपिंग नेटवर्क और हिज़बुल्लाह के वित्तीय नेटवर्क पर प्रतिबंध लगाए। इसके अलावा भी ईरान से तेल या पेट्रोकेमिकल उत्पाद ख़रीदने वाली कंपनियों, जिसमें भारत की छह कंपनियां भी शामिल हैं, पर भी अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए गए। गोया अमेरिका द्वारा 1979 से ईरान की तेल, वित्त, और परमाणु गतिविधियों पर केंद्रित  प्रतिबंध आजतक जारी हैं। इनमें अनेक प्रतिबंधों में संयुक्त राष्ट्र संघ,यूरोपीय संघ विशेषकर ब्रिटेन, फ़्रांस , और जर्मनी व कनाडा जैसे देश भी शामिल हैं।

       परन्तु लगभग 50 वर्षों से चले आ रहे इन प्रतिबंधों के बावजूद इसी ईरान ने अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। सूत्रों के अनुसार, ईरान की प्रति व्यक्ति आय लगभग 3,900 से 4,500 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है जबकि प्रति व्यक्ति जीडीपी 20,000 डॉलर के आसपास बताई जा रही है। 2023 तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इसी ईरान में साक्षरता दर लगभग 85-90% है। अर्थात यहाँ की अधिकांश आबादी पढ़ना-लिखना जानती है। विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में साक्षरता दर और भी अधिक है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद रक्षा क्षेत्र में ईरान कितना आत्मनिर्भर है और कितनी आत्मनिर्भरता हासिल की है। इसका 'ट्रेलर ' गत दिनों ईरान इज़राईल संक्षिप्त युद्ध में देखा जा चुका है। ईरान ने अपनी सैन्य क्षमताओं को बढ़ाने के लिए स्वदेशी तकनीक और हथियारों के विकास पर ज़ोर दिया है, जिससे वह कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बन गया है। ड्रोन और यूएवी प्रौद्योगिकी यानी मानव रहित हवाई वाहनों के क्षेत्र में ईरान ने महत्वपूर्ण प्रगति की है। और अब तो ईरान अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी छलांग लगाने जा रहा है। आज यही प्रतिबंधित ईरान दुनिया के उन चुनिंदा नौ देशों में भी शामिल हो चुका है जो स्वतंत्र रूप से उपग्रह बना और प्रक्षेपित कर सकते हैं। हम कह सकते हैं कि शिक्षा,वास्तविक देश प्रेम,भ्रष्टाचार से मुक्ति,तथा अमेरिका के बजाये सर्वशक्तिमान ईश्वर को महान मानने की जज़्बे ने ईरान को आदर्श देश बना दिया है। सही मायने में अमेरिका को 'गॉड ' फ़ादर मानने से इंकार करने व अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान का स्वावलंबी होना निश्चित रूप से दुनिया के लिये प्रेरणा है  ?  

 

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