विष-वृक्ष की जडों के पोषण और पत्तों के डिजिटलाइजेशन की त्रासदी

        भारत में ‘काला धन’ और ‘काली कमाई’ वस्तुतः दुनिया भर से सारे धन बटोर लेने-हडप लेने को आतुर युरोपीय उपनिवेशवाद के साम्राज्यवादी षड्यंत्रों की बाड के तौर पर अंग्रेजों द्वारा रोपे गए ‘विष-वृक्षों’ के फल-फूल हैं । अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी हम उन्हीं विष-वृक्षों को सिंचने-उगाने में  और भी ज्यादा मुस्तैदी से लगे हुए हैं , इस कारण काली कमाई की प्रवृति और काले धन की व्याप्ति बढती ही जा रही है ।  यह जानते हुए भी कि अनुचित , अनैतिक और अवैध रीति से धन कमाने की प्रक्रिया को ही ‘काली कमाई’ और ऐसे धन को ही ‘काला धन’ कहा जाता है ; धन कमाने वाला चाहे कोई व्यक्ति हो , कम्पनी हो अथवा कोई भी राजनीतिक-शासनिक सत्ता हो ।

            मालूम हो कि धन के भूखे समुद्री लुटेरों के संगठित गिरोह और युरोपीय उपनिवेशवाद की झण्डाबरदार संस्था- ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में आकर अपनी कमाई बढाने के काले कारनामों से युक्त एक से एक तरीकों , साधनों व हथकण्डों का आविष्कार और व्यवहार किया । भारत के सियासी मामलों में घुसपैठ कर छल-छद्म के सहारे सशस्त्र सेना गठित कर औपनिवेशिक शासन कायम कर लेने के बाद उस शासनिक सत्ता के बल पर भारतीय उद्यमियों के उद्योग व व्यापारियों के व्यापार पर भारी-भरकम चुंगी लगा कर जैसे-तैसे उन्हें नष्ट कर ब्रिटेन-निर्मित माल को यहां ऊंचे दामों पर बेचना और खनिज सम्पदाओं को गलत तरीके से हडप लेना ‘काली कमाई’ के उसके खास तरीके थे । उसका शासन स्थापित होने से पहले भारत में जो कार्य-व्यापार , उद्योग-उद्यम , सेवा-संस्थान लगान के दायरे से बाहर एकदम ‘लगान-मुक्त’ थे , उन सब को उसने भारी-भरकम लगान के दायरे में लाकर हमारी पारम्परिक सामाजिक संरचनाओं को भी नष्ट कर दिया । गांव-गांव में स्थापित विद्यालयों को उनके संचालनार्थ जो ‘लगान-मुक्त भूमि’ उपलब्ध थी , उन सबको उसने छीन कर ‘लगान’ के दायरे में ले लाया और उनके गुरुजनों-शिक्षकों को मिलने वाली सुविधायें समाप्त कर तमाम शिक्षण संस्थाओं को बन्द हो जाने के लिए विवश कर दिया । भारत के लोगों की कारिगरी और यहां की प्रौद्योगिकी को समूल नष्ट कर यहां के पारम्परिक ज्ञान-विज्ञान के प्रवाह को अवरुद्ध कर देना और यहां की शिक्षा-व्यवस्था को उखाड फेंक कर समस्त निवासियों को सदा-सदा के लिए गुलाम-जाहिल-गंवार बनाए रखना उसका दूसरा हथकण्डा था । इन हथकण्डों के प्रभाव से लगभग एक सौ वर्षों के भीतर समस्त भारत पर छा जाने के बाद कम्पनी को काली कमाई की अपनी ‘व्यूह-रचना’ अर्थात औपनिवेशिक शासन-संरचना को स्थायित्व देने  में भारतीयों के साक्षर-शिक्षित होने और उन शिक्षितों से सहयोग लेने की आवश्यकता महसूस हुई ।  क्योंकि , उसकी उस शासन-संरचना के सुचारू संचालन हेतु लाखों कर्मचारी-अर्दली ब्रिटेन से यहां लाना सम्भव नहीं था । फिर , उसे ऐसे साक्षर-शिक्षित लोगों की जरुरत थी , जो इस देश की जमीन व जमात से जुडे हुए हों और उसके औपनिवेशिक शासन की स्वीकार्यता बढाने के निमित्त सहायक-समर्थक-दुभाषिया-विचौलिया की भूमिका निभा सकें । उधर उसकी उस लुटेरी शासन-व्यवस्था के विरूद्ध जन-मानस में आक्रोश भी उबल रहा था , जिसे ठण्डा करने और काली-कमाई की अपनी अन्य योजनायें क्रियान्वित करने के लिए भी तदनुकूल शिक्षा-बौद्धिकता कायम करना आवश्यक प्रतीत हुआ । ऐसे हालातों में कम्पनी के रणनीति-निर्धारकों तथा चर्च-मिशनरियों व बौद्धिक तिकडमबाजों और ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के ‘ओरियण्टलिस्ट’ व ‘आक्सिडेण्टलिस्ट’ सांसदों ने काली कमाई की उस व्यूह-रचना अर्थात ‘औपनिवेशिक शासन-संरचना’ के स्थायित्व की अनुकूलता के हिसाब से भारतीयों को कैसी और क्या शिक्षा दी जाए तथा उसकी पद्धति और व्यवस्था कैसी हो , इस बावत वर्षो-वर्षों तक परस्पर व्यापक बहस-विमर्श किया,जिसकी परिणति हुई ‘मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति' का प्रतिपादन-क्रियान्वयन , अर्थात विषैले फलदायक शैक्षिक विष-वृक्षों का रोपण-पोषण । 

             उस बहस-विमर्श के दौरान सन १८३४ ई० में थामस विलिंगटन मैकाले ने सुझाव पेश किया था कि भारतवासियों को युरोपीय पद्धति व अंग्रेजी माध्यम से सिर्फ इतनी और ऐसी शिक्षा दी जाये कि वे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कम्पनी के औपनिवेशिक शासन की चाकरी-चमचागिरी-दलाली-विचौलियागिरी कर सकें और अंग्रेज बनने के लिए लालायित हो उठें । शिक्षा की भारतीय पद्धति को धन कमाने के औपनिवेशिक फंदे के लिए नुकसानदेह बताते हुए मैकाले ने जो तर्क दिया था , उसका सार यह था कि भारतीयों को अगर  भारतीय ज्ञान-विज्ञान की और भारतीय रीति से शिक्षा दी जाएगी, तो उससे उनका बौद्धिक स्तर इतना उठ जाएगा कि उन्हें गुलाम बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा और ब्रिटेन का माल भी भारत के बाजार में नहीं टिक पाएगा , तो हमारी ‘(काली)कमाई’ बन्द हो जाएगी । उसने कहा था “ हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए , जो हमारे और उन करोडों भारतवासियों के बीच , जिन पर हम शासन करते हैं उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके ; जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों , किन्तु रुचि , भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों ”। इसी मैकाले के सुझाव पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम वेंटिक ने ०७ मार्च १८३५ को अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी , जिसे ‘मैकाले-शिक्षापद्धति’ कहा जाता है । 

                   कम्पनी की ‘काली-कमाई’ को स्थायित्व देने के बावत ईजाद किए गये इस नायाब हथकण्डे की सराहना करते हुए ब्रिटिश इतिहासकार- डा० डफ ने अपनी पुस्तक- “ लौर्ड्स कमिटिज-सेकण्ड रिपोर्ट आन इण्डियन टेरिट्रिज- १८५३” के पृष्ठ- ४०९ पर लिखा है – “ मैं यह विचार प्रकट करने का साहस करता हूं कि भारत में अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति लागू करने का विलियम बेंटिक का कानून भारत के भीतर अंग्रेजी राज के अब तक के इतिहास में कुशल राजनीति की सबसे जबर्दस्त चाल मानी जायेगी ” । बाद में सन १८५७ की बगावत के पश्चात ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के हाथों से शासन स्वयं हस्तगत कर  इस हथकण्डे को पूरी गम्भीरता से स्थापित कर दिया । स्पष्ट है कि  उस व्यापारिक कम्पनी के राजनीतिक आकाओं ने अपनी काली कमाई की व्यूह-रचना अर्थात औपनिवेशिक शासन के स्थायित्व के साधन के तौर पर भारत में शिक्षा विभाग कायम किया और अपनी कुटिल मंशा को अंजाम देने के लिए तदनुसार मैकाले शिक्षण-पद्धति लागू की थी । 

                    आधुनिक भारत में प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के प्रखर प्रयोगधर्मी उत्तम भाई जवानमल शाह और अहमदाबाद-स्थित हेमचन्द्राचार्य गुरुकुलम के संचालक- अखिल भाई का मानना है कि अंग्रेजों ने अपनी काली कमाई को बढाने व उसे चमकाने के लिए शिक्षा की जो मैकाले-पद्धति हमारे ऊपर थोप दी , उसमें राष्ट्रीय चरित्र के तत्वों तथा नैतिक-सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय मर्यादाओं का सर्वथा अभाव है, जिसका परिणाम है कि आज हर व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाने के पीछे पागल हुआ जा रहा है और पशुवत स्वार्थ में डूबा हुआ है । यहां प्रसंगवश मैकाले के बहनोई- चार्ल्स ट्रेवेलियन द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की एक समिति के समक्ष ‘भारत में भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’  शीर्षक  से  प्रस्तुत किये गए एक लेख का यह अंश उल्लेखनीय है- “ मैकाले शिक्षा-पद्धति का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता, … हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को युरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें …..इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असंदिग्द्ध हो जाएगा ”। ‘अंग्रेजी राज’ वास्तव में शोषण-दोहन व  काली कमाई का सरंजाम था , जबकि ‘युरोपियन ढंग की उन्नति’ का उदाहरण ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मालिकों-गवर्नरों और उसके उस किरानी- वारेन हेस्टिंग्स से अच्छा कोई नहीं हो सकता , जो अपने इफरात काले धन से ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में कुर्सियां खरीद कर सांसद बन जाया करते थे । जाहिर है , आज हमारे देश में अधिकतर लोग इसी तरह की ‘उन्नति’ को अपना ध्येय मानते रहे हैं । काली कमाई की ऐसी व्यूह-रचना , अर्थात औपनिवेशिक शासन-संरचना को स्थायित्व देने के सरकारी साधन के तौर पर ईजाद की गई मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति उसी रूप में आज भी हमारे देश में कायम है , जिस पर हमारी सरकार मेहरबान है । किन्तु , काला धन समाप्त करने के लिए काली-कमाई के सृजन-संवर्द्धन का मानस व ‘मानव-संसाधन’ तैयार करने वाली इस ‘काली शिक्षा-पद्धति’ के उन्मूलन और सचरित्र-निर्माणकारी भारतीय शिक्षा-पद्धति के पुनर्पोषण के बजाय रुपयों के लेन-देन का ‘डिजिटलाइजेशन’ करने में लगी है सरकार , तो यह विष-वृक्ष की जडों को सिंचने और उसकी शाखाओं-पत्तियों को नियंत्रित करने की त्रासदी के सिवाय और कुछ नहीं है ।