बदलने लगी संघ की चाल और बीजेपी का चेहरा

आरएसएस ने पहली बार राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे स्वयसेवकों को संगठन के भीतर जगह दी है, तो बीजेपी पहली बार अपने ही कद्दावर नेताओं को खारिज कर पैसेवाले उघोगपतियों को जगह दे रहा है। आरएसएस को लग रहा है कि आने वाले वक्त में संघ को राजनीतिक दिशा देने का काम करना होगा। तो बीजेपी को लग रहा है कि चुनावी सत्ता की नैया खेने के लिये आने वाले वक्त में सबसे जरुरी पैसा ही होगा। आरएसएस ने अपनी कार्यकारिणी में ऐसे छह नये चेहरों को जगह दी है जो इमरजेन्सी से लेकर मंडल-कमंडल के दौर में खासे सक्रिय रहे। सह-सरकार्यवाहक बने डा कृष्णा गोपाल तो 1975 में मीसा के तहत 19 महीने जेल में रहे। और मदनदास देवी की जगह आये सुरेश चन्द्रा तो अयोध्या आंदोलन के दौर में स्वयंसेवकों को राम मंदिर का पाठ ही कुछ यूं पढ़ाते रहे जिससे बीजेपी की राजनीतिक जमीन के साथ समूचा संघ परिवार खड़ा हो।

 

इसी तर्ज पर एक दूसरे सहसरकार्यवाहक बने। केरल के के सी कन्नन ने स्वयंसेवकों की तादाद बढ़ाते हुये हिन्दुत्व की धारा को लेकर दक्षिण में तब जमीन बनायी जब वामपंथी धारा पूरे उफान पर थी। लेकिन इसके ठीक उलट बीजेपी ने अरबपति एनआरआई अंशुमान मिश्रा और नागपुर के अरबपति अजय कुमार संचेती को अपना नुमाइन्दा बनाया है। एनआरआई अंशुमान लंदन में रहते हैं। पर्चा भरते वक्त पत्रकारों के कुरेदने पर यह कहने से नहीं चूकते जब झरखंड संभाले चौकडी अर्जुन मुंडा,बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ और वैकैया नायडू के अलावा वर्तमान अध्यक्ष नीतिन गडकरी का ही साथ हो तो फिर राजयसभा कितनी दूर होगी। वहीं उद्योगपति अजय कुमार संचती हर उस जगह बीजेपी के पालनहार बने जहा पैसे की जरुरत रही। संयोग से झारखंड में अर्जुन मुंडा की सरकार बन जाये उसमें भी नागपुर से उडकर रांची में असल बिसात संचेती ने ही बिछायी थी। इतना ही नही नीतिन गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर हर छोटे-बडे बैठकों के लिये पैसे का इंतजाम उन्हीं पैसेवालों ने किया जो नीतिन गडकरी के करीब थे। यहां तक की पटना में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद ना तो सुशील मोदी ना ही रविशंकर जैसे नेताओं ने पैसे का जुगाड कर पाये। आखिरकार रास्ता गडकरी ने ही दिखलाया। वहीं संघ के मुखिया मोहन भागवत को अण्णा आंदोलन के दौर सें लगा कि अगर सामाजिक तौर पर अण्णा सरीखा कोई शख्स देश को झकझकोर सकता है तो फिर आने वाले वक्त में आरएसएस की उपयोगिता पर भी सवाल उठेंगे।

 

और जब बीजेपी के पास समूचा राजनीतिक संगठन है और संघ के स्वयंसेवकों को महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर बीजेपी के आंदोलन के साथ जुडने का निर्देश था, फिर भी सफलता बीजेपी को क्यो नहीं मिली । असल में 16-17 मार्च को नागपुर में संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में यही सवाल उठा। और चितंन-मनन की प्रक्रिया में पहली बार आरएसएस ने माना ने बीजेपी की राजनीतिक दिशा कांग्रेस की लीक पर चलने वाली ही हो चुकी है । इसलिये आरएसएस को ही राजनीतिक बिसात बिछानी होगी । और इसी रणनीति के तहत पहली बार संघ की कार्यकारिणी राजनीति के उस महीन धागे को पकड़ना चाह रही है जहा से बीजेपी की साख दोबारा बने । यानी संघ यह मान रहा है कि बीजेपी के नेताओ की साख नहीं बच रही इसलिये संगठन भी भोथरा नजर आ रहा है। वहीं नेताओं का मतलब नीतिन गडकरी सीधे दिल्ली की उस तिकडी पर डाल रहे हैं जो संसद से सडक और मीडिया से आम लोगों के ड्राईंग रुम तक में चेहरा है। बीजेपी ही नहीं संघ का भी मानना है कि लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली राजनीतिक तौर पर बीजेपी की पहचान है । लेकिन इन नेताओं की पहचान के साथ आरएसएस की खुशबू गायब है । इसका लाभ नीतिन गडकरी को मिल रहा है। और नीतिन गडकरी के रास्ते का लाभ आरएसएस को मिल रहा है। क्योंकि संघ के भीतर गडकरी को लेकर पहचान मोहन भागवत के ऐसे सिपाही के तौर पर है जो मुहंबोले हैं। जिसने अब की कमान संभाले संघ कार्यकारिणी के हर उस शख्स को नागपुर में देवरस के उस दौर से देखा जब सभी रेशमबाग के इलाके में कदमताल करते हुये सदा-वस्तले गाया करते थे। उसमें मोहन भागवत भी रहे हैं। तो बीजेपी के चेहरों को खत्म करने की राजनीति में बीजेपी ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां लोकसभा में प्रतिपक्ष के तौर पर बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज के साथ बीजेपी अध्यक्ष की धुन बिगड चुकी है

 

राजयसभा में प्रतिपक्ष के बीजेपी के नेता के तौर पर अरुण जेटली के साथ नीतिन गडकरी की किसी मुद्दे पर साथ बैठते नहीं। लाल कृष्ण आडवाणी के घर का रास्ता भी गडकरी भूल चुके हैं। ऐसे में दिल्ली में डेरा जमाये दूसरी कतार के नेताओ की फौज चाहे रविशंकर प्रसाद से लेकर अनंत कुमार तक हो या शहनवाज हुयैन से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी या रुढी की हो सभी गडकरी के पीछे आकर खड़े हो गये हैं। ऐसे में बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैकैया नायडू बेहद शालिनता से दिल्ली की तिकडी का साथ छोड़ गडकरी के पैसेवालो की चौसर के ऐसे पांसे बन गये जहा बीजेपी का मतलब गडकरी का खेल है। इसलिये उत्तराचल में काग्रेसी रावत के बगावत से जरा सी उम्मीद भी बीजेपी में जागती है तो निशंक के साथ गडकरी रात बारह बजे के बाद भी चर्चा करने से नहीं कतराते और राज्यसभा की सीट पर राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर अहलूवालिया का पत्ता कैसे कटे इसकी बिसात झारखंड में पहले जमेशदपुर के उघोगपति आर के अग्रवाल के नाम से सामने आती है तो फिर एनआरआई

अंशुमान मिश्रा के जरीये मात मिलती है। वहीं खेल बिहार में भी खेला जाता है जहा अहलूवालिया का नाम छुपाकर सुरक्षा एंजेसी चलाने वाले आर के सिन्हा के नाम को आगे कर बिहार बीजेपी के भीतर ही लकीर खिंच कर जेडियू को मौका दिलाया जाता है । अगर इतने बडे पैमाने पर लकीरें खिंची जा रही है तो सवाल यह नहीं है कि है कि क्या संघ से लेकर बीजेपी बदल रही है । सवाल यह है कि आगे जिस रास्ते को संघ और बीजेपी पकडने वाले है उसका असर देश की राजनीति पर पड़ेगा या फिर बदलती राजनीति ने ही बीजेपी-संघ को बदलने पर मजबूर कर दिया है।