दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का खोखलापन

राहुल से लेकर मोदी तक से सपने बुनने का मतलब

 

राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी अलग दिखायी दे सकते हैं। मनमोहन सिंह और राजनाथ अलग हो सकते हैं। लेकिन देश के मौजूदा हालात में कोई यह कहे कि राजनीतिक प्यादों को छांट छाट कर अलग कर दीजिये, जिससे उनके कामकाज से पता चल जाये कि राजनीतिक तौर पर रास्ता हर किसी का अलग है तो क्या यह संभव है। यह सवाल इसलिये क्योंकि हरीश चौधरी, राजीव साटव, मुरलीधर राव, अमीत शाह, ज्योति मिर्धा, उमा भारती, कृष्णा वेरेगौडा, वरुण गांधी, अशोक तंवर, शनीमोल उस्मान या मीनाक्षी नटराजन किसी भी राजनीतिक दल के साथ काम करें, इससे देश की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा। जाहिर है आप और हम मौजूदा वक्त में हिन्दुत्व का घोल, सांप्रदायिकता का चेहरा और विकास की राह के साथ साथ सेक्यूलर होने का रास्ता इन चेहरो से कैसे पकड़ सकते हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि जो सवाल आने वाले वक्त में कांग्रेस में राहुल गांधी की नयी टीम को लेकर खड़े हो रहे हैं और जो सवाल राजनाथ या मोदी की टीम को लेकर खड़े होंगे, उसमें टीम के चेहरों को लेकर कई सवाल इसलिये उभरेंगे क्योंकि राहुल हो या मोदी या फिर राजनाथ सिह ही क्यों नहीं, अगर यह सत्ता के प्रतीक बन चुके हैं तो इनकी टीम के हर चेहरे के जरीये मोदी या राहुल की राजनीतिक भंगिमा को तलाशने का काम शुरु होगा ही। जो शुरु हो चुका है।

 

तो राजनाथ की नयी टीम में मुरलीधर राव का मतलब स्वदेशी जागरण मंच यानी देसी आर्थिक नीतियों का लब्बोलुआब देखा जा सकता है। बहस तो होगी। लेकिन मुरलीधर राव का मतलब है क्या, जब दत्तोपंच ठेंगडी के साथ रहते हुये वह वाजपेयी सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करते थे या फिर नीतिन गडकरी के दौर में उन्हें दिल्ली के अशोक रोड स्थित बीजेपी हेडक्वार्टर में बतौर महासचिव जगह मिल गई। वहीं गडकरी जो स्वदेशी के रास्ते कभी चले नहीं और मानते भी नहीं है। पूर्ति का बाजारवाद सबके सामने है। इसी तरह मीनाक्षी नटराजन का नाम लिय़ा जा सकता है। क्या यह माना जाये कि राहुल गांधी कांग्रेसियों की राजनीति को जिस तर्ज पर मंडी में बदल कर नया आयाम देना चाहते हैं, उसमें मीनाक्षी नटराजन फिट बैठती हैं या फिर एनजीओ की तर्ज पर काम करने के तौर तरीके राहुल को भा रहे हैं। और देश का राजनीतिक मिजाज मीनाक्षी नटराजन सरीखे राहुल के करीबियो से कांग्रेस की बदलती राजनीति को देखने के लिये बेताब है। असल में यह किसी भी नाम को कहा जा सकता है कि उसका रास्ता जिस पार्टी या नेता के साथ बन रहा है उससे हटकर अगर कोई दूसरा रास्ता वह बना लेता है तो फिर उस नये रास्ते का विशलेषण भी नये तरीके से होगा। यह विश्लेषण अतीत में संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम के जरीये भी समझा जा सकता है और मौजूदा दौर में वरुण गांधी के जरीये भी परखा जा सकता है। संजय गांधी ने पुरानी दिल्ली के जिस मुस्लिम बहुल इलाके में सत्तर के दशक में हंगामा मचाया, उसे अब के दौर में बीजेपी की सियासत के सबसे अनुकूल माना जा सकता है। और वरुण गांधी अपने भाषण से जो उन्माद पैदा करते हैं, उसके चंद शब्दो को अलग भगवा से तिरंगे या कहे धर्म के बदले राष्ट्रवाद में बदल दें तो वह काग्रेस के लिये सबसे फिट भाषण हो सकता है। तो पहली नजर में यह तो तय है कि मौजूदा वक्त राजनीति को साधने के लिये राजनीतिक धारणा बनाता है और उसी आसरे देश में सत्ता का बदलना और लोकतंत्र का राग गाया जाता है।

 

लेकिन प्यादो से इतर राजनीतिक दल या नेतृत्व वाली शख्सियतों को भी मौजूदा दौर में टटोले तो कई सवाल मोदी पर जा कर ठहरते हैं। मसलन देश जब बीते दो दशको से गठबंधन की सियासत को ही देख रहा है और राष्ट्रीय राजनीतिक दल यह मान चुके हैं कि वह खुद के बूते सत्ता में आ नहीं सकते तो फिर क्या छोटा और क्या बड़ा दल। हर की अपनी भूमिका अपने घेरे में किसी दूसरे से अलग होगी नहीं। इसलिये वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम पहली बार राजनीतिक शून्यता को आईना दिखा रहे हैं। मोदी के पीछे अगर समूचा संघ परिवार एकजूट हो जाये और भाजपा के भीतर भी सहमति बन जाये की मोदी की अगुवाई ही होगी तो चुनावी समीकरण बताते हैं कि देश में मतदाताओ के बीच एक लकीर खिचेगी। जो किसी दूसरे नेता को लेकर नहीं खींची जा सकती। यानी भाजपा अगर नरेन्द्र मोदी के बगैर चुनाव मैदान में है तो भाजपा और कांग्रेस के बीच कुछ ज्यादा फर्क दिखायी नहीं देता। वहीं आर्थिक नीतियां। वही बाजारवाद। वही नौकरशाही। वहीं सियासत। वही विदेश नीति। और देश के भीतर भी हर मुद्दे को लेकर वही समझ जो कांग्रेस की है। कमोवेश तीसरे मोर्चे की समझ भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के कार्बन कापी से आगे निकलती दिखायी नहीं पड़ती। हां, तीसरे मोर्चे का मतलब बहुत सारे राज्यों की नुमाइन्दगी के साथ सत्ता का बनना होगा तो हर राज्य की राजनीति सत्ताधारी राजनीतिक दल की भूमिका में कहीं बड़ी होगी। तो दिल्ली की नीतियां हर राज्य को प्रभावित करेगी। यानी तीसरे मोर्चे का नजरिया सत्ता को बनाये रखने के लिये ही सही आम वोटरों से जुड़ा हुआ दिखायी जरुर देगा। लेकिन यह स्थिति अराजक भी हो सकती है क्योंकि राज्यों का टकराव राष्ट्रीय नीति तय कर नहीं पायेंगे। यानी घरेलू मोर्चे पर मोदी को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच जो लकीर मुसलमान और हिन्दुओं को लेकर अभी तक खींची जाती रही है, वह भी इस दौर में मिट चुकी है। क्योंकि वोट बैंक बनाने या वोट को बैंक के रुप में खड़ा करने के लिये विकास की जो नयी थ्योरी राजनीतिक तौर पर देश में परोसी गई है, उसके पीछे कॉरपोरेट लाभ और मुनाफा बनाने के थ्योरी के अलावा और कुछ है नहीं। और कॉरपोरेट पूंजी भी अब इस सच को समझ चुकी है कि राजनीतिक दल के तौर पर सरोकार की राजनीति मौजूदा दौर में ना कोई कर रहा है और ना ही करते हुये सफल हो सकता है यानी सत्ता में आ सकता है। तो कॉरपोरेट ने भी अपने प्रिय नेताओं को ही अगुवा करने का खेल शुरु किया है यानी सीट दर सीट लोकसभा उम्मीदवारों को ताड़ने में कॉरपोरेट लगातार लगा है और हर सांसद के पीछे लगने वाली पूंजी भी जब उघोगपतियों की अंटी से निकल रही है तो सत्ता समीकरण का मतलब भी सत्ता में आने के बाद उसी विकास की थ्योरी को देश की नीति में परिवर्तित करना है, जिससे लाभ चुनाव में पूंजी लगाने वालो को हो ।

 

असर इसी का है कि राजनीतिक दलो के पीछे खडा होने की जगह सत्ता सियासत में अगुवाई करने वाले नेता को ही सबसे श्रेष्ट बनाने और करार देने को ही सबसे महत्वपूर्ण बनाया जा रहा है । जिससे हर नीति पार्टी लाइन से आगे निकल कर पार्टियो की सहमती की दिशा पकड लें । और उसी सोच के अनुसार ही समूची सियासत को चलना होगा और राजनीतिक मुद्दे भी उसी घेरे में घुमेगें । याद किजिये तो पी चिंदबरम को लेकर बीते दिनो अमेरिका की नामी पत्रिका द इक्नामिस्ट ने एक रिपोर्ट फाइ की। जिसमें चिदबरंम को आने वाले वक्त का प्रधानमंत्री बताया गया। यानी एक ऐसे शख्स को राजनीतिक तौर पर सबसे श्रेष्ठ माना गया, जिसकी अपनी राजनीति उसके अपने लोकसभा क्षेत्र से बाहर किसी को प्रभावित करती नहीं है। यानी जिस चिदबंरम को बतौर मनमोहन सिंह के आर्थिक नीतियों के सिपाही के तौर पर ही राजनीतिक पहचान मिली, उसे इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह के रिटायरमेंट के बाद देश में सबसे उम्दा प्रधानमंत्री मानने से नहीं हिचकती। इसी के सामानांतर नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़े कॉरपोरेट खिलाड़ियों के राजनीतिक वक्तव्यों को भी देखना जरुरी है। नरेन्द्र मोदी के हर बरस गुजरात वाइब्रेंट के दौरान देश के टॉपमोस्ट कारपोरेट घराने खुल कर मोदी को प्रधानममंत्री के लिये सबसे उम्दा नेता करार देते रहे हैं। और यह सिलसिला 2007 से शुरु हुआ जो 2012 में मोदी की जीत की तिकड़ी के बाद कहीं ज्यादा तेज हुआ है। यानी वह मोदी जो पांच करोड़ गुजरातियों की सियासत को हिन्दुत्व और विकास की चकाचौंध से जोड़कर राजनीति का सबसे बेहतरीन कॉकटेल बनाते है, उसे सवा सौ करोड भारतीयों के लिये सबसे श्रेष्ठ नेता मान लिया जाता है। जबकि मोदी के सियासी काकटेल में ना तो 25 करोड़ मुसलमानो की जगह है और ना ही बीस रुपये प्रतिदिन पर जीनेवाले 70 करोड़ भारतीयो की। हां, मोदी का काकटेल 20 से 25 करोड़ मध्यम वर्ग की भावनाओ को जरुर प्रभावित करता है। लेकिन देश की त्रासदी देखिये कि संयोग से इतना भी प्रभाव किसी दूसरे नेता का देश में नहीं है। और भाजपा ही नहीं समूचे संघ परिवार को भी यह लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई का संसदीय राजनीति के समीकरण में पहली बार संघ के किसी प्रचारक की लोकप्रियता का चरम है। यानी जिस कांग्रेस ने हमेशा संघ परिवार पर निशाना साध कर भाजपा को सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा किया और भाजपा कभी उससे निकल नहीं पायी। ऐसे मोड़ पर पहली बार नरेन्द्र मोदी के जरीये कांग्रेस भी चाह रही है कि मोदी अगुवाई करने गुजरात से दिल्ली ये जिससे विकास के रास्ते एक लगते कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई लकीर तो खींची जाये और संघ परिवार को भी लग रहा है कि चाहे मोदी को आगे करने के उनके फैसले से कांग्रेस को राजनीतिक जीवनदान ही क्यों ना मिले लेकिन मौका यही है कि हिन्दुत्व की घुट्टी पिलाते हुये मोदी के विकास के जरीये ही सही देश के मुसलमानो के सामने भी चित-पट खा खेल खेलना होगा जिससे आरएसएस के लिये भविष्य का रास्ता तो बने चाहे कांग्रेस मोदी का विरोध कर साप्रदांयिक तौर पर देश में लकीर खींचे। यानी जिस नरेन्द्र मोदी की पहचान गुजरात को हिन्दुत्व की सावरकर स्टाइल वाली प्रयोगशाला के जरीये पहचान मिली। वहीं नरेन्द्र मोदी विकास और बाजार की थ्योरी तले काग्रेस के अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को चुनौती देते हये काग्रेस से एक कदम ना सिर्फ आगे दिखायी देने लगे है बल्कि कारपोरेट और बाजार की आवारा पूंजी के भी नायक लगने लगे है। यानी जिस मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ऐसे मोड़ पर आ खडी हुई, जहां देश के भीतर राजनीतिक बदलाव की बयार बहने लगी और कांग्रेस की नीतियां ही मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र से बार बार हार गई। वहां पहली बार नरेन्द्र मोदी के विकास की थ्योरी को विकल्प मानने और बनाने की तैयारी में वहीं कॉरपोरेट और खुला बाजार है, जिसके भरोसे मनमोहन सिंह ने यूपीए-1 का बेड़ा पार किया और यूपीए-2 के दौर में उसी कारपोरेट और खुले बाजार की चलनी बंद हो गई। तो क्या राजनीतिक विकल्प में मोदी कारपोरेट और खुले बाजार के नायक हो चुके हैं। या फिर संघ परिवार को लगने लगा है कि जिस स्वदेशी जागरण मंच के आसरे उसने अयोध्या आंदोलन के दौर में आर्थिक विकल्प की बात की । लेकिन सत्ता में आने के बाद जब उसके अपने स्वयंसेवक ही पलट गये। स्वदेशी की सोच आर्थिक सुधार नीति के ट्रैक -2 के तहत और किसी ने नहीं वाजपेयी सरकार के दौर में वित्त मंत्री यशंवत सिंन्हा और जसंवत सिंह ने ही पलटा। क्योंकि उन्हें भी सत्ता में बने रहने के लिये उसी पूंजी की जरुरत थी जो पूंजी मौजूदा वक्त में मोदी के पीछे खड़ी है। इसलिये आरएसएस इस हकीकत को जानता – समझता है कि मोदी विकास की कितनी भी बात कर लें आखिर में उन्हे संघ के प्रचारक वाली भूमिका में आना ही होगा जैसे गुजरात मे नजर आये। और वाजपेयी के राजघर्म की परिभाषा को भी संघ ने सदा वतस्ले के तहत खारिज कर मोदी की सत्ता बरकरार रखी।

 

अब सवाल है कि क्या देश की राजनीति वाकई ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां काग्रेस की सत्ता के विकल्प के तौर पर गुजरात के मोदी को देखा जा रहा है । ध्यान दें तो मोदी का कद भाजपा से बड़ा हो चुका है और संघ परिवार मोदी में स्वयंसेवक को नायक बनता हुआ देख रहा है। यानी भाजपा विकल्प नहीं है विकल्प मोदी हैं। इसलिये चुनावी गुणा-भाग भी मोदी के हक में जा रहा है। क्योंकि पहली बार कांग्रेस को और कोई राहुल गांधी मथना चाह रहे हैं। यानी जो गांधी परिवार हमेशा खुद को कांग्रेस से बड़ा मानता रहा, उस गांधी परिवार के नये नायक काग्रेस के जरीये अपनी सत्ता बनाने की राह पकडने की जद्दोजहद में लगे हैं। दूसरी तरफ गांधी परिवार की तर्ज पर नरेन्द्र मोदी खुद में भाजपा को देखना चाह रहे हैं। और यह समीकरण कांग्रेस के लिये भी फिट है और संघ परिवार के लिये भी। कांग्रेस के लिये मोदी का नायक बनना उसके अपने पारंपरिक वोट बैंक का जुड़ना है। कांग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि देश की सियासी रीजनीति में पहली बार क्षत्रपों की भूमिका ना सिर्फ गठबंधन की जरुरत है बल्कि जितने मुद्दे मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था ने खड़े कर दिये हैं, उसमें उसकी राष्ट्रीय छवि अब फिट बैठती नहीं है क्योंकि भूमि के सवाल पर किसान उसके खिलाफ हैं। जंगल कटने के नाम पर आदिवासी उसके खिलाफ हैं। खनन से लेकर पावर इंडस्ट्री तक के दायरे में किसान, मजबूर, आदिवासी और ग्रामीण सरकारी मुआवजे पर आ टिके हैं। और यह सारी आर्थिक नीतियां जो 2004 में शुरु हुई वह गुब्बारे की तरह 2009 तक तो फुलती रही लेकिन उसके बाद भ्रष्टाचार और महंगाई ने इस गुब्बारे की हवा निकाल दी है। और जो काम या कहे जो फाइलें यूपीए -1 के दौरान मनमोहनइक्नामिक्स पर सवार होकर रफ्तार पकड़े हुये थी, वह यूपीए-2 में हर नौकरशाह की टेबल पर रुकी पड़ी है। कोई बाबू किसी फाइल पर चिडिया बैठाने से इसलिये कतराने लगा है क्योंकि जिस अर्थनीति को पहले राजनीति का आसरा था अब वही अर्थनीति राजनीतिक कठघरे में खड़ी है। आईपीएल से लेकर कोयला घोटाला। गेहूं की खरीद या बासमती चावल के निर्यात का घोटाला। यूरिया से लेकर एस बैंड तक का मामला और 2 जी से लेकर हेलीकाप्टर का घोटाला। हर दायरे में राजनेता, नौकरशाह और कारपोरेट का काकटेल ही सामने आया। और इसी दौर में जांच एंजेंसियों की जांच तक पर और किसी ने नहीं सुप्रीम कोर्ट तक ने अंगुली उठायी। यानी 21 सदी में जो भारतीय बाजार मनमोहन सिंह की इक्नॉमिक्स के जरीये दुनिया के लिये दरवजे खोल रहा है और देसी करपोरेट इसी दौर में मुनाफा बना कर बहुराष्ट्रीय बन गया , उसमें मौजूदा दौर में ब्रेक लगी है। क्योंकि चुनावी राजनीति के दायरे हर राजनीतिक दल को यह एहसास हो चला है कि यह वक्त चंद हथेलियों में तो सिक्के भर रहा है लेकिन बहुंसंख्यक तबके के हाथ खाली हैं। और जिन हथेलियों पर सिक्के भर चुके हैं, अब उसे इसी देश में जीने के दौरान तंगी महसूस होने लगी है क्योकि आधारभूत इन्फ्रस्ट्क्चर ही गायब है। पढे-लिखे युवा बेरोजगार तबके का आंकडा बढ़ रहा है और उसमें आक्रोश पनप रहा है। लेकिन इससे ज्यादा आक्रोश उस युवा में है जो रोजगार पाये हुये है। बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहा है लेकिन देश बिना भ्रष्टाचार कोई काम ना होते हुये देख देख कर परेशान है। बढ़ते बाजार में खुद को बीपीओ से लेकर किसी कॉफी शाप तक में खपाने वाले युवा तबका संसद के भीतर की सतही बहस से लेकर नीतियों के अमलीकरण के दौरान होती सियसत से गुस्से में है। मुश्किल यह है कि पहली बार राजनीति के प्रति घृणा और राजनेताओं को लेकर आक्रोश है लेकिन राजनीतिक विकल्प ने के तौर तरीके भी वहीं हैं, जिसकी वजह से गुस्सा है।

 

अन्ना हजारे से लेकर अरविन्द केजरीवाल यानी सामाजिक आंदोलन से लेकर राजनीतिक दल को लेकर विकल्प बनाने से लेकर विकल्प बनने को लेकर बहस ने बार बार मौजूदा व्यवस्था में उन्हीं नेताओं के लिये जमीन बना दी जो आंदोलन के दौर में जमीन खोते नजर आ रहे थे। मसलन नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह यादव, जयललिता , मायावती से लेकर भाजपा के क्षत्रप [शिवराज चौहान, रमन सिंह, मोदी ] राष्ट्रीय राजनीति के नायको से अच्छे लगने लगे। जबकि सभी क्षत्रपों की सफलता की कुंजी कांग्रेस की जोड़ तोड वाली राजनीति और मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स के ही दायरे में सिमट कर अपने अपने अनुकूल राजनीतिक जमीन बनाने में जुटी रही। विकास दर के आईने में राज्य की अर्थव्यवस्था को परखना और जातीय समीकरण के दायरे में राजनीतिक सफलता पाना मौजूदा राजनीति की जरुरत बनी है। और सफलता दर सफलता का मतलब सिवाय चुनाव जितने के रास्ते को बनाने के अलावा और कुछ है नहीं । तो विपक्ष की भूमिका भी चुनाव जीतने के हथकंडों के जुगाड़ में ही खोयी है।

 

इसीलिये यह मुदद्दा देश की बहस से गायब है कि दुनिया के सबसे बड़े बाजार में बदलते भारत में बीपीएल परिवारों को अन्न मुफ्त में देना या दो रुपये किलों के हिसाब से बांटना जरुरी क्यों है। क्यों विकसित होते भारत में बिना विजन के साढे चार हजार करोड़ के मनरेगा के जरीये जमीन पर मिट्टी खोदना और दस्तावेजो में कालम भरना भर ही विकास का रोजगार हो चला है। और उसमें भी भ्रष्टाचार होने पर सीधे बैंकों के जरीये नकद की व्यवस्था हर गरीब के हाथ करा देना आखरी तरकश क्यों है। और इसी के सामानातर क्षत्रपो की राजनीति भी देश के संविधान का माखौल उड़ा कर संविधान से मिलने वाले हर अधिकार को अपने चुनावी घोषणापत्र में डालकर ठहाका लगा कर यह ऐलान करने से नहीं से नहीं चूक रही है कि वह सबसे ज्यादा जनहित के बारे में सोचती हैं। तो क्या मौजूदा वक्त में देश का मतलब ही सत्ता चुनाव हो चुका है। संसद से सड़क तक जो भी नीतियां बनें या जो भी जन-आंदोलन खड़े हों उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता पाना ही हो चला है। और चूकि सत्ताधारियों ने ही देश को पटरी से उतारा है और सबकुछ सत्ता में समेट दिया है तो सत्ता पाने के बाद ही देश को पटरी पर लाया जा सकता है। बिना उसके संघर्ष का मतलब है सत्ता के निशाने पर रहना और सीबीआई से लेकर थाने के पुलिस वालो के सामने घुटने टेकते रहना। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त इसका गवाह है कि देश राजनेताओं, नौकरशाहो और कारपोरेट घरानों में सिमटा हुआ है। यह तीनो स्तंभ सत्ताधारी हैं। यानी जो सवाल आजादी के बाद संसदीय राजनीति के जरीये जोड़े गये और लोकतंत्र का गान किया गया वही सवाल साठ बरस बाद राजनेताओं और राजनीतिक दलों से जोड़ दिया गया है। और चुने गये नेता को ही लोकतंत्र का सबसे सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ मान कर देश की पहली और आखिरी जरुरत मान लिया गया है। संयोग से मौजूदा दौर में आक्रोश लोकतंत्र के इसी नेता गान को लेकर है।