क्या सचमुच अब चाय के ठेले पर छोटू नहीं मिलेगा?

केंद्र सरकार ने चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध को हरी झंडी दे दी है। इस नियम का उल्लंघन करनेवाले को अब अधिकतम तीन साल की सजा हो सकती है जबकि 50 हजार रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है।

बाल श्रम कानून में प्रस्तावित संशोधन को मंजूरी के साथ ही बाल श्रम अब संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आ जाएगा। अब तक सिर्फ खतरनाक उद्योग-धंधों में १४ साल से कम उम्र के बच्चों से काम कराने पर प्रतिबंध था। अब यह सभी तरह के उद्योगों पर लागू होगा। साथ ही खतरनाक उद्योगों में काम करने वालों की न्यूनतम उम्र १८ साल कर दी गई है। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम कानून में प्रस्तावित संशोधन शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किया गया है, जिसमें १४ साल तक के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है। ऐसे में वह किसी कार्यस्थल पर काम नहीं कर पाएंगे। २००१ की जनगणना के मुताबिक देश में करीब सवा करोड़ बाल मजदूर थे जबकि २००४ के नेशनल सैंपल सर्वे में इनकी संख्या लगभग ९० लाख होने का अनुमान जताया गया था। केंद्र सरकार का बाल श्रम रोकने का फैसला यक़ीनन स्वागतयोग्य है किन्तु बात जब इसके क्रियान्वयन की आएगी तब इस कानून की क्या गत होगी, आप और हम समझ सकते हैं| ऐसे न जाने कितने ही परिवार हैं जिन्हें बाल श्रमिक पाल रहे हैं|

पूर्व में भी जब बाल श्रमिकों को काम देने या उनकी सेवाएं लेने पर पाबंदी की बात उठी थी तो उसका ख़ास असर नहीं दिखा था| फिर एक-डेढ़ करोड़ बाल श्रमिकों को यदि कानून का भय दिखलाकर श्रम से बेदखल भी कर दिया तो उनके व परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा किसके सर माथे होगा? जिस शिक्षा के अधिकार कानून के तहत बाल श्रम कानून में संशोधन किया गया है, उसका हाल भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। एक तो पढ़ाई हेतु विद्यालयों की संख्या कम है, उसपर से देश की मौजूदा शिक्षा प्रणाली के क्या कहने, ऐसे में बाल श्रमिक यदि विद्यालयों का रुख करें तो उनकी शिक्षा कैसे व किस पर निर्भर होगी? यकीन मानिए, मैं बाल श्रम के पक्ष में बिलकुल नहीं हूँ अपितु मैं तो यह चाहता हूँ कि केंद्र सरकार मात्र कानून बनाने या उनमें संशोधन करवाने से इतर उनके क्रियान्वयन हेतु प्रयासरत हो ताकि कानून का लाभ उचित समूह को प्राप्त हो सके। मात्र कानून बनाकर केंद्र सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान सकती| यदि उसने बाल श्रमिकों के भावी कल को देखते हुए बाल श्रम अधिनियम में संशोधन किया है तो उसके दूसरे तथा अतिसंवेदनशील पक्ष पर भी योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ना होगा और मुझे आशंका ही नहीं पक्का विश्वास है कि सरकार के पास भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए कोई रोड मैप नहीं है| क्योंकि ऐसा होता तो बाल श्रम जैसी स्थिति से देश को शर्मसार नहीं होना पड़ता।

 

आप कहीं भी, किसी भी शहर के किसी भी गली या चौराहे पर नज़र डालें, समाज में बाल श्रमिकों की अधिकता का आपको भान हो जाएगा| कुछ समय के लिए तो यह प्रतीत होगा कि यदि इनको काम से वंचित कर दिया जाए तो बाजार की सूरत ही बदल जाएगी। दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा हो चुका है कि मानवीय संवेदनाओं के लिए स्थान ही नहीं बचा है, यदि ऐसा होता तो एक अधेड़ या युवा अपने जूते ८-९ साल के बच्चे से नहीं पुछवाता या किसी ठेलानुमा होटल पर कोई गलती होने पर किसी बच्चे को मार नहीं पड़ती। सारा मसला यहाँ हमारी संवेदनाओं व संस्कारों का है। बाल श्रम यक़ीनन देश की छवि को नुकसान पहुंचता है किन्तु राजनीतिक विकृतियों ने देश की जो दुर्गति की है उसके लिहाज से इसका खात्मा इतनी जल्दी संभव भी नहीं है।

खैर बाल श्रम के नफे-नुकसान से जुड़े कई पक्ष है लेकिन यह प्रथा समाज में एक वर्ग/आयु विशेष के प्रति हीनता का भाव जागृत करती है, अतः इस पर प्रतिबंधात्मक कार्रवाई अवश्यंभावी है किन्तु गौर इस बात पर भी करना होगा कि जिनकी आजीविका छिनने जा रही है, उसका प्रबंध कहाँ से, कैसे और कौन करेगा? अभी तक का अनुभव कहता है कि सरकार के जिम्मे या भरोसे नहीं बैठा जा सकता, लिहाजा सभी अपने-अपने स्तर पर इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद करें और हो सके तो इससे जुड़े परिवारों को भी जागृत करें ताकि इस लड़ाई में अभी का अपेक्षित सहयोग प्राप्त हो सके।