चतरा में ब्राम्हणों  ने सनातन नहीं ,अपनी जाति को वोट दिया

  फिर भी जीतेगा सनातन, खिलेगा कमल और हारेगी जिहादी राजनीति 
 

 आचार्य विष्णु हरि 
 

    चतरा लोकसभा चुनाव में ब्राम्हणों ने सनातन यानी भाजपा-कमल फूल छाप को वोट नहीं दिया। फिर इन्होंने किसको वोट दिया? इनके सिर पर कौन सी मानसिकता सवार थी? इन्होंने हाथ को वोट दिया। हाथ यानी कांग्रेस को वोट क्यों दिया? इसके पीछे इनका तर्क देख लीजिये। इनका तर्क यह है कि कांग्रेस ने उनकी जाति के नेता केएन त्रिपाठी को उम्मीदवार बनाया था। भाजपा ने एक भूमिहार जाति से आने वाले कालीचरण सिंह को उम्मीदवार उतारा था। हालांकि भूमिहार भी अपने आप को ब्र्राम्हण ही कहते हैं। ब्राम्हणों की जातिवादी सेना ‘ परशुराम सेना ‘ में भूमिहार भी हैं। भूमिहार स्वयं परशुराम को अपना पूर्वज मानते हैं। परशुराम सेना से जुडे लोग अप्रत्यक्ष तौर पर कांग्रेस के उम्मीदवार के पक्ष में ही सक्रिय थे। भाजपा कभी बनियों की पार्टी कही जाती थी, बनियों ने भाजपा और संघ को अपने खून और बलिदान से सींचा था। अब भाजपा को ब्राम्हणों की पार्टी कहा जाने लगा। भाजपा चुनाव में ब्राम्हणों को सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व देती है, संगठन में सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व देती है। फिर भी चतरा ही नहीं बल्कि पूरे देश में भाजपा का ब्राम्हणवाद आत्मघती साबित क्यो हो रहा हैं? ब्राम्हणों के लिए सनातन से उपर अपनी जाति क्यों हो गयी। यह सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि ब्राम्हणों के लिए भी खतरे की घंटी है।

मैंने भाजपा के ब्राम्हणवाद और ब्राम्हणों के सनातन विरोधी जाति वाद पर शोध किया है। कई लोकसभा चुनाव क्षेत्रों को अध्ययण किया है। यहां पर चंतरा लोकसभा का उदाहरण और ब्राम्हणों की जातिवाद का उदाहरण प्रस्तुत है, जहां पर सनातन गौण हो गया, ब्राम्हणों की जाति प्रमुख हो गयी।

    जो लोग यह मानते हैं कि ब्राम्हणों ने चतरा में कांग्रेस और अपनी जाति के उम्मीदवार केएन त्रिपाठी को वोट नहीं दिया है, उन्हें कुछ तथ्य मात्र से सच्चाई मिल जायेगी।

       एक हैं नीलकमल शुक्ला। नीलकमल शुक्ला ऐसे हैं तो पत्रकार पर जाति के आधार पर कांग्रेस के सपोर्टर हैं, क्योंकि उनकी जाति के केएन त्रिपाठी कांग्रेस में हैं। नीलकमल शुक्ला चतरा लोकसभा क्षेत्र के पांकी विधान सभा क्षेत्र के निवासी हैं। उनका गांव और बूथ लेस्लीगंज के कवलकेडिया है। अब नीलकमल शुक्ला का विचार सुनिये। उनका कहना है कि उनके गांव कवलकेड़िया में कांग्रेस और उनके नेता केएन त्रिपाठी को 60 प्रतिशत वोट मिला है। जानना यह भी जरूरी है कि नीलकमल शुक्ला का गांव कवलकेडिया ब्राम्हण बहूल है। नीलकमल शुक्ला आगे कहते हैं कि ब्राम्हणों का ही नहीं बल्कि मुसलमान और ईसाई का वोट केएन त्रिपाठी को मिला है, इसलिए चतरा में कांग्रेस जीतेगी, भाजपा का लूटिया डूब जायेगी।

    एक राष्टवादी हैं नमन पंाडेय। उनकी पीडा है कि उनके ससुर उनके कहने के बाद भी केएन त्रिपाठी को वोट दे दिये। नमन पाडेंय सही मायने भाजपा और सनातन के प्रचारक हैं। नमन पांडेय दुखी होकर कहते हैं कि ब्राम्हणों ने कांग्रेस को वोट देकर खुद का आत्मघात किया है, जिहादी समर्थक राजनीति का सीधा निशाना ब्राम्हण ही हैं।

     गिरी ब्राम्हणों का एक गांव है झरकटिया। झरकटिया में गिरी ब्राम्हणों की संख्या अधिक है। ब्राम्हणों का एक झुंड रात में झरकटिया पहुंचता है और केएन त्रिपाठी को वोट करने के लिए कहता है, इसके अलावा ब्राम्हण खतरे में है का संदेश देता है, डराता-धमकाता है। गिरी ब्राम्हणों को केएन त्रिपाठी की जाति कमजोर और छोटा मानती है। गिरी ब्राम्हणों पर राष्टवाद का प्रश्न मुखर होता है और ये सनातन के धरोहर हैं। इसलिए गिरी ब्राम्हणों ने केएन त्रिपाठी को वोट देने से इनकार कर दिया और ब्राम्हणों का झुंड मुंह लटका कर लौट आया।

    सैकड़ों ह्वाटसप समूहों में एक मैसेज घूम फिर रहा था कि ब्राम्हणों को अपनी शक्ति दिखाने और ब्राम्हण विरोधियो को औकात दिखाने का सही समय आ गया, हमें एक जुट होकर कांग्रेस को वोट करना है और केएन त्रिपाठी को जीताना है। मैंने ब्राम्हण बहूल कई गांवों और बूथों का दौरा किया, हर जगह पाया कि ब्राम्हणों का सीधा झुकाव और आक्रमकता कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में है।

    यह पहला अवसर नहीं है जब ब्राम्हणों ने घोषित तौर पर भाजपा का विरोध किया है और खुलकर भाजपा के खिलाफ वोट किया है, सबसे बडी चिंता की बात है कि इस प्रसंग में भाजपा के नेता भी अपनी ही पार्टी की कब्र खोदते हैं। प्रसंग रघुवर दास के शासन काल के समय का है। पांकी विधान सभा का उपचुनाव हुआ था। उसमें ब्राम्हण जाति के नेता गणेश मिश्रा को भाजपा ने चुनाव प्रभारी बनाया था। अमित तिवारी भाजपा के जिलाध्यक्ष थे। ब्राम्हणों ने सरेआम भाजपा के खिलाफ वोट किया था, इसमें भाजपा के ब्राम्हण नेताओं का भी अप्रत्यक्ष समर्थन था। इस कारण भाजपा का प्रत्याशी चुनाव हार गया था। भाजपा ने उपचुनाव में हार पर कमेटी बनायी थी। जांच में सामने आया कि अमित तिवारी, गणेश तिवारी और गढवा के तत्कालीन विधायक सत्येन्द्र तिवारी ने अप्रत्यक्ष तौर पर पार्टी विरोधी कार्य कर भाजपा को चुनाव हराये थे। गाज गिरी थी अमित तिवारी पर। अमित तिवारी को जिलाध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था। लेकिन अमित तिवारी को लोकसभा चुनाव से पूर्व फिर से जिलाध्यक्ष बना दिया गया, यह नहीं देखा गया कि यही अमित तिवारी एक बार भाजपा की कब्र खोद चुका है।

     ब्राम्हणों की भाजपा से नराजगी है क्या? उनकी नराजगी यह है कि भाजपा ने झारखंड की सभी सीटों पर ब्राम्हण को क्यों नहीं चुनावों में उतारा। भाजपा ने एक सीट गोडा में निशिकंात दूबे को टिकट दिया है। झारखंड में लोकसभा की 14 सीट है। 14 में छह आरक्षित सीट है और एक सीट सहयोगी दल को भाजपा ने दिया है। सामान्य कोटे की मात्र सात सीटें भाजपा के पास थी। इन सात सीटों में ही सभी जातियों को संतुष्ट करना था।

     भाजपा ने ब्राम्हणों को सर्वश्रेष्ठ सम्मान दिया है, सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व दिया है, भाजपा पर ब्राम्हणवाद फैलाने का आरोप लगता है, इसीलिए भाजपा को कुछ पिछडी और दलित जातियां अपनी आलोचना का शिकार बनाती हैं। आज भी राहुल गांधी को ब्राम्हण मानने वालों की कमी नहीं है। जबकि राहुल गांधी के माता-पिता में से कोई ब्राम्हण नहीं थे। सोनिया गांधी ईसाई हैं जबकि राजीव गांधी के पिता का नाम फिरोज खान गांधी था।

                भाजपा के ब्राम्हणवाद के कुछ तथ्य देखिये….

नरेन्द्र मोदी मंत्रिमंडल में सर्वाधिक मंत्री ब्राम्हण
नरेन्द्र मोदी शासनकाल में सर्वाधिक राज्यपाल ब्राम्हण
भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्राम्हण
भाजपा के केन्द्रीय कार्यकारिणी में सर्वाधिक सदस्य और पदाधिकारी ब्राम्हण
केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के सर्वाधिक कुलपति ब्राम्हण
राजस्थान में मुख्यमंत्री ब्राम्हण
असम में मुख्यमंत्री ब्राम्हण
मध्यप्रदेश, छतीसगढ, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट में उप मुख्यमंत्री ब्राम्हण

    2024 के ही लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक टिकट ब्राम्हणों को दिया है। अगर राष्टीय स्तर पर आंकडा निकाला जाये तो फिर भाजपा ने सर्वाधिक टिकट ब्राम्हणों को दिया है। दिल्ली में सात में से दो टिकट ब्राम्हणों को दिया है जहां पर मनोज तिवारी और बांसूरी स्वराज चुनाव लड रहे हैं। दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा ने 250 सीट में से 50 सीट पर ब्राम्हणों को चुनाव में उतारा था। अयोध्या में राममंदिर का पूरा संचालन ब्राम्हणों के पास है। अगर नरेन्द्र मोदी ब्राम्हण विरोधी होते तो फिर राममंदिर के संचालन में ब्राम्हणों की इतनी बडी और निर्णायक भूमिका होती?

     फिर भी भाजपा से ब्राम्हण संतुष्ट नहीं हैं। ब्राम्हणो की जनसंख्या कितनी है, यह तो नीतीश कुमार की जनगणना में निहीत है। नरेन्द्र मोदी ने उंची जातियों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया है, इस दस प्रतिशत आरक्षण का सर्वाधिक लाभ ब्राम्हणों ने उठाया है। ब्राम्हण भाजपा का वहीं वोट देते हैं जहां पर विकल्प ब्राम्हण नहीं होता है। ब्राम्हणों की इस  नीति का क्या नाम दिया जाना चाहिए? ब्राम्हणों  की इस नीति का नाम आत्मघात और विश्वासघात हो सकता है। सर्वाधिक प्रतिनिधित्व देने के बावजूद भी आप भाजपा की कब्र खोद रहे हैं, ऐसी नीति अस्वीकार है, प्रशंसनीय कतई नहीं है।

       ब्राम्हणों की भलाई नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही है। कम्युनिस्ट, जातिवादी राजनीति तो ब्राम्हण विरोध पर ही खडी रहती हैं। कांग्र्रेस भी अब ब्राम्हणवादी विरोधी हो गयी है। क्योंकि कांग्रेस पर जिहादी और कम्युनिस्ट समर्थक राजनीति का कब्जा हो गया है।