वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करता ममता का रेल बजट

माओवादियों को केन्द्र सरकार आतंकवादी करार दे चुकी है। जिन माओवादी प्रभावित इलाको में चार राज्यों में चार अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें पहुंच नहीं पाती हैं और चारों सरकारें माओवादियों को विकास विरोधी करार दे रही हैं, वहां ममता बनर्जी के रेल बजट में पावर प्रोजेक्ट से लेकर रेलवे लाईन बिछाने और आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने के ऐलान का मतलब क्या है?

 

ममता ने रेल बजट के जरीये माओवादी प्रभावित इलाको को लेकर एक ऐसा तुरुप का पत्ता फेंका है जो सफल हो गया तो संसदीय राजनीति की उस सत्ता को आईना दिखा सकता है जो विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के नाम पर लाल गलियारे को लगातार आतंक का पर्याय बनाये हुये है। राजनीतिक तौर पर आंध्रप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पं बंगाल में राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिये माओवादियों से चुनावी समझौते किये लेकिन माओवाद प्रभावित इलाको में न्यूनतम के जुगाड़ को भी बेहद मुश्किल करार दिया। और इसको लिये माओवादियो को विकास विरोधी करार देने से सरकारें नहीं चूकीं।

 

झारखंड में माओवादियों से चुनावी समझौते करने के आरोप कांग्रेस-भाजपा और झमुमो विधायकों पर लगा । उसी का नया चेहरा इस बार लोकसभा में नजर आया जब माओवादी नेता बैठा चुनाव लड़कर सांसद बन गये। लेकिन नया सवाल ममता की उस राजनीति का है, जो सिंगुर से निकली है और वाममोर्चा को उसी की राजनीति तले सत्ता से बाहर करने की रणनीति को लगातार आगे बढ़ा रही है। वहीं कांग्रेस ममता को थामकर इस अंतर्विरोध का लाभ उठाकर विकास के अपने अंतर्विरोध को छुपाना चाह रही है। ममता के सिंगुर में टाटा की नैनो को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये मजबूर करने के आंदोलन और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के कैमिकल हब को ना लगने देने के संघर्ष को बुद्ददेव सरकार ने कभी एक सरीखा नहीं माना।

 

वाम मोर्चा सरकार ने सिंगूर को विकास विरोधी तो नंदीग्राम को माओवादियो की बंदूक का आंतक बताकर खारिज भी किया। लेकिन ममता बनर्जी ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम और फिर लालगढ़ को भी उसी कडी का हिस्सा उस रेल बजट के जरीये बना दिया, जिसको लेकर कयास लगाये जा रहे थे कि बंगाल की राजनीति को ममता बतौर रेलमंत्री कैसे साध पायेगी। रेल बजट में ममता ने न सिर्फ सिंगूर से नंदीग्राम तक रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया बल्कि लालगढ़ के उन इलाकों में जहां सेना को अभी भी जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, वहां भी रेल लाइन बिछाने का ऐलान किया। यानी अपनी राजनीतिक जमीन को पटरी दे दी है। रेल बजट में सालबोनी,झारग्राम और उस बेलपहाडी को भी रेलवे से जोड़ने का ऐलान किया गया जो झारखंड और बंगाल की सीमा पर माओवादियो का गढ़ माना जाता है और बुद्ददेव भट्टाचार्य मानते है कि माओवादियों की वहा सामानातंर सरकार चलती है। यह वही इलाका है, जहा बुद्ददेव को बारुदी सुरंग से उडाने की कोशिश इसी साल माओवादियों ने की थी। बंगाल की राजनीति को बिलकुल नये मुद्दे के आसरे अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जो पहल ममता बनर्जी कर रही है, उसमें राज्य के बारह जिलो के वह ग्रामीण पिछडे इलाके हैं, जहां विकास का मतलब आज भी सीपीएम कैडर से लाभ की दो रोटी का मिलना है। ममता इस हकीकत को समझ रही है कि राज्य के चालीस फिसदी इलाके ऐसे है, जहां वाम मोर्च्रा के तीन दशक के शासन के बाद भी जिन्दगी का मतलब दो जून की रोटी से आगे बढ़ नहीं पाया है इसलिये रेल बजट में इन चालीस फिसदी क्षेत्रों को रेलवे स्टेसनो के जरीये घेरने में ममता जुटी है। बजट में देश के जिन 309 रेलवे स्टेशन को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाने की बता कही गयी है उसमें 142 सिर्फ बंगाल के है । आदर्श रेलवे स्टेशन का मतलब है, एक ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेशन पर मौजूद रहना जो किसी भी इलाके के लोगों की जिन्दगी को संभाल सके। यानी रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरत का ढांचा रेलवे स्टेशन पर जरुर मौजूद रहेगा। इस कड़ी में ममता ने लालगढ़ स्टेशन को भी आदर्श स्टेशन बनाने के साथ इस इलाके में पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर सीपीएम की उस कर उस रणनीति को सिर्फ पशिचमी मिदनापुर ही नहीं बल्कि बांकुडा, पुरुलिया, बीरभूम समेत आठ जिलों के उन ग्रामीण इलाकों को खुली हवा का एहसास कराया है, जिन्हें आज भी लगता है कि कैडर के साथ खडे हुये बगैर कुछ भी मिल नहीं सकता है।

 

असल में ममता जिस राह पर है वह एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा भी है। क्योंकि सवाल सिर्फ बंगाल का नहीं है। छत्तीसगढ़ में जहां राज्य सरकार माओवादियों को आतंकवादी मानकर ग्रामीण आदिवासियो के जरीये ग्रामीण समाज का नया चेहरा बनाने में लगी है, वहां अभी भी विकास तो दूर न्यूनतम के लिये भी पहले माओवादियों के खिलाफ नारा लगाना पडता है। खासकर दांतेवाडा और मलकानगिरी के इलाके में पीने का पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र से लेकर आवाजाही के लिये परिवहन व्यवस्था का कोई खांका आज तक खडा नहीं किया गया है । पूरा इलाका प्रकृतिक संसाधनो पर निर्भर है। यहां तक कि जल के स्रोत भी प्राकृतिक है। भाजपा की रमन सरकार के मुताबिक इस इलाके में सुरक्षा बल भी जब जाने से घबराते है तो विकास का कौन सा काम यहा जा सकता है। लेकिन ममता ने इस इलाके में रेलवे लाइन बिछाने का निर्णय लिया है। वहीं उड़ीसा का सम्बलपुर-बेहरामपुर और तेलागंना का मेडक-अक्कानापेट वह इलाका है, जहां माओवादियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ आंदोलन भी शुरु किया है और एक दौर में नक्सलियों का गढ़ भी रहा है।

 

आंध्रप्रदेश का अक्कानापेट में ही पहली बार एनटीआर ने अपनी राजनीतिक सभा में नक्सलियों को अन्ना यानी बड़ा भाई कहा था, जिसके बाद एनटीआर को समूचे तेलागंना के नक्सल प्रभावित इलाकों में दो तिहाइ सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन उस इलाके में विकास की लकीर खिंचने की हिम्मत ना एनटीआर ने की न ही चन्द्रबाबू नायडू कर पाये, न ही अभी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाय एसआर कर पा रहे हैं ।

 

हालांकि तेलागंना राष्ट्रवादी ने यहां के विकास का मुद्दा जरुर उठाया। लेकिन पहली बार वहा रेलवे लाइन बिछगी तो इसका असर यहा किस रुप में पड़ सकता है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पूरे इलाके में जंगल झांड, तेंदू पत्ता , और गड्डे खोदने वाली जवाहर रोजगार योजना ही जीने का आधार है । जबकि पूरा इलाका साल के जंगल से भरा पड़ा है। वहीं उड़ीसा के जिन इलाको में रेल लाइन बिछेगी वहां के प्रकृतिक संसाधनो पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां दोहने के लिये सरकार से नो आब्जेक्शन सर्टीफिकेट ले चुकी है। यानी करीब पचास हजार करोड डॉलर से ज्यादा की परियोजनाओ को लेकर इन इलाको में सौदा सरकारी तौर पर किया जा चुका है। इन इलाकों के आदिवासियो ने अपने पारंपरिक हथियार उठाकर आंदोलन की शुरुआत यहां इसलिये कि क्योकि प्रकृति से हटकर उनके जीने का कोई दूसरा साधन पूरे इलाके में है नहीं। पहली बार किसी रेल मंत्री ने इस इलाके को भी मुख्यधारा से सीधे जोड़ने की सोची है। वहीं झांरखंड के संथाल परगना इलाके में माओवादियों ने खासी तेजी से दस्तक दी है। बंगाल की सीमा से सटे होने की वजह से भी यहा माओवादियो ने खुद को खड़ा किया है। जबकि दूसरी वजह यहां खादान और प्रकृतिक संसाधनों का होना है, जिसपर मुंडा की नजर मुख्यमंत्री रहने के दौरान सबसे ज्यादा लगी रहीं। संथाल आदिवासियो की बहुतायत वाल इस इलाके मे विकास का कोई सवाल राज्य बनने के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं किया । बाबूलाल मंराडी ने जबतक सड़के ठीक करायीं, उनकी गद्दी चली गयी । अर्जुन मुंडा ने देशी टाटा से लेकर कोरियाई कंपनी समेत एक दर्जन देशी विदेशी कंपनियो के साथ अलग अलग परियोजनाओ को लेकर की शुरुआती सौदेबाजी भी की । करीब पांच लाख करोड़ के जरीये पचास लाख करोड़ के प्रकृतिक संसाधनो की लूट का लाइसेंस भी इन कंपनियो को दे दिया । नंदीग्राम के आंदोलन के दौर में यहां के आदिवासी खुद खड़े हुये और सरकारी धंधे का खुला विरोध झंरखंड के नंदीग्राम से करने से नहीं चूके।

 

ममता इस इलाके में भी रेलवे के जरीये विकास की पहली रेखा खिंचने को तैयार है । ऐसे में सवाल यह नहीं है कि ममता माओवादी प्रभावित इलाको में रेलवे लाइन बिछाकर या फिर परियोजनाओ के जरीये ग्रामीण आदिवासियो को विकास के ढांचे से जोडते हुये वाम राजनीति का विकल्प बनना चाह रही है।

 

बड़ा सवाल यह है कि तमाम राजनीतिक दलो ने जिस तरह माओवाद को कानून व्यवस्था का सवाल मान लिया है, और उसके घेरे में करोड़ों ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों का हिमायती मानकर उनके खिलाफ कार्रवायी के जरीये अपनी सफलता दिखा रही है । ऐसे में आदिवासी जीवन बद से बदतर किया जा रहा है । सास्कृतिक आधारों को खत्म किया जा रहा है । गांवों को शहर बनाने के लिये विकास को चंद हाथों के मुनाफे के जरीये लुटाया जा रहा है। बाजार और सत्ता का संतुलन बनाने के लिये विकास और आंतक को अपने अनुकूल परिभाषित करने से ना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कतरा रहे है, न ही क्षेत्रिय दल। जबकि अर्थव्यवस्था की हकीकत यही है कि जिन इलाको में ममता का रेल बजट असर दिखाने वाला है, अगर वहां माओवादियो पर नकेल कसने के नाम पर खर्च की गयी पूंजी को क्षेत्र के ग्रामीण-आदिवासियों के नाम मनीआर्डर भी कर दिया जाता तो हर आदिवासी परिवार दिल्ली में घर खरीद कर सहूलियत से रह सकता था । इतनी बड़ी तादाद में माओवाद प्रभावित इलाकों में केन्द्र और राज्य सरकारो ने खर्च किया है। वहीं ममता बनर्जी जब लालगढ़ में सुरक्षा बलो की जगह भोजन-पानी भिजवाने का सवाल खड़ा करती है तो कांग्रेस-वाम दोनो इसे ममता की नादानी बताते है । जाहिर है माओवाद प्रभावित रेड कारिडोर को लेकर राइट-लेफ्ट दोनो की राजनीति से इतर ममता का रेलबजट है । अगर यह सिर्फ बजट है तो इसका लाभ आखिरकार उसी राजनीति को मिलेगा जो विकास को बाजार से जोड़ रही है और अगर यह ममता की राजनीति है, तो यकीनन वैकल्पिक राजनीति की पहली मोटी लकीर है जो भविष्य का रास्ता तैयार कर रही है, बस इंतजार करना होगा ।