बिहार ने यादवों और गांधी परिवार को पूरी तरह से हाशिये पर ढकेला

    लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव कहे जाने वाले चुनावों में बिहार ने इस बार जो फैसला दिया, उसने देशभर के राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया। राज्य की जनता ने जातीय समीकरणों और पारंपरिक परिवारवाद की राजनीति से ऊपर उठकर स्पष्ट रूप से विकास, नेतृत्व और स्थिरता को प्राथमिकता दी। परिणाम यह रहा कि मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार को भारी बहुमत मिला, जबकि यादव और गांधी परिवार का प्रभाव लगभग समाप्त होता दिखा। तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और अखिलेश यादव जैसे चेहरों का कथित सेक्युलर गठबंधन इस बार मतदाताओं को भरोसा दिलाने में नाकाम रहा। राज्य में कुल 243 विधानसभा सीटों में से एनडीए ने करीब 175 सीटें हासिल कर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया। इसमें भाजपा के खाते में 99 सीटें आईं, जबकि जनता दल यूनाइटेड ने 68 सीटें जीतीं। इसके अलावा छोटे सहयोगी दलों, हम, वीआईपी और रालोसपा को भी कुल मिलाकर आठ सीटें मिलीं। इस जीत ने न केवल नीतिश कुमार की साख दोबारा मजबूत कर दी बल्कि भाजपा को भी बिहार की राजनीति में निर्णायक स्थिति में पहुंचा दिया। दूसरी ओर, महागठबंधन के लिए यह चुनाव लगभग विनाशकारी साबित हुआ। राजद मात्र 35 सीटों पर सिमट गया, कांग्रेस 7 पर और वामदलों को कुल मिलाकर सिर्फ 5 सीटें मिलीं। यही नहीं महागठबंधन के सीएम फेस और राजद नेता तेजस्वी यादव भी अपने चुनाव क्षेत्र में बार बार पीछे हो रहे हैं, यदि तेजस्वी जीतते भी हैं तो उनकी जीत का अंतर काफी कम रहने वाला है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी आज विदेश में घूम रहे हैं जबकि उनको अपने कार्यकर्ताओं को ढाढस बनाने के लिये उनके बीच मौजूद होना चाहिए था। एनडीए को सभी वर्गो के वोट मिले यही वजह थी जेडीयू के मुस्लिम प्रत्याशी भी मैदान में अच्छा प्रर्दशन करते हुए दिखाई दिये।तेजस्वी यादव के लिए यह परिणाम एक बड़ा झटका है। वे लगातार अपनी राजनीति को युवाओं के ने और रोजगार के मुद्दे पर केंद्रित करते हुए बिहार में बदलाव की बात कर रहे थे। लेकिन जनता ने उन्हें अवसर देने से इनकार कर दिया। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई को मुख्य मुद्दा बनाया, परंतु एनडीए ने इसे विकास बनाम जातिवाद की लड़ाई के रूप में पेश किया और इसी रणनीति ने सभी जातीय गणनाओं को ध्वस्त कर दिया। यादव मतदाताओं के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों, दलितों और अति पिछड़ों का बड़ा वर्ग इस बार पहली बार पूरी मजबूती से एनडीए के पक्ष में खड़ा दिखा।

      राहुल गांधी और अखिलेश यादव की संयुक्त रैलियाँ भी जमीन पर असर नहीं डाल पाईं। राहुल गांधी की सभाएँ सीमित भीड़ में सिमटकर रह गईं और कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी फिर एक बार उजागर हो गई। महागठबंधन के कई उम्मीदवार खुद स्थानीय स्तर पर प्रचार के लिए अपने दम पर संघर्ष करते दिखाई दिए। वहीं भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी के नेतृत्व में प्रचार को आक्रामक अंदाज में चलाया। पटना, गया, दरभंगा, भागलपुर और बक्सर जैसे जिलों में मोदी की सभाओं में भारी भीड़ ने इस बात के संकेत पहले ही दे दिए थे कि मतदाताओं का झुकाव केंद्र की योजनाओं और मजबूत नेतृत्व की ओर है।

     नीतिश कुमार के लिए यह चुनाव साख बनाम थकान की लड़ाई कहलाया जा रहा था। कई विश्लेषकों ने दावा किया था कि नीतिश के पक्ष में एंटी इंकम्बेंसी विरोधी लहर काम करेगी, लेकिन अंतिम परिणाम ने सभी आकलनों को गलत साबित कर दिया। एनडीए ने करीब 46 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, जबकि महागठबंधन 38 प्रतिशत पर सिमट गया। इसका अर्थ यह हुआ कि बिहार की जनता ने स्थिर प्रशासन और राजनीतिक परिपक्वता को जातीय समीकरणों से ऊपर रखा। ग्रामीण इलाकों में एनडीए की योजनाओं का सीधा असर दिखा। प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला गैस कनेक्शन और हर घर नल योजना जैसे प्रोजेक्ट्स ने महिलाओं और गरीब तबके को सीधे लाभ पहुँचाया। इन्हीं स्कीमों ने घर घर में भाजपा और जेडीयू की पकड़ को मजबूत किया। इसके अलावा, कानून व्यवस्था में सुधार और नीतिश कुमार की छवि अब भी सुशासन बाबू के रूप में लोगों के मन में कायम रही।

      दूसरी ओर, युवा मतदाताओं ने तेजस्वी यादव की बातों को दिलचस्प तो पाया, लेकिन अनुभवहीनता और अतीत में उनके परिवार पर लगे आरोपों ने उन्हें पूरी तरह समर्थन नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव के समय की पिछली राजनीतिक यादें जंगलराज, अपराध और परिवारवाद अभी भी बिहार के मतदाताओं के मन में ताजा हैं। यही कारण रहा कि तेजस्वी की परिवर्तन यात्रा का असर सीमित इलाकों तक ही रहा। राहुल गांधी की भूमिका भी महागठबंधन में केवल प्रतीकात्मक दिखी। कांग्रेस ने अपने पारंपरिक गढ़ जैसे सासाराम, कटिहार और किशनगंज में भी हार का सामना किया। पार्टी का वोट शेयर घटकर मात्र 6.5 प्रतिशत रह गया। इस पराजय के साथ ही कांग्रेस का राज्य स्तर पर भविष्य बेहद धुंधला होता दिखाई दे रहा है। अखिलेश यादव ने भी महागठबंधन के समर्थन में कुछ सभाएँ कीं, मगर उनका प्रभाव सीमित रहा। उत्तर प्रदेश की राजनीति से लेकर बिहार की जातीय संरचना तक, उनका हस्तक्षेप मतदाताओं पर असर छोड़ने में नाकाम रहा। बिहार के मतदाताओं ने साफ संदेश दिया कि उन्हें बाहरी नेताओं के भावनात्मक भाषणों की जगह स्थानीय मुद्दों पर ठोस जवाब चाहिए।

     इस चुनाव का एक दिलचस्प पहलू यह भी रहा कि महिलाओं ने इस बार रिकॉर्ड संख्या में मतदान किया। महिला वोटिंग प्रतिशत 61 प्रतिशत तक पहुंचा, जो पुरुषों की तुलना में तीन प्रतिशत अधिक था। नीतिश कुमार ने कुछ महीनों पहले महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर विशेष योजनाएं शुरू की थीं, जिनका असर मतदान में साफ तौर पर दिखा। भाजपा की महिला कार्यकर्ताओं ने भी ग्रामीण स्तर पर संगठन मजबूत करने में बड़ा योगदान दिया। अब सवाल यह है कि इस बंपर जीत के बाद बिहार की राजनीति किस दिशा में जाएगी। नीतिश कुमार आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं और भाजपा ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह मिलकर स्थिर सरकार चलाएगी। हालांकि पार्टी के अंदर कुछ नेता चाहते हैं कि धीरे धीरे भाजपा राज्य नेतृत्व में प्रमुख भूमिका निभाए। बिहार में यह संभवतः उस नए चरण की शुरुआत होगी जहाँ भाजपा मैदान में मुख्य भूमिका में उभरेगी और जेडीयू सहयोगी की भूमिका निभाएगी।

      महागठबंधन में निराशा का माहौल है। तेजस्वी यादव अब संगठनात्मक सुधार की बात कर रहे हैं और पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने का संकल्प जता रहे हैं। मगर चुनौती यह है कि मतदाता अब पारिवारिक राजनीति के बजाय नए चेहरों, गंभीर योजनाओं और ठोस नीतिगत दृष्टिकोण को महत्व देने लगे हैं। राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव साफ चेतावनी की तरह है कि बिना जनाधार, बिना संगठन और बिना मजबूत नैरेटिव के केवल गठबंधन के भरोसे सत्ता तक पहुँचना नामुमकिन है। इस तरह बिहार चुनाव 2025 केवल एक राजनीतिक मुकाबला नहीं बल्कि एक युगांतकारी जनादेश बन गया, जिसने परिवार आधारित राजनीति, जातिगत समीकरणों और भावनात्मक भाषणों की जगह नीति, प्रशासन और प्रदर्शन को प्राथमिकता दी। बिहार की जनता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब न उन्हें नाम चाहिए, न वंश, बल्कि काम करने वाला नेतृत्व चाहिए। यह परिणाम न केवल राज्य की राजनीति बल्कि भारत के आने वाले चुनावी परिदृश्य के लिए भी संकेत देता है कि परिवारवाद का दौर धीरे धीरे खत्म हो रहा है और जनता अब केवल उसी को पसंद करेगी जो उनका भरोसा जीत सके।

                 


 

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