आवारा इंसान और जानवर दोनों ही हैं समाज के लिये बड़ा खतरा

    भारत का बहुसंख्यक समाज भावनात्मक रूप से काफी सीधा-साधा और प्रकृति तथा पशु प्रेमी माना जाता है। यहां इंसान से ज्यादा कभी-कभी जानवरों के प्रति करुणा और श्रद्धा दिखाई जाती है। सड़कों पर बैठी गायों को देखकर लोग हाथ जोड़ लेते हैं, कुत्तों को बिस्किट खिलाने पर लोग खुद को दयालु समझते हैं और सोशल मीडिया पर हैशटैग चलाकर खुद को पशु प्रेमी साबित करते हैं। लेकिन इस चमकीली तस्वीर के पीछे एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि कई मौकों पर यह करुणा खोखली और जिम्मेदारी से बचने का बहाना नजर आती है। भारत की सड़कों पर घूमते लाखों आवारा जानवर इस बात के गवाह हैं कि भावनाओं के नाम पर हम सिर्फ नाटक कर रहे हैं, असल में न तो उनकी देखभाल करते हैं और न ही इंसानों की सुरक्षा का ख्याल रखते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि चाहें आवारा इंसान हो या आवारा  जानवर दोनों ही समाज के लिये बड़ा खतरा हैं। ऐसे लोगों से बच के रहने में ही समाज का भला है।

    जरा कल्पना कीजिए, ट्रैफिक जाम के बीच कीचड़ और धूल में सनी एक गाय प्लास्टिक की थैली चबा रही है। लोग उसे देखकर आगे निकल जाते हैं। कोई यह नहीं सोचता कि जिस थैले को वह खा रही है, उसको सड़क पर फेंकने के लिये हम ही जिम्मेदार हैं। वही थैली उसकी मौत का कारण तक बन जाती है। उसी सड़क पर कुछ ही दूरी पर दर्जनों कुत्ते कूड़े में पड़ी हड्डियों को लेकर लड़ रहे हैं। इंसान का फेंका हुआ कचरा उनके लिए जीवन का सहारा बनता है। यही तस्वीरें बाद में किसी दयालु शहरी के मोबाइल कैमरे से सोशल मीडिया पर पहुंचती हैं, लेकिन असल जिंदगी में वही लोग ऐसे जानवरों को मरने-जीने के लिए सड़क पर छोड़ देते हैं। 2019 की पशु गणना के अनुसार, भारत में करीब 50 लाख आवारा गायें हैं। यह संख्या किसी बाहरी संकट की वजह से नहीं, बल्कि हमारी अपनी लापरवाही से है। करीब 95 प्रतिशत गायें वे हैं जिन्हें डेयरी किसान दूध न देने की स्थिति में खुला छोड़ देते हैं। उनका तर्क यह है कि अगर वे इन्हें पालेंगे तो चारे का खर्च बढ़ेगा, इसलिए उन्हें शहर की सड़कों पर घूमने दिया जाता है जहां वे कूड़े में मुंह मारें और प्लास्टिक खाकर धीरे-धीरे बीमार पड़ जाएं। गायों के पेट प्लास्टिक से भर जाते हैं, उनकी आंतें खराब हो जाती हैं और सड़कें गोबर से पट जाती हैं। लेकिन जिम्मेदारी कौन ले? गाय तो सबकी मां है, तो कोई न कोई उसकी देखभाल कर ही लेगा यही सोच सबके मन में रहती है और समस्या जस की तस बनी रहती है।

     गायों की तरह ही कुत्तों की समस्या और भी भयावह है। भारत दुनिया का वह देश है जहां सबसे ज्यादा आवारा कुत्ते हैं करीब 6 करोड़। इसका मतलब यह हुआ कि भारत की 1.4 अरब आबादी में हर 23वां इंसान एक आवारा कुत्ते के साथ बंधा हुआ है। यह आंकड़ा सुनने में भले ही दिलचस्प लगे लेकिन इसके दुष्परिणाम बेहद खतरनाक हैं। हर साल भारत में करीब 37 लाख लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं। दुनिया में रेबीज से होने वाली कुल मौतों में 36 प्रतिशत अकेले भारत में होती हैं। यह भीषण आंकड़ा बताता है कि हमारी करुणा जानलेवा साबित हो रही है। हाल ही में सिर्फ दिल्ली में ही 2025 के मध्य तक 35,000 से ज्यादा कुत्ता काटने की घटनाएं और करीब 50 मौतें दर्ज की गईं। यानी यह समस्या अब केवल जानवरों की नहीं रही, यह सीधे इंसानों के जीवन के लिए खतरा बन चुकी है।संभवता इसी सब को ध्यान में रखकर सुप्रीम कोर्ट ने आवारा कुत्तों को पकड़ने के लिये सख्त आदेश जारी किया है। लेकिन इस खतरे को भांप लेने के बावजूद हमारे समाज और सरकार का रवैया ढुलमुल ही है। राजनेता गाय को वोट का साधन बना देते हैं, नगरपालिकाएं पशु नियंत्रण को गड्ढे भरने जैसे छोटे-मोटे काम की तरह लेती हैं, और शहरी अभिजात्य वर्ग कुत्तों की रील बनाकर सोशल मीडिया पर वाहवाही लूट लेता है। इस पूरे खेल में कहीं भी जिम्मेदारी नजर नहीं आती। यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिल्ली के दस लाख कुत्तों को कहीं और शिफ्ट करने की योजना बनाई तो देश भर में आक्रोश फैल गया। लोगों ने इसे नरसंहार करार दिया। निश्चित ही कुत्तों के जीवन का अधिकार है और उन्हें अमानवीय आश्रयों में डालना सही नहीं, लेकिन सवाल यह है कि इस समस्या का समाधान कौन देगा? क्या सिर्फ गुस्सा दिखाकर या मोमबत्ती जलाकर समस्या खत्म हो जाएगी?

जब पोलियो को खत्म किया जा सकता है तो आवारा पशुओं की समस्या भी सुलझाई जा सकती है, बशर्ते कि नीतियों में कठोरता और जवाबदेही दोनों हों। समाधान की बात करें तो गायों के लिए जरूरी है कि हर मवेशी का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य हो। अगर कोई किसान उन्हें सड़क पर छोड़ता है तो उस पर जुर्माना लगे और गाय जब्त हो। सब्सिडी वाली गौशालाओं को डिजिटल ट्रैकिंग से जोड़ा जाए और उन्हें फंडिंग सीधे उस आधार पर मिले कि कितनी गायों की देखभाल वे कर रहे हैं। यह पैसा किसी राजनेता की जेब में नहीं जाना चाहिए, बल्कि सीधे उस गौशाला में पहुंचे।

 

जब मूर्तियों, रैलियों और चुनावी वादों पर अरबों रुपये खर्च किए जा सकते हैं तो जानवरों और इंसानों की सुरक्षा पर क्यों नहीं? हर परिवार से छोटा-सा डॉग टैक्स लिया जा सकता है, सांसद निधि और विधायक निधि का एक हिस्सा इस दिशा में खर्च किया जा सकता है, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के जरिए धन जुटाया जा सकता है। इस अभियान पर जो पैसा आज खर्च करेंगे, वह भविष्य में हजारों-लाखों समस्याओं से बचाएगा।

     कुत्तों की आबादी का गणित डरावना है। एक असंक्रमित मादा कुत्ता, अगर लगातार छह साल तक बच्चे पैदा करे, तो उससे सैकड़ों पिल्ले पैदा हो सकते हैं। यानी अगर अभी कदम न उठाया गया तो आने वाले वर्षों में भारत की सड़कें कुत्तों से भर जाएंगी। इसे रोकने का उपाय केवल संगठित नसबंदी और टीकाकरण अभियान ही है। हमें यह समझना होगा कि यह उतना ही जरूरी है जितना कभी पोलियो का उन्मूलन था। जब पोलियो को खत्म किया जा सकता है तो आवारा पशुओं की समस्या भी सुलझाई जा सकती है, बशर्ते कि नीतियों में कठोरता और जवाबदेही दोनों हों। समाधान की बात करें तो गायों के लिए जरूरी है कि हर मवेशी का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य हो। अगर कोई किसान उन्हें सड़क पर छोड़ता है तो उस पर जुर्माना लगे और गाय जब्त हो। सब्सिडी वाली गौशालाओं को डिजिटल ट्रैकिंग से जोड़ा जाए और उन्हें फंडिंग सीधे उस आधार पर मिले कि कितनी गायों की देखभाल वे कर रहे हैं। यह पैसा किसी राजनेता की जेब में नहीं जाना चाहिए, बल्कि सीधे उस गौशाला में पहुंचे। इसी तरह कुत्तों के लिए सामूहिक नसबंदी और टीकाकरण कार्यक्रम शुरू करना होगा। हर जिले में कुत्ता नियंत्रण बोर्ड बने जिसका वार्षिक ऑडिट हो और अधिकारियों की जवाबदेही तय हो।

     इसके लिए धन कहां से आएगा? सवाल वाजिब है लेकिन उसका जवाब भी उतना ही आसान। जब मूर्तियों, रैलियों और चुनावी वादों पर अरबों रुपये खर्च किए जा सकते हैं तो जानवरों और इंसानों की सुरक्षा पर क्यों नहीं? हर परिवार से छोटा-सा डॉग टैक्स लिया जा सकता है, सांसद निधि और विधायक निधि का एक हिस्सा इस दिशा में खर्च किया जा सकता है, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के जरिए धन जुटाया जा सकता है। इस अभियान पर जो पैसा आज खर्च करेंगे, वह भविष्य में हजारों-लाखों समस्याओं से बचाएगा।जयपुर मॉडल इसका सफल उदाहरण है। 1994 में नगर निगम और एक एनजीओ ने मिलकर इसे शुरू किया था। इसमें कुत्तों को पकड़ा जाता है, उनकी नसबंदी और टीकाकरण किया जाता है और फिर उन्हें छोड़ा जाता है। इससे कुत्तों की आबादी नियंत्रित होती है और रेबीज के मामले  घटते हैं। प्रति कुत्ते पर 800 से 2,200 रुपये का खर्च आता है जो नगर निगम और जनता की ओर से दिए गए दान से पूरा होता है। अगर यही मॉडल पूरे देश में अपनाया जाए, डिजिटल ट्रैकिंग से जोड़ा जाए और इसे महापौरों व जिला कलेक्टरों की प्रदर्शन रिपोर्ट का हिस्सा बनाया जाए, तो समस्या पर काबू पाया जा सकता है।

 

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