लोकहितकारी फ़ैसलों से दूर ले जाती लोकलुभावन नीतियां

                केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में रोटी,कपड़ा और मकान को मानव जाति की बुनियादी ज़रूरतों के रूप में गिना जाता है। सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह ने भी यह नारा दिया था कि-‘तेग देग फ़तेह’ यानी अगर पेट भरा हुआ है और हाथों में हथियार है तो जीत निश्चित है। भूखे भजन न होत गोपाला जैसा प्रचलित कहावत भी हमारे ही देश में प्रसिद्ध है। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि देश के जो राजनैतिक दल चुनावों के समय जनता की इन्हीं बुनियादी ज़रूरतों यानी रोटी-कपड़ा व मकान तथा सड़क,बिजली व पानी जैसी ज़रूरतों को पूरा करने के वादों के साथ सत्ता में आते हैं,बड़े आश्चर्य की बात है कि सत्ता में आते ही उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। उनका ध्यान जनता के हितों को ध्यान में रखकर फ़ैसले लेने के बजाए इस बात पर केंद्रित हो जाता है कि किस प्रकार उनके निर्णय जनता को अच्छे लगें भले ही वे उसके लिए हितकारी होने के बजाए अहितकारी ही क्यों न हों।

                उदाहरण के तौर पर इस समय यदि आप टीवी चैनल्स पर समाचार सुनने बैठें या अख़बार के पन्नों को पलटें तो आपको कहीं दलितों पर होने वाले ज़ुल्म की ख़बरें सुनाई देंगी तो कहीं स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा किसी ग़रीब व्यक्ति को पीटने का समाचार अथवा इससे संबंधित बहस सुनने को मिलेगी। कहीं दलितों के अपमान का मामला आसमान छूता दिखाई देगा तो कहीं नारी अस्मिता को लेकर यही राजनेता हंगामा खड़ा करते देखे जाएंगो। कहीं मंदिर पर विवाद तो कहीं मस्जिद पर चर्चा। कभी धर्म परिवर्तन पर बहस तो कभी किसी वर्ग विशेष को नीचा दिखाने की कोशिश। कभी गांधी की हत्या को लेकर बहस तथा विवाद तो कभी अंबेडकर को अपनाने की राजनीति। कहीं हिंदुत्व का मुद्दा तो कहीं अल्पसं यक अथवा दलितों की अस्मिता का प्रश्र। इन जैसी बातों से जनता का परोक्ष रूप से कोई सरोकार दिखाई नहीं देता सिवाय इसके कि इस प्रकार की बातें महज़ जनता की भावनाओं को भड़काने तथा जनता से जुड़े मूल मुद्दों की ओर से उनका ध्यान भटकाने के लिए की जाती हों। आश्चर्य की बात तो यह है कि सत्ता तथा विपक्ष दोनों ही इसी प्रकार के ग़ैरज़रूरी तथा जनता की ज़रूरतों के एतबार से निरर्थक समझे जाने वाले मुद्दों में उलझे दिखाई देते हैं। जैसे कि पिछले दिनों गुजरात में स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा कुछ दलितों के साथ मारपीट की गई। इस घटना के लिए दलित समाज ने केंद्र तथा गुजरात राज्य की सरकारों को तथा उनके शासन में बढ़ रही इस प्रकार की हिंदुत्ववादी आक्रामकता को निशाने पर लिया तो दूसरी ओर इसी दलित आक्रोश का लाभ उठाने बड़े से बड़े विपक्षी नेता भी गुजरात में दलितों से हमदर्दी जताने जा पहुंचे।

                इसमें कोई शक नहीं कि इस समय देश की सबसे बड़ी समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही मंहगाई है। मंहगाई की समस्या भले ही देश के धनाढ्य लोगों पर कोई प्रभाव न डालती हो परंतु रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें ख़ासतौर पर रसोई से संबंधित वस्तुएं मध्यम वर्ग तथा ग़रीबों को सीधे तौर पर एक दिन में कई-कई बार प्रभावित करती हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मंहगाई के इस प्रकार लगातार बढ़ते जाने से देश में चोरी,डकैती,ठगी तथा अराजकता में वृद्धि होने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है। देश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान सरकार का गठन इन्हीं उ मीदों के साथ किया था कि उनकी सरकार सत्ता में आते ही कुछ करे या न करे परंतु कम से कम मंहगाई पर तो तत्काल नियंत्रण कर ही लेगी। नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकारों ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ यह नारा भी पूरे देश में प्रचारित कराया था-‘बहुत हुई मंहगाई की मार-अब की बार मोदी सरकार’। 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान वर्तमार सत्तारुढ़ दल के नेताओं ने जनता को आश्वासन यह भी दिया था कि सत्ता में आते ही विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जएगा। परंतु जनता को काला धन की वापसी होने न होने में इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि प्रधानमंत्री के इस आश्वासन को लेकर थी कि काला धन वापस आने पर प्रत्येक देशवासी के खातें में 15-15 लाख रुपये जमा होंगे।

                परंतु सत्ता में आने के बाद तो ऐसा प्रतीत होता है गोया सरकार की नीतियां तथा उसकी प्राथमिकताएं ही बिल्कुल बदल गई हों। सरकार का पूरा ध्यान लोकहितकारी नीतियों से भटक कर लोकलुभावनी नीतियों पर अमल करने पर केंद्रित हो गया हो। मिसाल के तौर पर यदि आप सरकार से शुद्ध जल की आपूर्ति की उ मीद रख रहे हों तो सरकार उससे ज्¸यादा तरजीह इस बात पर दे रही है कि किस प्रकार डाक द्वारा आपको घर बैठे गंगा जल पहुंचा दिया जाए। यदि आप मंहगाई की बात करते हैं तो सरकार व इससे जुड़े नेताओं व संगठनों के पास गौरक्षा का मुद्दा प्राथमिकता पर दिखाई दिखाई देता है। आप रोज़गार की बात करें तो यह गंगा सफ़ाई की बात छेड़ देंगे। आप ग़रीबों को आवास दिलाने की बात करें तो यह मंदिर निर्माण की बात शुरु कर देंगे।

आप देश में समानता लाने व जातिवाद समाप्त करने की बात करें तो यह समान आचार संहिता लागू करने का राग अलापने लगेंगे। आप महिला अथवा नागरिक सुरक्षा की बात करें तो यह वर्ग विशेष से जुड़े लोगों को पाकिस्तान भेजने की घोषणा करने लग जाएंगे। आप दलितों पर हो रहे अत्याचार की बात करें तो यह धर्मविशेष के लोगों की जनसं या बढ़ने का हौव्वा खड़ा करने लगेंगे। यदि आप इनसे यह पूछें कि विदेशों में जमा काला धन आपके वादों के अनुसार क्यों नहीं आया और हमारे खातों में अब तक पंद्रह लाख रुपये क्यों नहीं जमा हुए तो आपको यह सुनने को मिलेगा कि विश्व में भारत का सिर ऊंचा हुआ है। बातें तो मेक इन इंडिया की की जाएंगी परंतु दाल का आयात अफ़ीकी देशों से किया जा रहा है।

                पिछले दिनों लोकसभा में काफ़ी दिनों बाद जनता से जुड़ा सबसे ज़रूरी समझा जाने वाला मंहगाई का मुद्दा विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा बड़े ही ज़ोर-शोर के साथ उठाया गया। सरकार को आईना दिखाते हुए राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार पर कई कड़े प्रहार किए। उन्होंने सरकार की इस ढुलमुल नीति को उजागर किया कि किस प्रकार किसान द्वारा मात्र 50 रुपये किलो की दर से बेची जाने वाली दाल जनता के हाथों तक पहुंचते- पहुंचते 180 रुपये किलो की कीमत पर बिक रही है। उन्होंने प्रधानमंत्री को यह भी याद दिलाया कि जिस समय कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल थी उस समय  मनमोहन सिंह की सरकार ने किसानों का सत्तर हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज़ माफ़ किया था। परंतु अफ़सोस की बात है कि आज जब कच्चे तेल का मूल्य मात्र 44 डॉलर प्रति बैरल है तो वर्तमान सरकार ने गत् वर्ष बड़े उद्योगपतियों का 52 हज़ार करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर दिया है। इस संदर्भ में एक बात कहना यह भी बहुत ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उनके गृहराज्य गुजरात सहित पूरे देश में किसानों ने जितनी बड़ी सं या में आत्महत्या की है उस अनुपात में देश की आज़ादी से लेकर अब तक इतनी आत्महत्याएं पहले कभी नहीं हुईं।

                परंतु क्या सत्ता पक्ष तो क्या विपक्ष सभी संसद से लेकर सड़कों तक एक-दूसरे को नीचा दिखाने तथा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने में व्यस्त रहते हैं। आश्चर्य तो यह है कि भावनात्मक मुद्दों को यदि सत्तापक्ष किसी वर्ग विशेष अथवा धर्म विशेष के वोट भुनाने की ग़रज़ से कहीं उछालता है तो विपक्ष भी स्वयं को इस वाद-विवाद में शामिल किए बिना नहीं रह पाता। परिणामस्वरूप जनता से जुड़े सबसे ज़रूरी मुद्दे जिनका कि जनता दिन में कई बार सामना करती है, उदाहरणतया मंहगाई का मुद्दा सबसे दूर और पीछे चला जाता है। पक्ष-विपक्ष की इसी खींचतान में सत्ता सुख भोगते हुए जब चार वर्ष गुज़र जाते हैं और पांचवां वर्ष शुरु होता है तो उस वर्ष को चुनावी घोषणाओं तथा लोकलुभावन नीतियां घोषित करने के वर्ष के रूप में देखा जाता है।

इस चुनावी वर्ष में सत्तापक्ष की कोशिश होती है कि किस प्रकार कुछ लोकलुभावन नीतियां घोषित कर तथा झूठे-सच्चे वादे व आश्वासन देकर जनता को अपनी ओर पुनः आकर्षित किया जाए। रही-सही कसर दंगे-फ़साद फैलाकर ,समाज में सांप्रदायिक अथवा जातीय दुर्भावनाएं फैलाकर, किसी धर्म अथवा जाति के लोगों को आरक्षण देने का वादा कर अथवा मंदिर-मस्जिद के विवाद खड़े कर पूरी कर ली जाती है। हमारे देश में एक वोट बैंक ऐसा भी है जो चुनाव की पूर्व संध्या पर इस आधार पर मतदान का निर्णय लेता है कि उसे किस दल अथवा किस नेता द्वारा कितने पैसे नकद दिए जा रहे हैं और कितनी शराब पिलाई जा रही है। ज़ाहिर है यही परिस्थितियां हमारे देश में नेताओं को लोकहितकारी कार्यों से दूर रहने तथा लोकलुभावनी नीतियों पर चलने हेतु प्रोत्साहित करती हैं। निश्चित रूप से इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे देश की जनता के लिए और क्या हो सकता है?