देश का भट्टा बैठाकर सरकार बचाने की मनमोहनी कवायद

8 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में जब मुलायम सिंह के खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अटॉर्नी जनरल ने मुलायम का पक्ष लिया तो कई सवाल एकसाथ खड़े हुये। क्या मनमोहन सिंह सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, जो सरकार के बाहर दोस्ती का दाना डालना शुरु किया गया है। चूंकि एक तरफ आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में सरकार ही सक्रिय है और वहीं अगर सरकार ही सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई की पहल को खारिज कर रही है तो फिर यह दोस्ती न करने पर चेताना है या अपने उपर आये संकट के मद्देनजर पहले से तैयारी करना। और यही मामला मायावती के खिलाफ भी चल रहा है और उसकी सुनवायी, जो पहले 15 फरवरी को होनी थी, अब उसकी तारीख बढ़ाकर 15 मार्च कर दी गयी है। जिसे फैसले का दिन माना जा रहा है।

 

तो क्या मनमोहन सिंह मायावती के सामने भी अपनी दोस्ती का चुग्गा फेंक रहे हैं। लेकिन यूपीए से बाहर साथियों की तलाश और सीबीआई को इसके लिये हथियार बनाने की जरुरत मनमोहन सिंह के सामने क्यों आ पड़ी है, समझना यह जरुरी है । असल में पहली बार मनमोहन सिंह के सामने दोहरी मुश्किल है। एकतरफ सरकार की छवि के जरिये कांग्रेस के दामन को बचाना और दूसरी तरफ विकास की अपनी थ्योरी को नौकरशाहों के जरिये बिना लाग-लपेट लागू कराना । संयोग से खतरा दोनों पर मंडरा रहा है। नीरा राडिया टेप ने जहां संकेत दिये कि नेता-नौकरशाह-कॉरपोरेट के कॉकटेल के जरिए देश को लगातार चूना लगाया जा रहा है वहीं सीबीआई जांच की खुलती परतों के बीच जब सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में कदम बढ़ाया तो घेरे में राजनेता ए राजा, नौकरशाह सिद्दार्थ बेहुरा और कॉरपोरेट घराने के रतन टाटा ही आये।

 

यानी नेता,नौकरशाह और कारपोरेट के चेहरो में वही चेहरे उभरे जो मनमोहन सिंह सरकार और मनमोहनोमिक्स के करीब थे। लेकिन इसका असर कांग्रेस से ज्यादा यूपीए के सहयोगियों में हुआ । खासकर शरद पवार और करुणानिधि यानी कांग्रेस के दोनों बड़े सहयोगियों ने जिस तरह स्पेक्ट्रम घोटाले के तार पीएमओ से जोड़ने की पहल अपनी अपनी राजनीति में की, उसका असर यही हुआ कि कांग्रेस के भीतर भी यह हलचल बढ़ गयी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे का सारा दाग अकेले उसी के दामन पर कैसे लग सकता है। शरद पवार ने कॉरपोरेट का डर कैबिनेट की बैठक में कई तरीके से दिखाया और डीएमके ने ए राजा के क्लीन चीट देकर अपने राजनीतिक घेरे में मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा करने में कोई देरी नहीं लगायी। कांग्रेस के भीतर इसरो के एस-बैड घोटाले के उछलने के पीछे भी डीएमके का ही हाथ माना गया। क्योंकि डीएमके ने तमिलनाडु की राजनीति में यह कहने में देर नहीं लगायी कि जब पीएमओ के अधीन विभाग में घोटाले से पीएमओ पल्ला झाड़ सकता है तो फिर स्पेक्ट्रम में तो ए राजा के मत्थे सबकुछ मढ़कर मनमोहन सिंह पल्ला झाड़ेंगे ही। लेकिन मनमोहन सिंह ने इस भ्रष्टाचार के मद्देनजर कांग्रेस में जो संकेत दिये, उससे यूपीए के भीतर का घमासान कही ज्यादा तीखा हुआ। और सवाल यह भी उभरा कि क्या मनमोहन सिंह के खिलाफ कांग्रेस के भीतर प्रभावी मंत्रियों की लॉबी ही काम कर रही है। क्योंकि एस-बैंड पर पीएमओ की तरफ से कहा गया कि 2005 के समझौते की जानकारी ही 2009 में पीएमओ को लगी। इसलिये पीएमओ ने 2010 में ही इसे खारिज करने की दिशा में कदम बढ़ा दिये।

 

लेकिन पीएमओ का सवाल है कि आखिर इस दौर में उससे इस करार को छुपाया किसने। जाहिर है कि एस-बैड का मसला देश की सुरक्षा से जुड़ा है और अगर यह जानकारी पीएमओ को नहीं दी गयी तो पहला सवाल अगर विदेश और रक्षा मंत्रालय का हो तो दूसरा सवाल मनमोहनोमिक्स का भी है, जिसके घेरे में देश का हर माल बिकाऊ है। और इसरो भी इससे अलग नहीं है। क्योकि मनमोहन सिंह की आर्थिक थ्योरी बड़ी साफ है कि हर विभाग को अपना खर्चा खुद उठाना चाहिये चाहे वह इसरो के वैज्ञानिक ही क्यों न हों। और कमाई के लिये ही एस-बैंड देवास कंपनी को बेचा गया, यह भी सच है । ठीक इसी तर्ज पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर भी पीएमओ ने कांग्रेस से यही सवाल किया कि उन्हें लाइसेंस बेचे जाने की जानकारी तो दी गयी लेकिन बिना अनुभव की कंपनियो से लेकर लाइसेंस के शेयरो को एक हजार गुना ज्यादा की रकम पर बेच कर मुनाफा बनाने की जानकारी उनसे झुपायी गयी। पीएमओ का तर्क साफ है कि जब हवाला और मनी लॉडरिंग पर नजर रखने के लिये वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधीन विभाग काम कर रहे हैं तो फिर यह सारी जानकारी उस वक्त उन तक क्यो नहीं पहुंच पायी। यानी प्रणव मुखर्जी और एस एम कृष्णा ने पीएमओ को अंधेरे में क्यों रखा। मनमोहन सिंह का संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि काग्रेस की राजनीति और सरकार चलाने के मनमोहन सिंह के तौर तरीको में टकराव पैदा हुआ है।

 

असल में मनमोहन सिंह का बड़ा संकट उस अर्थव्यवस्था को लागू कराने की मुश्किल भी है जो कारपोरेट के जरीये अभी तक अमल में लायी जा रही थी। जिस कारपोरेट के लिये लाल कारपेट बिछा कर मनमोहन विकास मंत्र का जाप कर रहे थे और सरकार के करीबी कारपोरेट का टर्न ओवर बीते चार साल में तीन सौ से दो हजार फीसदी तक लाईसेंस प्रणाली के जरीये बढे, उसके खिलाफ कार्रवाई करने के संकेत कांग्रेस से निकले यानी 10 जनपथ का इशारा साफ है कि कारपोरेट को मुनाफे पहुंचाने के लिये कांग्रेस की छवि से समझौता नहीं किया जा सकता है। खासकर तब जब सुप्रीम कोर्ट भी सक्रिय हो और विपक्ष की समूची राजनीति भी कांग्रेस के आम आदमी के नारे में सेंघ लगा रही हो। लेकिन मनमोहन सिंह संकट इतना भर नही है, भ्रष्टाचार के नैक्सस में जिस तरह नौकरशाही घेरे में आयी है और पूर्व सचिव सिद्दार्थ बेहुरा गिरफ्तार हुये और बैजल कभी भी गिरफ्तार हो सकते हैं, ऐसे में पहली बार मनमोहन सरकार के हर मंत्रालय में में किसी भी मंत्री के किसी भी योजना पर कोई नौकरशाह सीधे” ओके ” लिखने से बच रहा है। यानी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने से पहले अगर बीते दो बरस में हर मंत्रालय से निकली फाइलों पर नजर डालें तो औसतन हर मंत्रालय से हर महीने तीन से पांच योजनाओं की फाइलें “ओके” होकर निकलती रही । यानी बीते दो बरस में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी 47 फाइल, औघोगिक विकास से जुडी 32 फाइल, ग्रामीण विकास से जुड़ी 45 फाइल और आदिवासी से लेकर पानी,शिक्षा,स्वास्थय से जुड़ी 63 से ज्यादा फाइलों पर नौकरशाहों ने ओके लिखा। खास बात यह है कि नब्बे फीसदी फाइलें कारपोरेट की योजनाओ से जुड़ी थीं। और हर मंत्रालय ने अपनी उपलब्धियों में कारपोरेट की इन तमाम योजनाओ को जोड़ा। जबकि बीते साढ़े तीन महिनों में अगर मंत्रालयों से निकलने वाली फाइलों पर गौर करें तो अंगुलियो पर गिने जाने वाली स्थिति आ जायेगी। हकीकत यह भी है कि इस दौर में किसी भी मंत्रालय से ऐसे कोई फाइल हरी झंडी के आसरे नहीं निकली, जिसमें मंत्रीजी ने ओके लिखा है । हर फाइल पर नियम-कायदो का हवाला हर स्तर पर नौकरशाह अब देने से नहीं कतरा रहा है। नौकरशाहों की माने तो जब सचिव स्तर के सिद्दार्थ बेहुरा को सीबीआई अपने शिकंजे में ले सकती है और बेहुरा के जरीये अपने कार्यों को अंजाम देने वाले कैबिनेट मंत्री जेल जा सकते हैं तो फिर भविष्य में इसकी गारंटी कौन लेगा कि किसी मंत्री पर आगे गाज नहीं गिरेगी और उस चपेट में नौकरशाह नहीं आयेगा।

 

असल में नौकरशाहो में ज्यादा घबराहट इस हकीकत को लेकर भी है कि राजा अपने चहेते बेहुरा को पर्यावरण मंत्रालय ले गये थे। जबकि राजा की नीतियों का विरोध करने वाले दो वरिष्ठ नेताओ को वीआरएस लेना पड़ा। तब नौकरशाहो में यह सवाल खड़ा हुआ था कि मनमोहन के राज में मंत्रियो का प्रिय होना ही ठीक है। लेकिन अब मंत्री के प्रिय होने से भी अब नौकरशाह कतरा रहे है और मनमोहन सिंह की थ्योरी तले विकास की लकीर खींचने में लगे मंत्री भी अब कारपोरेट से सचेत हो गये हैं। यानी मनमोहन सिंह विकास के लिये जिस कानून को घता बताते हुये अभी तक चकाचौंध का खेल खेल रहे थे, उस पर झटके में लगाम लगी है। वजह भी यही है बीते दौर में जो नियम-कायदे जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्रालय के नौकरशाहों को यह कहकर पढ़ाया कि नियम पहले देखें फिर योजना का लाभ। इसी तर्ज पर अब हर मंत्रालय में नौकरशाह अपने अपने मंत्रियों को सलाह दे रहा है। जाहिर है मनमोहन सिंह के सामने बीते साढ़े छह साल में पहली बार ऐसा संकट आया है जब मंत्रियों में सरकार और पार्टी के छवि को लेकर बंटवारा है और नौकरशाह मनमोहनोमिक्स तले सिर्फ कारपोरेट-नेता नैक्सस से मुनाफा बटोरने का खेल मानने लगे हैं। यानी सरकार की गाड़ी जिस पटरी पर मनमोहन सिंह दौड़ाना चाहते हैं, उसमें भी ब्रेक लगी है। और ब्रेक का परिणाम यही है कि कारपोरेट घरानो में अब सियासत की बिसात बिछाने की जरुरत कहीं ज्यादा तेज हो गयी है, जिसके लिये शरद पवार मंत्री की चाल चलने में माहिर है। वजह भी यही है कि शरद पवार की चाल की घेराबंदी शाहिद बलवा की गिरफ्तारी से हुई है। अगला निशाना यूनिटेक के चन्द्रा हो सकते हैं, जिन्हें टेलीकॉम के क्षेत्र में बिना किसी अनुभव लाइसेंस मिल गया। यह परिणाम मनमोहन सिंह के खुद को बचाने के लिये हैं। और खुद को पाक-साफ बताने की मनमोहन सिंह की यह समूची पहल दरअसल पहली बार उस आर्थिक सुधार पर अंगुली उठा रही है, जिसे टैक वन,टू, थ्री कहते हुये मंदी के दौर को यह कह कर पार किया गया कि देश का जीडीपी बुलंद है और उसका बैरोमीटर शेयर बाजार में बहार का लौटना है। लेकिन इस दौर में भ्रष्टाचार कैसे व्यवस्था में तब्दील हो गयी, यह खेल अब ना सिर्फ खुल कर सामने आ रहा है बल्कि नया सवाल यही है कि सरकार के कमोवेश अधिकतर मंत्रालय ही कारपोरेट को मुनाफा देकर अपना हित साधने में ही लगे रहे। यह स्थिति सिर्फ गृह मंत्रालय के आईएएस रवि इंदर सिंह की नहीं है, जो कारपोरेट हित के लिये सरकार की जानकारी डीबी कार्प के शाहिद बलवा को मुहैया कराते थे। और डीबी कार्प स्पेक्ट्रम मामले मं स्वान का प्रमोटर ही नहीं तमाम जानकारी देने वाला साझीदार था। और स्वान के तार संयुक्त अरब अभीरात में दाऊद तक से जुड़े हुये हैं और इस चक्रव्यूह में अपना लाभ बनाने के लिये देश के राजनेता भी नहीं चूक रहे थे। क्योंकि आधुनिक विकास का मंत्र देश की सुरक्षा नहीं मुनाफा देखता रहा है। और इस घेरेबंदी में अगर मनमोहन सिंह या यूपीए सरकार फंसी है तो नया सवाल कहीं ज्यादा गंभीर है जिसमें सत्ता से लाभ उठाने या खुद को बचाने की खातिर मुलायम, मायावती,जयललिता सरीखे देश के आधे दर्जन छोटे दलो से मनमोहन सिंह की सौदेबाजी जारी है। तो सरकार बचाये रखने के लिये भी अब सरकारी निर्णयों से अब मंत्रियों के समूह को जोड़ा जा रहा है। एस बेंड पर आखिरी निर्णय कैबिनेट कमेटी आन सेक्यूरिटी लेगी तो देश में कोयला खादान से लेकर खनन के हर मामले पर भी आखिरी निर्णय भी ग्रूप आफ मिनिस्टर ही लेंगे। यानी जयराम सरीखे किसी एक ईमानदार की जरुरत मनमोहन की सरकार में नहीं है। जिससे भविष्य में भ्रष्टाचार का दाग इतना फैले कि कोई यह ना कह सके कि उसका दामन साफ है।