क्योंकि देश गुस्से में है…

बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जुझते हुये है। खास लोगों की बैचेनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने के लिये और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिये बैचेन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है। केजरीवाल जान हथेली पर रख फर्रुखाबाद से सत्ता को चुनौती देते हैं। सत्ता की पीठ पर सवार राहुल गांधी राजनीति के बंद दरवाजों को आम आदमी और कमजोर के लिये खोलने की गुहार लगाते हैं। नीतिन गडकरी मुस्कुराते हुये नागपुर से सत्ता का हु तू तू दिखलाते हैं। मनमोहन सिंह के इंडिया पर खामोशी बरतते हुये सोनिया गांधी को कांग्रेस में भारत नजर आता है। और मनमोहन सिंह हर कर्म-धत् कर्म के लिये सोनिया गांधी के नेतृत्व का जिक्र कर अपने होने ना होने की परिभाषा गढ़ते हैं। हर के सामने आम आदमी ही है और हर के पीछे खास सत्ता ही है। खास सत्ता उसी पूंजी पर टिकी है, जिसे विदेशी निवेश के नाम पर कांग्रेस लाना चाहती है। और वह विदेशी पूंजी ही है जो एनजीओ के जरीये देश के गुस्से को बदलाव के मंत्र में बदल व्यवस्था परिवर्तन का सपना संजो रही है। बिना पूंजी ना सत्ता चल पा रही है और ना ही विरोध के स्वर पूंजी बिना गूंजने की स्थिति में हैं। और विदेशी पूंजी से छटपटाता मीडिया भी इसी गुस्से में व्यवसाय की पत्रकारिता का नया पाठ याद कर रहा है। तो फिर आम आदमी की बैचेनी और उसके गुस्से रास्ता जाता किधर है।

 

आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणो के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब बदलाव और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरुरी सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। और वही आवाज सबसे तेज सुनायी दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सर्विस सेक्टर से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरुरत को जुगाड़ने के लिये भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ ना कुछ डाल कर ही जिये जा रही है। गुस्से का सवाल का सवाल पहली बार तिभागा से नक्सबाडी और सिंगूर से लालगढ या बस्तर के संघर्ष से नहीं जुड़ रहा बल्कि शहरी और खाये-पीये अघाये लोगों को संघर्ष के लिये खड़ा करने से जुड़ रहा है। इसलिये संघर्ष का रास्ता जमा-भाग हथेली पर समाने वाले चंद रुपयों की संपत्ति समेटे अन्ना हजारे से निकल कर इसी व्यवस्था में करोड़ों की सफेद संपत्ति बटोरे लोगों का भी हो चला है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगाकर व्यवस्था बदलाव का सपना जगा रहा है। पत्रकार,शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनर मंद मान चुके है कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाये तो चोर व्यवस्था बदल जायेगी। व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वाड्रा हो या मुकेश अंबानी या फिर नीतिन गडकरी हो या शरद पवार इनके भ्रष्टाचार की कहानी के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागेदारी कहा कैसे

होगी, जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा। और सियासी घमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के खिंची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिये आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखला कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरिया बढ़ रही हैं। क्योंकि सवाल उस जमीन को खड़े आम लोगो के गुस्से का नहीं है, जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में हर कोई बार बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका

जीवन है। और पीढि़यो से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर खोखला बनाने की विकास नीति चौमुखी तौर पर स्वीकार कर ली गई है।

 

सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन आधुनिक धारा में वहीं संस्थान लोकतंत्र को भी खरीद-बेच कर धनतंत्र में बदल गये। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संसदीय धारा आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा गुलाम बना कर मुंह के कौर को भी छीनने पर आमादा है। क्या पेट में समाये इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा बिल और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों के खोलने से खत्म किया जा सकता है। क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार व्यवस्था में गंवाने या पाने की तिकड़मो को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्यों वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा, जिसने कानवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरु कर दिया। या फिर लुटियन्स की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता हुआ तीर चमकते हुये सूरज सरीखा दिखायी देता है। गुस्से और आक्रोश को भुनाने या शांत करने के उपाय तो शहरी मिजाज इस रास्ते देख सकता है। लेकिन गुस्सा और आक्रोश है क्यों। क्या शहरी संघर्ष का रास्ता इसे समझ पा रहा है या फिर जो गुस्सा दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान पर हर कोई दिखाने को आमादा है वह अपने बचने के उपाय तो नहीं खोज रहा। कही अपराध करने के बाद खुद को अपराधी कहलाने से बचने के लिये गुस्सा पालने का नाटक तो नहीं हो रहा। और गुस्से गुस्से के खेल में व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगा कर असल गुस्से से बचने का ढाल ही गुस्से को तो नहीं बनाया जा रहा है। क्योंकि वह कौन सी वजहे हैं, जिसमें सफेद कमाई और काली कमाई के बीच आम आदमी अंतर समझ नहीं पा रहा है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की जमात जो संघर्ष करते हुये सड़क पर दिखायी देने लगी है, वह सफेद कमाई से ही औसतन पचास करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक है। जो शिक्षक गुस्से में हों, उसकी संपत्ति औसतन पांच करोड़ की है। जो पत्रकार गुस्से में है और स्क्रीन पर चिल्लम पौ करते हुये व्यवस्था बदलाव के नारे में हक का सवाल जोड़ रहा है। संवैधानिक कायदों को बता रहा है, उसकी संपत्ति करोडो में है। जो बाबू , जो डाक्टर, जो इंजीनियर और जो सामाजिक संस्था चलाते हुये संघर्ष के रास्ते निकले है उसकी दस्तावेजी कमाई चाहे करोड़पति वाली ना हो लेकिन उनके पीछे करोड़ों रुपये का ऐसा रास्ता है, जो उनकी सहुलियतों और उनके संघर्ष से उपजती सत्ता के पीछे सबकुछ झौकने के लिये तैयार है। यानी सुविधाओ की पोटली बांध कर संघर्ष करते हुये पेट के गुस्से को अपने अनुकुल परिभाषित करने को क्या व्यवस्था परिवर्तन माना जा सकता है। कहीं व्यवस्था की परिभाषा भी तो इस दौर में नहीं बदल दी गई। क्योंकि देश का बजट, देश की विकासमय नीतियां और देश के बाजार या विकास दर अब देश के नागरिकों पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर टिके हैं। उपभोक्ताओं के लिये जल, जंगल, जमीन, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा से लेकर सघर्ष का पाठ ही देश का सच मान लिया गया है। पानी के नीतिकरण में लूट, शिक्षा के भौतिकरण में लूट, स्वास्थय सेवा को बीमाकरण और रोजगार से जोड़ने में लूट। जंगल, जमीन और खनिज संपदा के खनन में लूट।

 

यानी व्यवस्था के उस खांचे में ही लूट जिसे एक खास तबके के लिये एक खास तबके के जरीये ही बनाया-लूटा जा रहा है। तो फिर इस लूट को सामने लाने का संघर्ष भी लूट के उपभोग को करने या ना कर पाने की मशक्कत से ही जुड़ा होगा। यानी कहीं संघर्ष और गुस्से को उपभोक्ता संस्कृति के जरीये नागरिकों से छीन कर उपभोक्तोओं के हाथ में तो नहीं दिया जा रहा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने में रोड़ा अटका रही है, जो उपभोक्ता हैरान परेशान हैं, वो सडक पर अपने गुस्से का इजहार करने के लिये जमा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने के साधन अब भी जुटा सकने में सक्षम है वह बेखौफ है। वह सत्ता के संघर्ष में अपने गुस्से का इजहार करने से नहीं चूक रहा। उसका सघर्ष या उसका गुस्सा सीधे सत्ता पर काबिज ना हो पाने का है। उसे संसदीय लोकतंत्र में उपभोक्ता तंत्र ही दिखायी दे रहा है। कॉरपोरेट हो या नौकरशाही। कांग्रेस हो या बीजेपी। पावर-खनन से जुड़े घराने हों या मीडिया घराना इनके बीचे संघर्ष या गुस्सा इसी बात को लेकर है कि सत्ता पाने चलाने में तो वह भी सक्षंम है फिर वह बाहर क्यों हैं। और सत्ता का मतलब ही जब उपभोक्ताओं का देश चलाना हो गया है, तब संघर्ष भी उपभोक्ताओं का ही होगा। और व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर उस आम आदमी के गुस्से उसके संघर्ष का देखेगा समझेगा कौन जहां रोटी-कपडा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य पहुंचता ही नहीं है। यह तादाद उपभोक्ताओं के संघर्ष से चार गुना ज्यादा है। और गुस्सा उसके पेट से बारुद में समाने को तैयार है। बस सवाल संस्थानों के ढहने का है। संयोग से उपभोक्ताओं का संघर्ष पहली बार इसमें मददगार है, क्योंकि अब न्याय अदालतों की जगह सड़क पर होगा, यह नारे शहरों में लगने लगे हैं। राबर्ट वाड्रा को बिना जांच क्लीन चीट दे दी गई। गडकरी की जांच हुई नहीं। अंजलि दमानिया की जांच रिपोर्ट भी जनलोकपाल दे नहीं पायी है। सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों की जांच के बीच ही राजनीतिक दोन्नति प्रधानमंत्री ने ही दे दी। संघर्ष करते केजरीवाल भी खुला ऐलान करने लगे है कि अदालत जाने का कोई मतलब नहीं है। न्याय जनता करे। यानी अगर अदालतें या कानून इसी तरह ढहेंगी तो फिर संघर्ष के तौर तरीको में कोई गैरकानूनी या गुनहगार होगा नहीं। सब कुछ राजनीतिक फैसले पर टिकेगा। तो इंतजार इसी का करें या अब भी संभल जायें। सोचिएगा जरा क्योंकि देश गुस्से में है।