आतंक के जांच की सच्‍चाई

 

रूस में स्टालिन के ज़माने का एक किस्सा है, स्टालिन से मिलने चार ग्रामीणों का एक प्रतिनिधिमण्डल आया था। स्टालिन से उनकी चर्चा हुई और ग्रामीण उनके केबिन से बाहर निकल गये। स्टालिन को सिगार पीने की याद आई, उन्होंने जेबें टटोलींटेबल की दराज देखीं, कोट को हिला-डुलाकर देखा लेकिन उनका प्रिय सिगार उन्हें नहीं मिला। स्टालिन ने तत्काल अपनी सेक्रेटरी मारिया को बुलवाया और कहा कि अभी-अभी जो चार ग्रामीण बाहर निकले हैं उनसे मेरे सिगार के बारे में पूछताछ करो। मारिया के जाने के थोड़ी देर बाद स्टालिन को वह सिगार टेबल के नीचे पड़ा दिखाई दिया, स्टालिन ने मारिया को फ़ोन लगाया और कहा कि उन ग्रामीणों को छोड़ दोतब मारिया बोली, “लेकिन सर, चार में से तीन लोगों ने तो स्वीकार कर लिया है कि आपका सिगार उन्होंने चुराया था और चौथा भी जल्दी ही मान जायेगा। मै चारोंसिगार लेकर आ ही रही हूँ…”

भले ही यह किस्सा स्टालिन की तानाशाही कार्यप्रणाली के लिये हँसी-मजाक के तौर पर उपयोग होता है, लेकिन यह भारत की तथाकथित “सर्वश्रेष्ठ जाँच संस्था”(?) सीबीआई की कार्यप्रणाली से अक्षरशः मेल खाता है। जब से कांग्रेस सरकार महंगाई, स्पेक्ट्रम, कलमाडी और आदर्श जैसे मामलों के कीचड़ में धँसी है, तभी से कांग्रेस व उसके चमचों खासकर तहलका, टाइम्स और नेहरु डायनेस्टी टीवी (NDTV) में “हिन्दू आतंक”(?) को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और हल्ला मचाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। स्वामी असीमानन्द द्वारा समझौता ब्लास्ट मामले में दिया गया “तथाकथित बयान” भी जानबूझकर लीक करवाया गया है, इसके कथित कागज़ात व सबूत “तहलका” पर प्लाण्ट करवाये गये हैं, जबकि समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट मामले में सीबीआई पहले भी सिमी के प्रमुख कार्यकर्ता सफ़दर नागोरी से भी कबूलनामा ले चुकी है, जबकि अमेरिकी जाँच एजेंसी ने इसी मामले में डेविड हेडली की पत्नी के बयान को लेकर उसके खिलाफ़ पहले ही मामला खोल रखा है।

सीबीआई के अनुसार, सफ़दर नागोरी, कमरुद्दीन नागोरी व आमिल परवेज़ ने नार्को टेस्ट में कबूल किया था कि समझौता एक्सप्रेस में उन्होंने बम रखवाये थे और इस मामले से कर्नल पुरोहित व साध्वी प्रज्ञा का कोई लेना-देना नहीं है, जबकि सीबीआई अब कह रही है कि असीमानन्द ने रितेश्वर और सुनील जोशी के साथ मिलकर यह साजिश रची। उधर अमेरिका में डेविड हेडली की पूर्व-पत्नी फ़ैज़ा औतुल्ला ने हेडली द्वारा समझौता एक्सप्रेस में लश्कर के साथ मिलकर बम विस्फ़ोट करने की योजना का खुलासा किया है। नार्को टेस्ट में सफ़दर नागोरी ने कबूल किया है कि समझौता एक्सप्रेस में बम रखने के लिये सूटकेस कटारिया मार्केट इन्दौर से खरीदे गये थे, नागोरी ने यह भी कबूल किया है कि सिमी नेता अब्दुल रज्जाक ने समझौता एक्सप्रेस विस्फ़ोट के लिये पाकिस्तान से आर्थिक मदद प्राप्त की थी। (32 पेज की यह नार्को टेस्ट रिपोर्ट एवं फ़ोरेंसिक टीम के निष्कर्षों की पूरी कॉपी अखबार “द पायनियर” के पास उपलब्ध है)

इसी प्रकार हेडली की मोरक्कन बीवी ने अमेरिकी जाँच एजेंसी को शिकायत की थी कि हेडली भारत की किसी एक्सप्रेस ट्रेन में बम रखवाने की योजना बना रहा है, समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट के बाद उसका शक और गहरा गया। लश्कर से हेडली के सम्बन्ध जगज़ाहिर हैं। अब ऐसे में सवाल उठता है कि भारत की “महान जाँच एजेंसी”(?) जिसने हाल ही में आरुषि हत्याकाण्ड में अपनी “स्टालिन-मारिया टाइप की योग्यता” दर्शाई है, क्या असीमानन्द के मामले में उस पर भरोसा किया जा सकता है? सफ़दर नागोरी, डेविड हेडली या असीमानन्द… किसकी बात सच मानी जाये, किसकी झूठ? सफ़दर नागोरी का नार्को टेस्ट बड़ा बयान माना जाये या असीमानन्द का मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया “कथित” बयान?

सीबीआई का न तो रिकॉर्ड साफ़-सुथरा है न ही उसकी इमेज इतनी दमदार है कि वह जनता में यह संदेश देने में कामयाब हो कि वह निष्पक्षता से जाँच करेगी ही। बोफ़ोर्स मामले में हम देख चुके हैं कि किस तरह “महारानी विक्टोरिया” ने सीबीआई की बाँहें मरोड़कर उनके चहेते क्वात्रोची को क्लीन चिट दिलवाई थी और गाहे-बगाहे केन्द्र में समर्थन लेने के लिये कभी मायावती, कभी मुलायम सिंह तो कभी जयललिता के पुराने मामलों को कब्र से निकालकर उनकी गर्दन पकड़ने का काम सीबीआई के जरिये किया जाता रहा है… इसलिये भारतीय पुलिस की स्टालिन-मारिया स्टाइल वाली पूछताछ और बयानों से किसी भी समय, किसी को भी दोषी सिद्ध किया जा सकता है.

ये बात और है कि कोर्ट में इनके लगाये-बनाये हुए केस की धज्जियाँ उड़ जाती हैं, लेकिन सुनियोजित तरीके से बयानों को अपने पालतू मीडिया में लीक करवाकर हिन्दू संगठनों को बदनाम करने का जो खेल खेला गया है, अभी तो वह कारगर दिखाई दे रहा है। अभी मामला कोर्ट में नहीं गया है, लेकिन यदि मान लो कि असीमानन्द दोषी साबित भी हो गये (जिसकी सम्भावना कम ही है) तब भी जाँच के तरीके और सफ़दर के बयानों के मद्देनज़र शक की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी…

जिस तरह काफ़ी समय से कांग्रेस की कोशिश रही है कि उसके “10 किलो के भ्रष्टाचार”  और भाजपा के 100 ग्राम भ्रष्टाचार को तराजू में रखकर बराबरी से तौला जाये, उसी प्रकार अब दिग्विजय सिंह जैसे लोगों के ज़रिये यह जी-तोड़ कोशिश की जा रही है कि किस प्रकार पाक प्रायोजित जेहादी आतंकवाद और हिन्दू आतंकवाद को एक पलड़े पर लाया जाये… चूंकि मीडिया में कांग्रेस के ज़रखरीद गुलाम भरे पड़े हैं और हिन्दुओं में भी “जयचन्द” इफ़रात में मिल जाते हैं इसलिये कांग्रेस की यह कोशिश रंग भी ला रही है। कांग्रेस ने पाकिस्तान को जानबूझकर यह कार्ड भी पकड़ा दिया है, और इसका बखूबी इस्तेमाल वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर करेगा ही। 26/11 के बाद पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर चौतरफ़ा जिस प्रकार घेरा गया था, अब “हिन्दू आतंक” के नाम पर सेकुलरों द्वारा खुद एक डाकू को ही “चोर-चोर-चोर” चिल्लाने का मौका दिया गया है।

गुलामों द्वारा दिखाई जा रही स्वामीभक्ति के चन्द नमूने भी देख लीजिये – “26/11 – संघ की साजिश” नाम की कूड़ा पुस्तक लिखने वाले अज़ीज़ बर्नी से किसी भी मीडिया हाउस ने अभी तक कोई गम्भीर सवाल-जवाब नहीं किये हैं। एक तरफ़ तो दिग्विजय सिंह बार-बार इस घटिया पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में जाते हैं, उसका “प्रचार” करते हैं और दूसरी तरफ़ ये भी कहते हैं कि मैं हेमन्त करकरे की शहादत पर सवाल नहीं उठा रहा और पाकिस्तान का हाथ तो 26/11 में है ही…। कोई उनसे यह नहीं पूछता कि यदि आपको भरोसा है कि 26/11 में पाक और लश्कर का हाथ है तो अज़ीज़ बर्नी के प्रति आपका स्नेह इतना क्यों टपक रहा है? क्या इस पुस्तक की रॉयल्टी में उनका भी हिस्सा है? उधर “तहलका” भारत के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को “पोस्टर बॉय” कहता है, तहलका को शायद “वायब्रेण्ट गुजरात” की सफ़लता से चिढ़ हो गई हो, तहलका की ही एक “ईसाई” रिपोर्टर निशा सूसन थीं जिन्होंने प्रमोद मुतालिक को पिंक चड्डी भेजने का छिछोरा अभियान चलाया था, ये बात और है कि तसलीमा नसरीन पर हमला करने वाले हैदराबाद के मुल्ले को “ग्रीन चड्डी” भेजने की उनकी हिम्मत नहीं है। नेहरु डायनेस्टी टीवी (NDTV) के बारे में तो कुछ कहना बेकार ही है यह तो अपने जन्म से ही “हिन्दू-विरोधी” है।

इन गुलामों में से कितनों ने NIA द्वारा केरल में की जा रही जाँच, अब्दुल मदनी से आतंकियों से सम्बन्ध और सिमी के ट्रेनिंग कैम्पों के बारे में अपने चैनलों पर दिखाया? क्या कभी सूफ़िया मदनी द्वारा दिये गये बयान अचानक प्रेस के माध्यम से सार्वजनिक हुए हैं? नहीं। लेकिन चूंकि “हिन्दू आतंक” शब्द को कांग्रेस द्वारा “ग्लोरिफ़ाय” किया जाना है और “भोंदू युवराज” हिन्दू आतंकवाद को ज्यादा खतरनाक बता चुके हैं तो सीबीआई और मीडियाई गुलामों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे इसे “साबित” भी कर दिखायें… चाहे स्टालिन-मारिया तकनीक ही क्यों न अपनानी पड़े…

चलते-चलते : स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की उड़ीसा में हत्या हुई, नित्यानन्द को कर्नाटक में एक फ़र्जी वीडियो के जरिये बदनाम किया गया (वह वीडियो भी आश्रम के एक पूर्व कर्मचारी, जो ईसाई है, द्वारा ही बनाया गया है), हिन्दुओं की नाक पर बूट मलने की खातिर, कांची के शंकराचार्य को ऐन दीपावली की रात को हवालात में डाला गया और अब स्वामी असीमानन्द की बारी आई है…… क्या “गजब का संयोग”(?) है कि उक्त चारों महानुभाव मिशनरी द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के खिलाफ़ कंधमाल(उड़ीसा), कर्नाटक, तमिलनाडु एवं डांग(गुजरात) में जबरदस्त अभियान चलाये हुए थे व हिन्दू जनजागरण कर रहे थे।

आतंक की जांच पर आंच ही आंच

रूस में स्टालिन के ज़माने का एक किस्सा है, स्टालिन से मिलने चार ग्रामीणों का एक प्रतिनिधिमण्डल आया था। स्टालिन से उनकी चर्चा हुई और ग्रामीण उनके केबिन से बाहर निकल गये। स्टालिन को सिगार पीने की याद आई, उन्होंने जेबें टटोलींटेबल की दराज देखीं, कोट को हिला-डुलाकर देखा लेकिन उनका प्रिय सिगार उन्हें नहीं मिला। स्टालिन ने तत्काल अपनी सेक्रेटरी मारिया को बुलवाया और कहा कि अभी-अभी जो चार ग्रामीण बाहर निकले हैं उनसे मेरे सिगार के बारे में पूछताछ करो। मारिया के जाने के थोड़ी देर बाद स्टालिन को वह सिगार टेबल के नीचे पड़ा दिखाई दिया, स्टालिन ने मारिया को फ़ोन लगाया और कहा कि उन ग्रामीणों को छोड़ दोतब मारिया बोली, “लेकिन सर, चार में से तीन लोगों ने तो स्वीकार कर लिया है कि आपका सिगार उन्होंने चुराया था और चौथा भी जल्दी ही मान जायेगा। मै चारोंसिगार लेकर आ ही रही हूँ…”

भले ही यह किस्सा स्टालिन की तानाशाही कार्यप्रणाली के लिये हँसी-मजाक के तौर पर उपयोग होता है, लेकिन यह भारत की तथाकथित “सर्वश्रेष्ठ जाँच संस्था”(?) सीबीआई की कार्यप्रणाली से अक्षरशः मेल खाता है। जब से कांग्रेस सरकार महंगाई, स्पेक्ट्रम, कलमाडी और आदर्श जैसे मामलों के कीचड़ में धँसी है, तभी से कांग्रेस व उसके चमचों खासकर तहलका, टाइम्स और नेहरु डायनेस्टी टीवी (NDTV) में “हिन्दू आतंक”(?) को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और हल्ला मचाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। स्वामी असीमानन्द द्वारा समझौता ब्लास्ट मामले में दिया गया “तथाकथित बयान” भी जानबूझकर लीक करवाया गया है, इसके कथित कागज़ात व सबूत “तहलका” पर प्लाण्ट करवाये गये हैं, जबकि समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट मामले में सीबीआई पहले भी सिमी के प्रमुख कार्यकर्ता सफ़दर नागोरी से भी कबूलनामा ले चुकी है, जबकि अमेरिकी जाँच एजेंसी ने इसी मामले में डेविड हेडली की पत्नी के बयान को लेकर उसके खिलाफ़ पहले ही मामला खोल रखा है।

सीबीआई के अनुसार, सफ़दर नागोरी, कमरुद्दीन नागोरी व आमिल परवेज़ ने नार्को टेस्ट में कबूल किया था कि समझौता एक्सप्रेस में उन्होंने बम रखवाये थे और इस मामले से कर्नल पुरोहित व साध्वी प्रज्ञा का कोई लेना-देना नहीं है, जबकि सीबीआई अब कह रही है कि असीमानन्द ने रितेश्वर और सुनील जोशी के साथ मिलकर यह साजिश रची। उधर अमेरिका में डेविड हेडली की पूर्व-पत्नी फ़ैज़ा औतुल्ला ने हेडली द्वारा समझौता एक्सप्रेस में लश्कर के साथ मिलकर बम विस्फ़ोट करने की योजना का खुलासा किया है। नार्को टेस्ट में सफ़दर नागोरी ने कबूल किया है कि समझौता एक्सप्रेस में बम रखने के लिये सूटकेस कटारिया मार्केट इन्दौर से खरीदे गये थे, नागोरी ने यह भी कबूल किया है कि सिमी नेता अब्दुल रज्जाक ने समझौता एक्सप्रेस विस्फ़ोट के लिये पाकिस्तान से आर्थिक मदद प्राप्त की थी। (32 पेज की यह नार्को टेस्ट रिपोर्ट एवं फ़ोरेंसिक टीम के निष्कर्षों की पूरी कॉपी अखबार “द पायनियर” के पास उपलब्ध है)

इसी प्रकार हेडली की मोरक्कन बीवी ने अमेरिकी जाँच एजेंसी को शिकायत की थी कि हेडली भारत की किसी एक्सप्रेस ट्रेन में बम रखवाने की योजना बना रहा है, समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट के बाद उसका शक और गहरा गया। लश्कर से हेडली के सम्बन्ध जगज़ाहिर हैं। अब ऐसे में सवाल उठता है कि भारत की “महान जाँच एजेंसी”(?) जिसने हाल ही में आरुषि हत्याकाण्ड में अपनी “स्टालिन-मारिया टाइप की योग्यता” दर्शाई है, क्या असीमानन्द के मामले में उस पर भरोसा किया जा सकता है? सफ़दर नागोरी, डेविड हेडली या असीमानन्द… किसकी बात सच मानी जाये, किसकी झूठ? सफ़दर नागोरी का नार्को टेस्ट बड़ा बयान माना जाये या असीमानन्द का मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया “कथित” बयान?

सीबीआई का न तो रिकॉर्ड साफ़-सुथरा है न ही उसकी इमेज इतनी दमदार है कि वह जनता में यह संदेश देने में कामयाब हो कि वह निष्पक्षता से जाँच करेगी ही। बोफ़ोर्स मामले में हम देख चुके हैं कि किस तरह “महारानी विक्टोरिया” ने सीबीआई की बाँहें मरोड़कर उनके चहेते क्वात्रोची को क्लीन चिट दिलवाई थी और गाहे-बगाहे केन्द्र में समर्थन लेने के लिये कभी मायावती, कभी मुलायम सिंह तो कभी जयललिता के पुराने मामलों को कब्र से निकालकर उनकी गर्दन पकड़ने का काम सीबीआई के जरिये किया जाता रहा है… इसलिये भारतीय पुलिस की स्टालिन-मारिया स्टाइल वाली पूछताछ और बयानों से किसी भी समय, किसी को भी दोषी सिद्ध किया जा सकता है.

ये बात और है कि कोर्ट में इनके लगाये-बनाये हुए केस की धज्जियाँ उड़ जाती हैं, लेकिन सुनियोजित तरीके से बयानों को अपने पालतू मीडिया में लीक करवाकर हिन्दू संगठनों को बदनाम करने का जो खेल खेला गया है, अभी तो वह कारगर दिखाई दे रहा है। अभी मामला कोर्ट में नहीं गया है, लेकिन यदि मान लो कि असीमानन्द दोषी साबित भी हो गये (जिसकी सम्भावना कम ही है) तब भी जाँच के तरीके और सफ़दर के बयानों के मद्देनज़र शक की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी…

जिस तरह काफ़ी समय से कांग्रेस की कोशिश रही है कि उसके “10 किलो के भ्रष्टाचार”  और भाजपा के 100 ग्राम भ्रष्टाचार को तराजू में रखकर बराबरी से तौला जाये, उसी प्रकार अब दिग्विजय सिंह जैसे लोगों के ज़रिये यह जी-तोड़ कोशिश की जा रही है कि किस प्रकार पाक प्रायोजित जेहादी आतंकवाद और हिन्दू आतंकवाद को एक पलड़े पर लाया जाये… चूंकि मीडिया में कांग्रेस के ज़रखरीद गुलाम भरे पड़े हैं और हिन्दुओं में भी “जयचन्द” इफ़रात में मिल जाते हैं इसलिये कांग्रेस की यह कोशिश रंग भी ला रही है। कांग्रेस ने पाकिस्तान को जानबूझकर यह कार्ड भी पकड़ा दिया है, और इसका बखूबी इस्तेमाल वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर करेगा ही। 26/11 के बाद पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर चौतरफ़ा जिस प्रकार घेरा गया था, अब “हिन्दू आतंक” के नाम पर सेकुलरों द्वारा खुद एक डाकू को ही “चोर-चोर-चोर” चिल्लाने का मौका दिया गया है।

गुलामों द्वारा दिखाई जा रही स्वामीभक्ति के चन्द नमूने भी देख लीजिये – “26/11 – संघ की साजिश” नाम की कूड़ा पुस्तक लिखने वाले अज़ीज़ बर्नी से किसी भी मीडिया हाउस ने अभी तक कोई गम्भीर सवाल-जवाब नहीं किये हैं। एक तरफ़ तो दिग्विजय सिंह बार-बार इस घटिया पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में जाते हैं, उसका “प्रचार” करते हैं और दूसरी तरफ़ ये भी कहते हैं कि मैं हेमन्त करकरे की शहादत पर सवाल नहीं उठा रहा और पाकिस्तान का हाथ तो 26/11 में है ही…। कोई उनसे यह नहीं पूछता कि यदि आपको भरोसा है कि 26/11 में पाक और लश्कर का हाथ है तो अज़ीज़ बर्नी के प्रति आपका स्नेह इतना क्यों टपक रहा है? क्या इस पुस्तक की रॉयल्टी में उनका भी हिस्सा है? उधर “तहलका” भारत के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को “पोस्टर बॉय” कहता है, तहलका को शायद “वायब्रेण्ट गुजरात” की सफ़लता से चिढ़ हो गई हो, तहलका की ही एक “ईसाई” रिपोर्टर निशा सूसन थीं जिन्होंने प्रमोद मुतालिक को पिंक चड्डी भेजने का छिछोरा अभियान चलाया था, ये बात और है कि तसलीमा नसरीन पर हमला करने वाले हैदराबाद के मुल्ले को “ग्रीन चड्डी” भेजने की उनकी हिम्मत नहीं है। नेहरु डायनेस्टी टीवी (NDTV) के बारे में तो कुछ कहना बेकार ही है यह तो अपने जन्म से ही “हिन्दू-विरोधी” है।

इन गुलामों में से कितनों ने NIA द्वारा केरल में की जा रही जाँच, अब्दुल मदनी से आतंकियों से सम्बन्ध और सिमी के ट्रेनिंग कैम्पों के बारे में अपने चैनलों पर दिखाया? क्या कभी सूफ़िया मदनी द्वारा दिये गये बयान अचानक प्रेस के माध्यम से सार्वजनिक हुए हैं? नहीं। लेकिन चूंकि “हिन्दू आतंक” शब्द को कांग्रेस द्वारा “ग्लोरिफ़ाय” किया जाना है और “भोंदू युवराज” हिन्दू आतंकवाद को ज्यादा खतरनाक बता चुके हैं तो सीबीआई और मीडियाई गुलामों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे इसे “साबित” भी कर दिखायें… चाहे स्टालिन-मारिया तकनीक ही क्यों न अपनानी पड़े…

चलते-चलते : स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की उड़ीसा में हत्या हुई, नित्यानन्द को कर्नाटक में एक फ़र्जी वीडियो के जरिये बदनाम किया गया (वह वीडियो भी आश्रम के एक पूर्व कर्मचारी, जो ईसाई है, द्वारा ही बनाया गया है), हिन्दुओं की नाक पर बूट मलने की खातिर, कांची के शंकराचार्य को ऐन दीपावली की रात को हवालात में डाला गया और अब स्वामी असीमानन्द की बारी आई है…… क्या “गजब का संयोग”(?) है कि उक्त चारों महानुभाव मिशनरी द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के खिलाफ़ कंधमाल(उड़ीसा), कर्नाटक, तमिलनाडु एवं डांग(गुजरात) में जबरदस्त अभियान चलाये हुए थे व हिन्दू जनजागरण कर रहे थे।