कित्तरू की रानी चेनम्मा की कहानी

डॉ. नंदिता कृष्णा

इस तथ्य की बहुत कम जानकारी है कि अंग्रेजों के विरुद्ध ज्यादातर विद्रोह दक्षिण भारत में शुरू हुए. 18वीं सदी के अंत में मद्रास प्रेजीडेंसी में पुली थेवर और वीरापंडी कट्टाबोमन, पल्लियाकर (पॉलीगर), 1799 और 1801 के बीच विद्रोह करने वाले मरुडू पांडेयन भाई, 1806 की वेल्लोर गदर तथा 1792 से 1805 में केरल में कोट्टयम के पजास्सी राजा का विद्रोह 1857 की क्रांति के पहले के कुछ उदाहरण हैं. सभी विद्रोहियों को फांसी देकर, सिर काटकर या तोपों से उड़ाकर निर्दयता से मार डाला गया था. लेकिन इन सभी ने माफी मांगने और अंग्रेजों के अधीन रहने से इंकार कर दिया था. अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारत में बहुत असंतोष था. यहां अंग्रेज मनमाने तरीके से जमीनों पर कब्जा कर रहे थे और कपड़ा, धातु तथा कृषि जैसी स्थानीय अर्थव्यवस्था को तबाह करने में लगे थे. वे स्थानीय संसाधनों को अपनी अर्थव्यस्था को मजबूत बनाने के लिए इंग्लैंड भेज रहे थे.

कित्तूरु की महारानी, रानी चेन्नम्मा एक ऐसी योद्धा थीं जिन्होंने 19वीं सदी की शुरूआत में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व किया था जब तमाम शासक अंग्रेजों की साजिशों से परिचित नहीं थे. वे ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने वाली पहली भारतीय शासक थीं. अंग्रेजी फौज की संख्या उनकी फौज से अधिक थी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. भारत में अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व करने के कारण उन्हें आज भी याद किया जाता है.

चेन्नम्मा ककाटी में पैदा हुई थीं. यह छोटा सा गांव आज कर्नाटक के बेलागावी जिले में आता है. देसाई परिवार के राजा मल्लासरजा से विवाह के बाद वे कित्तूरु (अब कर्नाटक में) की महारानी बनीं. उनके एक पुत्र था जिसकी मृत्यु 1824 में हो गई थी. अपने पुत्र की मृत्यु के बाद उन्होंने शिवलिंगप्पा नामक एक अन्य बच्चे को गोद लिया और उसे सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाया. बहरहाल, अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे व्यपगत का सिद्धान्त या हड़प नीति के तहत अस्वीकार कर दिया. यह नीति ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिंहासन पर कब्जा करने के लिए बनाई थी.

ईस्ट इंडिया कंपनी के सीधे प्रभाव के तहत आने वाले रजवाड़े या इलाके अंग्रेजों के अधीन राज्य माने जाते थे और इस सिद्धांत के तहत यदि उक्त रजवाड़ों या इलाकों का शासक अक्षम या किसी पुरुष उत्तराधिकारी के बिना मृत हो जाये, तो उक्त राज्य या इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाता था. यह सिद्धांत भारतीय राजाओं के उस पारंपरिक अधिकार को रद्द करता था जिसके तहत वारिस के अभाव में राजा को अपना उत्तराधिकारी चुनने का अवसर मिलता था. इस सिद्धांत को भारतीय गैर-कानूनी मानते थे. यह एक ऐसी मनमानी नीति थी जिसकी आड़ में वारिस के अभाव में राज्यों पर कब्जा कर लिया जाता था. ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी द्वारा 1848 और 1856 में  आधिकारिक रूप से घोषित किये जाने के पूर्व ही व्यपगत के सिद्धान्त या हड़प नीति को लागू करके ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तूरु को हड़प लिया था. यह इस संबंध में शायद पहला उदाहरण है. लॉर्ड डलहौजी ने 1848 में इसे आधिकारिक रूप से जारी किया था. डलहौजी की राज्यों को मिलाने की नीति और व्यपगत सिद्धांत के कारण भारत के रजवाड़ों में बहुत नाराजगी थी. 1857 की भारतीय क्रांति की एक वजह यह भी थी.

अंग्रेजों ने रानी चेन्नम्मा को आदेश दिया कि वे अपने दत्तक पुत्र शिवलिंगप्पा को निर्वासित करें. इसके लिए उन्होंने सर्वोच्च शासन और पूर्ण अधिकार नीति का इस्तेमाल किया, लेकिन चेन्नम्मा ने आदेश नहीं माना. रानी चेन्नम्मा ने बॉम्बे प्रेसीडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल लॉड एलफिन्सटन को पत्र लिखकर कित्तूरु का मामला हल करने का निवेदन किया लेकिन उनके आग्रह को नहीं माना गया. इसके बाद युद्ध छिड़ गया. अंग्रेजों ने कित्तूरु के लगभग 1.5 मिलियन रुपये वाले खजाने और आभूषणों को जब्त करने की कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे. अंग्रेजों ने मद्रास देशी घुड़सवार तोपखाने की तीसरी फौज से संबंधित 20 हजार सिपाहियों और 400 तोपों के साथ कित्तूरु पर हमला कर दिया. अक्टूबर 1824 की पहली लड़ाई में अंग्रेज फौजों का भारी नुकसान हुआ और उनके कलेक्टर तथा राजनीतिक एजेंट सेंट जॉन थैकरे को कित्तूरु फौजों के हाथों जान गवानी पड़ी. चेन्नम्मा के सिपाहसालार अमातुर बालप्पा के कारण कलेक्टर की मृत्यु हुई और अंग्रेज फौजों को नुकसान उठाना पड़ा. दो अंग्रेज अफसरों वॉल्टर इलियट और स्टीवेन्सन को बंदी बना लिया गया था. अंग्रेजों ने जब युद्धबंदी का वायदा किया तो रानी चेन्नम्मा ने इन्हें रिहा कर दिया. लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और युद्ध दोबारा शुरू कर दिया. इस बार अंग्रेज अफसर चैपलिन ने अधिक फौज के साथ युद्ध जारी रखा. सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का उप कलेक्टर मुनरो इसमें मारा गया. अपने सिपाहसालारों सनगोल्ली रायन्ना और गुरुसिद्दप्पा के साथ रानी चेन्नम्मा बहादुरी के साथ लड़ीं लेकिन अंग्रेजों ने उनकी फौज पर काबू करके उन्हें पकड़ लिया. रानी को बेलहोंगल किले में बंदी रखा गया जहां 21 फरवरी, 1829 में उनकी मृत्यु हो गई.

चेन्नम्मा अपने अंतिम युद्ध में जरूर पराजित हो गई थीं लेकिन भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पहले सशस्त्र विद्रोह का बहादुरी के साथ नेतृत्व करने के लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. चेन्नम्मा की पहली विजय और उनकी विरासत को हर वर्ष अक्टूबर 22-24 को कित्तूरु उत्सव के दौरान आज भी याद किया जाता है. रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल ताल्लुक में दफनाया गया है. उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में स्थित है जिसका रख-रखाव सरकार करती है.

11 सितम्बर, 2007 को भारत की पहली महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने नई दिल्ली में संसद भवन-परिसर में रानी चेन्नम्मा की प्रतिमा का अनावरण किया था. इस प्रतिमा को कित्तूरु रानी चेन्नम्मा स्मारक समिति ने समर्पित किया है और श्री विजय गौर ने इसे बनाया है.

(डॉ. नंदिता कृष्णा चेन्नई की इतिहासकार, पर्यावरणविद् और कई पुस्तकों की लेखिका हैं. वे मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सीपी रामास्वामी अय्यर इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजिकल रिसर्च में प्रोफेसर भी हैं)