कालीदास के हाथ में कांग्रेस की कमान

सूरजकुंड में हुए कांग्रेस के संवाद मंथन में राहुल को अहम जिम्मेदारी न सौंपे जाने से इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि युवराज की ताजपोशी में कभी कुछ समय शेष है। किन्तु पार्टी ने अपने इस तुरुप के पत्ते पर बड़ा दांव खेलते हुए २०१४ में होने वाले लोकसभा चुनाव की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया है। यानी आगामी आम चुनाव कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में लड़ने जा रही है और चुनाव जीतने के बाद अगले प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी ताजपोशी तय है।

वैसे यह कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस में नंबर २ की हैसियत रहने वाले राहुल को कांग्रेसी काफी पहले से ही प्रधानमंत्री का सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी घोषित कर चुके हैं गोयाकि अभी उनकी क्षमताओं और राजनीतिक समझ की परख होना शेष है। खैर घोषित समन्वय समिति में राहुल गांधी का साथ अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, मधुसुदन मिस्त्री और जयराम रमेश देंगे। इसके साथ ही चुनाव पूर्व गठबंधन उपसमिति, चुनाव घोषणा पत्र व सरकारी कार्यक्रम उपसमिति तथा संचार एवं प्रचार उपसमिति की भी औपचारिक घोषणा की गई है। इन तीनों उपसमितियों में बतौर सदस्य कद्दावर नेताओं को स्थान दिया गया है ताकि ये तीनों उपसमितियां चुनाव की विशेष तैयारियों में राहुल का बराबर साथ दें। इन समितियों में पार्टी और सरकार दोनों के प्रतिनिधियों को स्थान देकर संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। हालांकि यह कोशिश कितनी रंग लाएगी इसका पता तो २०१४ के आम चुनाव के परिणाम ही तय करेंगे किन्तु कांग्रेस ने समितियों की घोषणा कर भाजपा समेत विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त तो बना ही ली है। अब बात की जाए समन्वय समिति की।

राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ लिखा-सुना जा चुका है और इसीलिए उनके बारे अधिक विश्लेषण करना विचारों का दोहराव ही होगा। अभी तक उनकी भूमिका कांग्रेस के कालीदास के रूप में ही सामने आ पाई है। वे जहां जहां गये हैं कांग्रेस कमजोर हुई है। इसलिए उनके बारे में कुछ नया नहीं है जिसे कहा जाए। हां, समिति में शामिल अन्य कद्दावर नेताओं के बारे में बताना उचित होगा। सोनिया गांधी के ख़ास और वर्षों से सलाहकार की भूमिका में रमे अहमद पटेल अब राहुल को सलाह देते नजर आयेंगे। हालांकि गुजरात के अहमद पटेल का राजनीतिक जलवा आज तक नहीं देखने को मिला है लेकिन १० जनपथ से लेकर २४ अकबर रोड तक उनका जलवा कायम है। अहमद पटेल के लिए राहुल को सलाह देना और उसे यथार्थ के धरातल पर उतारना; दोनों ही दुष्कर कार्य हैं। यदि अहमद पटेल अपनी प्रदत जिम्मेदारी को निभा ले जाते हैं तो निश्चित रूप से उनकी बौधिक क्षमता का लोहा माना जाएगा वर्ना तो राजनीतिक गलियारों में कहा ही जाता है कि चूंकि अहमद पटेल मुस्लिम समुदाय से आते हैं लिहाजा सोनिया का उनको ख़ास तवज्जो देना राजनीतिक मजबूरी ही है।

 

बात यदि जनार्दन द्विवेदी की करें तो यह खांटी समाजवादी विचारक कई वर्षों से सोनिया गांधी सहित कांग्रेस पार्टी की आंख और कान बना हुआ है। उत्तरप्रदेश चुनाव में जब बेनी प्रसाद वर्मा और दिग्विजय सिंह के बयान राहुल को असहज कर रहे थे तब जनार्दन ने ही उनके साथ कदमताल करते हुए यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि कांग्रेस की अगली पीढ़ी समाजवाद की उसी राह पर अग्रसर होना चाहती है जिसने आम और ख़ास का अंतर मिटा दिया था। हालांकि जनार्दन की कोशिश परवान नहीं चढ़ी किन्तु इतना भान तो हो ही चुका था कि कांग्रेस अब अपनी मूल अवधारणा से इतर समाजवाद के चोले में आने को आतुर है। जनार्दन का विवादों से दूर रहना और गांधी-नेहरु परिवार के प्रति वफादारी उनकी सबसे बड़ी ताकत है और इसी ताकत के बल पर वे राहुल के साथ महती भूमिका में नजर आयेंगे। वहीं जयराम रमेश कांग्रेस का ऐसा विद्रोही चेहरा है जिसका मैकनिज्म अमिताभ की एंग्री यंग मैन की छवि को विस्तारित करता है। कभी अंग्रेजी सामंतवाद के प्रतीक चोले को उतार फेंकना तो कभी निर्मल भारत की अवधारणा को साकार करने के लिए मंदिर-मस्जिद पर निशाना साधना; रमेश ने हर वो काम किया है जो आज का नेता वर्ग सार्वजनिक रूप से करने में बचता है। रमेश की शायद यही एक ऐसी उपलब्धि है जिसे अन्य कांग्रेसी नहीं पा सकते। उनके पास सोच है, दृष्टि है और मौलिकता का अथाह भण्डार है जिससे वे विरोधियों को चित करने का माद्दा रखते हैं। राहुल की टीम में शामिल रमेश को अपना हुनर दिखाना ही होगा वरना अपनों के निशाने पर रहने वाले रमेश के सर से १० जनपथ का हाथ भी उठ जाएगा। इस समन्वय समिति में दिग्विजय सिंह का नाम जरूर चौंकाता है।

हालांकि अब तक मीडिया और कांग्रेस में इस सामंती राजा को राहुल के मेंटर के रूप में जाना जाता था किन्तु विवादित बयानबाजी के चलते राहुल दरबार में इनकी पूछ-परख कम हो गई थी। दिग्विजय सिंह कांग्रेस के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनके कहे को पार्टी उनकी निजी राय बताकर खुद को सुरक्षित कर लेती है। दरअसल दिग्विजय सिंह को लेकर जनता से लेकर पार्टी तक अजीब से विरोधाभास से दो चार हो रही है। उनके बयानों को आप न तो नकार सकते हैं न ही उनका समर्थन कर सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी बात का समर्थन करना मतलब विवादों का केंद्र बनना है और उन्हें नकारने से आपकी फजीहत हो सकती है। दिग्विजय सिंह पर हमेशा यह आरोप लगते हैं कि उन्होंने संघ परिवार का विरोध अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने हेतु बखूबी किया है। अब जबकि अन्ना से लेकर रामदेव और गडकरी से लेकर भगवत तक सभी उनके सीधे निशाने पर हैं यह सवाल प्रमुखता से उठ रहा है कि यदि कांग्रेस आलाकमान ने दिग्विजय सिंह को फ्री हैण्ड नहीं दिया होता तो वे समन्वय समिति में राहुल के साथ नजर नहीं आते? यह सब एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है। जहाँ तक मधुसुदन मिस्त्री की बात है तो उनको किस आधार पर इस कमिटी में स्थान मिला है यह समझ से परे है।

 

अब जबकि यह तय हो चुका है कि राहुल को आगे रखकर ही कांग्रेस २०१४ के लोकसभा चुनाव में उतरेगी और यह उसका ब्रम्हास्त्र भी साबित हो सकता है। विरोधी दलों ने अपने संगठनात्मक ढाँचे को दुरुस्त करने का प्रयत्न शुरू कर दिया होगा। चुनाव में अभी पर्याप्त समय है और तीनों समितियों के पास अपने प्रदात कर्तव्यों का निर्वहन करने का सुनहरा अवसर है। ऐसे में क्या कांग्रेस की ये समितियां आपसी गुज्बाजी को तिलांजलि देकर क्या सोनिया गाँधी का कथित सपना पूरा कर पाएंगी? क्या राहुल इस जिम्मेदारी को निभा पाएंगे? यह राहुल गाँधी के जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है जिसमें उन्हें पास होना अनिवार्य है वरना संशय की हार उनकी राजनीतिक यात्रा को समाप्त कर देगी। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कांग्रेस के बाद अब कौन सा दल संगठनात्मक स्तर पर बाजी मारता है ताकि २०१४ के चुनाव के लिए खाद-पानी की व्यवस्था अभी से की जाए।