दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है

दिल्ली की गद्दी के लिये २०१४ में एक बार फिर चुनावी जंग होने वाली है । पिछली दो लड़ाइयों में इस गद्दी पर इतालवी मूल की सोनिया गान्धी , जिसकी सास और पति प्रधानमंत्री रहे हैं , ने आधिपत्य जमा रखा है । वोटों के बहुमत से नहीं बल्कि वोटों की शतरंज से । ताज्जुब हैं उन्होंने इटली से आकर भी भारतीय राजनीति की भीतरी कमजोरियों के सभी सूत्र कंठस्थ कर लिये और कांग्रेस के अल्पमत में रहते हुये भी दिल्ली की सत्ता पर बराबर नियंत्रण किये रखा । लेकिन इसी देश की मिट्टी के खाँटी राजनीतिज्ञ , जिनके पूर्वजों ने राजनीति के चाणक्य सूत्रों की रचना की , उन सूत्रों को भूल गये । यही कारण है कि सोनिया गान्धी भारतीय राजनीति की नीति नियंत्रक बन बैठीं और इस देश के राजनीतिक उनके दरबारी । शायद इसीलिये चर्चा शुरु है कि २०१४ की जंग सोनिया गान्धी कभी जीत नहीं सकतीं , लेकिन यदि भाजपा जीतना ही न चाहे तो जनता बेचारी क्या करे ? उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के हुये विधान सभा चुनावों में भाजपा की स्वयं ही न जीतने की यही प्रवृत्ति झलकती है । इस परिप्रेक्ष्य में ही २०१४ में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा की उत्तरप्रदेश को लेकर की जा रही तैयारियों की समीक्षा करनी होगी । भारत का इतिहास गवाह है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता अन्ततः उत्तर प्रदेश के गंगा यमुना के मैदानों में से होकर ही जाता है ।

भाजपा की बागडोर इस कठिन समय में उत्तर प्रदेश के ही राजनाथ सिंह के पास है , जो स्वयं इन्हीं मैदानों के खिलाड़ी हैं , यह पार्टी के लिये  के लिये एक अतिरिक्त राहत की बात हो सकती है । सिंह धरातल से जुड़े हुये नेता तो हैं हीं साथ ही जोड़ तोड़ की राजनीति करने की बजाय , सीधे जनता की राजनीति करने में विश्वास करते हैं । लेकिन इस के बावजूद उत्तर प्रदेश की ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता । पिछलेकुछ दशकों से प्रदेश की राजनीति समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच सिमट चुकी है । भारतीय जनता पार्टी और सोनिया कांग्रेस एक प्रकार से हाशिये पर जा चुकी हैं । पिछले विधान सभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही प्रदेश की राजनीति के मुख्य अखाड़े में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की कोशिश की थी । कांग्रेस को तो इसमें राहुल गान्धी के पूरे प्रयासों के बाबजूद सफलता नहीं मिली लेकिन भाजपा अपना क़िला किसी हद तक बचाने में कामयाब हो गई थी । लेकिन उसका ज़्यादा श्रेय नितिन गडकरी की उस रणनीति को ही जाता है , जिसके तहत उन्होंने संगठन का काम परोक्ष रुप में संजय जोशी को सौंप दिया था । उमा भारती ने जहाँ ज़मीनी कार्यक्रताओं में उत्साह का संचार कर उन्हें पुनः मैदान में आने के लिये प्रेरित किया , वहीं संजय जोशी ने संगठन के क्षरण को रोकने में सफलता प्राप्त की । इस आधार भूमि पर यदि भाजपा अपनी २०१४ की रणनीति बनाती है , तो निश्चय ही सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं । राजनाथ सिंह ने उत्तरप्रदेश से वरुण गान्धी को महासचिव बना कर एक नया प्रयोग किया है । वरुण गान्धी पिछले कुछ अरसे से , ख़ास कर उत्तर प्रदेश में , युवा पीढ़ी में चर्चा का विषय बने हुये हैं । प्रचार की उनकी आक्रामक शैली उनका अतिरिक्त गुण मानी जा सकती है । यह निश्चित है कि सोनिया गान्धी चुनाव में राहुल गान्धी को पूरे ज़ोर शोर से मैदान में उतारेंगी ही । वरुण गान्धी उसका भाजपाई तोड़ बन सकते हैं ।

अमित शाह को राजनाथ सिंह द्वारा उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाये जाने से मीडिया में अनेक प्रकार के क़यास लगाने का काम शुरु हो गया है । परन्तु जो अमित शाह को नज़दीक़ से जानते हैं , वे उनकी संगठनात्मक क़ाबलियत से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं । वे हवाई या वातानुकूलित संस्कृति के कार्यक्रता नहीं हैं । वे उतर प्रदेश में पार्टी को पटरी पर ला सकते हैं । लेकिन राजनाथ सिंह को प्रयास करना चाहिये की उन के साथ संजय जोशी की पटरी बिठाई जाये । एक भीतरी सूत्र के अनुसार , उत्तर प्रदेश संजय जोशी की हथेली पर फैला हुआ प्रदेश है । वे वहाँ की हर धड़कन अपनी हथेली पर से ही सुन सकते हैं । भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश की यह लड़ाई हर प्रकार से जीवन मरण का प्रश्न है , क्योंकि इन चुनावों के बाद सोनिया कांग्रेस और भाजपा में से अब एक ही टिक पायेगा । दोनों में से एक हाशिये पर ही लम्बे काल के लिये सिमट जायेगा , जिस प्रकार बिहार के ध्रुवीकरण में कांग्रेस सिमट चुकी है । इसलिये ज़रुरी है कि भाजपा अपने किसी एक भी सेनापति को घर न बिठाये रखे । घर की लड़ाई का दुष्परिणाम भाजपा पहले ही हिमाचल , उत्तराखंड और कर्नाटक में भुगत ही चुकी है । आपस में लड़ाई का शौक़ पार्टी किसी दूसरे समय के लिये स्थगित कर सकती है । फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में उसकी ज़रुरत सभी को साथ लेकर चलने की ही है , फिर चाहे वे कल्याण सिंह हों , उमा भारती हो या फिर संजय जोशी हों । प्रदेश में राजनीति का ध्रुवीकरण हो चुका है , उसमें सपा और बसपा के बाद विकल्पहीनता की स्थिति आ चुकी है । लेकिन जहाँ तक प्रशासन का सम्बध है , आम आदमी को दोनों में अब अन्तर बहुत कम दिखाई देता है । राज्य में प्रशासकीय अराजकता , जातिवाद के खाद पानी से फैल चुकी है । यदि इस बार भाजपा , प्रदेश की जनता के सामने , अपनी एकजुटता का प्रदर्शन कर , अपनी विश्वसनीयता स्थापित कर सके , तो सपा से निराश लोग किसी सीमा तक भाजपा की ओर भी आ सकते हैं । भाजपा को उत्तर प्रदेश में अपनी आगामी रणनीति इन्हीं सीमा रेखाओं को ध्यान में रखकर बनानी होगी और उसी के अनुरुप चेहरों का चुनाव करना होगा । गंगा यमुना के इस प्रदेश में दिल्ली की गद्दी के लिये लड़ी जा रही जंग में , राजनीति की शतरंज पर भाजपा को अपना हर मोहरा अतिरिक्त सावधानी से चलना होगा । शतरंज के खिलाड़ी जानते हैं चौसर पर एक भी मोहरा ग़लत चलने से , जीती हुई बाज़ी भी हाथ से निकल जाती है ।