गफलत में केजरीवाल

हाल ही में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के जितने भी संबोधन अथवा साक्षात्कार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या अखबारों के माध्यम से प्रसारित हुए हैं, उनमें कमोबेश एक समानता रही है| समानता इस मायने में कि केजरीवाल का कहना है कि देश में १६वीं लोकसभा की उम्र मात्र एक वर्ष की होगी और सम्भवतः उसके बाद ही देश को स्थिर सरकार मिलेगी। केजरीवाल की इस स्पष्टवादिता को वे खुद ही साबित कर सकते हैं कि आखिर इस भविष्वाणी के पीछे उन्होंने क्या राजनीतिक गणित लगाया?

यह भी संभव है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद सरकार गठन और उससे उत्पन्न परिस्थितियों को न संभाल सकने के चलते आप की देशव्यापी लोकप्रियता में जो कमी आई है उसके बाद केजरीवाल को लगने लगा है कि उनकी पार्टी का आसन्न लोकसभा चुनाव में पुराने प्रदर्शन को दोहरा पाना असंभव ही है| तभी वे स्थिर सरकार न आने के शिगूफे छोड़ रहे हैं ताकि दिल्ली की ही तरह पूरे देश की जनता उनके झांसे में आए और अपना मानस बना ले। पर माफ़ कीजिएगा केजरीवाल जी, देश की जनता मूर्ख नहीं है (भले ही एक सज्जन ने देश की ९० प्रतिशत जनता को मूर्ख कहा था)। यही जनता आज भी भारत देश में लोकतंत्र को जिंदा रखे हुए है।

वर्तमान आर्थिक दौर में देखें तो एक आम चुनाव लगभग ३० हज़ार करोड़ रुपए में संपन्न होता है। यह धनराशि न तो चुनाव आयोग खर्च  करता है और न ही राजनेताओं की जेब से इसे निकाला जाता है| यह धन होता है आम जनता के खून-पसीने की कमाई का। यही आम जनता लोकतंत्र को बनाती है। तब आप जैसे नेता यदि यह कहें कि देश को स्थिर सरकार नहीं मिलने वाली, देश को एक और आम चुनाव का सामना करना होगा; तो यह न्यायोचित नहीं जान पड़ता। मान भी लें कि देश को स्थिर सरकार नहीं मिलेगी तो क्या जो चुनाव होंगे उसमें धन का अपव्यय नहीं होगा? इतिहास गवाह है कि जब-जब देश में चुनाव निवृत्त हुए हैं, महंगाई सुरसा के मुंह की भांति जनता को लीलती रही है। यदि आम जनता या यूं कहें कि आम आदमी (जैसा कि आपकी पार्टी का मात्र नाम है) बार-बार चुनावों के भंवरजाल में फंसता रहा तो क्या उसका विश्वास लोकतंत्र से नहीं डिगेगा? शायद ‘आप’ का राष्ट्रीय एजेंडा ही लोकतंत्र से देश की जनता की आस्था को डिगाना है किन्तु यह इतना आसान भी नहीं है। आखिर ‘आप’ कौन सी राजनीतिक चेतना को देश में लाना चाहती है? मैं ईमानदार-बाकी सब बेईमान का नारा वीपी सिंह ने भी देने की कोशिश की थी और देश की जनता उनके बहकावे में आकर भूल कर बैठी थी किन्तु वीपी सिंह का क्या हुआ, सब जानते हैं| राजनीति में कोई पूर्ण ईमानदार नहीं होता| आंशिक बेईमानी तो जनता भी जानती-समझती है| फिर बोलने से भी कोई ईमानदार नहीं हो जाता| यदि ‘आप’ को अपनी छद्म ईमानदारी और साफगोई का इतना ही अभिमान है तो नेता विशेष पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करने की बजाए देश की आम जनता को आने वाले कल के बारे में अपने विचार बताएं| देश कैसे महाशक्ति बन सकता है, उसके विषय में जनता को जागरूक करें| शत-प्रतिशत मतदान हेतु आम जनता को प्रोत्साहित करें किन्तु ‘आप’ तो देश की राजनीतिक फ़िज़ा में ज़हर घोलने का कार्य कर रही है| स्थिर सरकार न मिल पाने का जो शिगूफा ‘आप’ ने छोड़ा है, उसपर निर्वाचन आयोग को संज्ञान लेना चाहिए|

 

केजरीवाल के राजनीति में तर्क-वितर्क ऐसे हैं मानों कोई बच्चा अपनी मां से रूठा हो और मां उसे मनाने की कोशिश कर रही हो। जनाब यह राजनीति है। अर्थात राज करने की नीति। इसमें साम, दाम, दंड, भेद सभी की खुली छूट है और यदि आपको लगता है कि आप भावनात्मक और लच्छेदार भाषा से जनता को खुद की ऒर कर लेंगे तो माफ़ कीजिएगा, यह आपकी भूल होगी। जैसे भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, उसी तरह राजनीति के मैदान में जनता का भी कोई ईमान नहीं होता| जिस ईमानदारी की केजरीवाल कसमें खाते हैं उनकी प्रामाणिकता पर कई दफे सवालिया निशान लग चुके हैं। सरकारी नौकरी से राजनीति में आए जयप्रकाश नारायण और उनकी पार्टी लोकसत्ता की ईमानदारी पर किसे शक होगा किन्तु मीडिया से लेकर तमाम माध्यमों में उसकी चर्चा ही नहीं होती। चूंकि ‘आप’ ने राजनीति के मैदान को सर्कस में तब्दील कर दिया है लिहाजा उसकी चर्चा भी है और प्रसिद्धि भी| पर जैसे सर्कस के करतबों की उम्र होती है उसी तरह ‘आप’ भी अपनी जवानी देख पाए, इसमें संशय है। पर मीडिया के तबके से लेकर कुछ अति-समझदार पत्रकारों की एक जमात ने ‘आप’ को जितना सर चढ़ाया है, उसका ही नतीजा है कि इनकी बयानबाजी देशहित की सीमाओं को लांघती जा रही है। ‘आप’ निश्चित रूप से भ्रमित हैं मगर देश की जनता अपने होशो-हवास में है क्योंकि उसे राजनीति करनी नहीं है, राजनेताओं की नियति लिखनी है| देश की जनता इस बार स्थित सरकार देगी और अवश्य देगी ताकि ‘आप’ जैसे विखंडियों को आम आदमी का अर्थ और उसकी लोकतंत्र में ताकत का अंदाजा हो जाए।