11 सितम्बर, 1893 ई. को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन मे भारत का परचम लहराने वाले स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. मे कलकत्ते (कोलकाता) के शिमलापल्ली नामक मोहल्ले के निवासी श्री विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के घर हुआ. बचपन का इनका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था तथा ये अपने माता-पिता की छठ्वी संतान थे. बच्चो की प्राथमिक पाठशाला माता की गोद ही होती है और उस पाठशाला मे अध्यापन उसकी माता द्वारा ही किया जाता है. माता की उस शिक्षा का प्रभाव बच्चे के मस्तिष्क पर अजीवन रहता है. इस बात को नरेन्द्रनाथ की माँ भलिभाँति जानतीं थी. अत: उन्होने नरेन्द्रनाथ को सुसंस्कारित करने मे कोई कसर नही छोडी.
वे नरेन्द्रनाथ को बाल्यवस्था से ही रामायण और महाभारत की कथाये सुनाया करती थी. अगर कोई साधु उनके द्वार पर भिक्षा माँगने आ जाता तो नरेन्द्रनाथ की माँ नरेन्द्रनाथ को साथ मे लेकर उस साधु का यथोचित सेवा-सत्कार कर अपने सामर्थ्यानुसार उन्हे भिक्षा देती थी. माँ के इस कृत्य ने नरेन्द्रनाथ के मन पर अमिट छाप छोडी. पढाई मे प्रखर होने के साथ – साथ ये खेलकूद और संगीत गायन मे भी प्रखर एवम सिद्धहस्त थे. गायन कला के चलते ही नवम्बर, 1881 को सुरेन्द्र नाथ मित्र के घर पर इनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई. नरेन्द्रनाथ की गायन कला से प्रभावित होकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इन्हे दक्षिणेश्वर आने का निमंत्रण दिया और कालांतर मे नरेन्द्रनाथ उनके शिष्य बने. परंतु स्वामी रामकृष्ण परमहंस को नरेन्द्रनाथ ने अपना गुरु तब तक नही माना जब तक उन्होने उनकी उत्कंठा के चलते उनका भगवान से साक्षात्कार नही करवा दिया.
नारी चिंतन
न्यूयार्क मे भाषण देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि जबतक वहाँ का समाज स्त्री-पुरुष के भेद को भुलाकर प्रत्येक मानव मे मानवता का दर्शन नही करता और यह नही सोचता कि स्त्री-पुरुष दोनो एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी है तबतक वहाँ की स्त्रियो का वास्तविक रूप से उत्थान नही हो सकता. मात्र बौद्धिक और अक्षर ज्ञान से ही मानव का कल्याण संभव नही है. अपितु मानव – कल्याण हेतु बौद्धिक और अक्षर ज्ञान के साथ – साथ उसकी अध्यात्मकिता और नीतिमत्ता की उन्नति भी अत्यंत आवश्यक है. भारत की नारियाँ भले ही बौद्धिक और अक्षर ज्ञान के स्तर पर अमेरिका की नारियो से पीछे हो परंतु वे सदैव अपने शील की रक्षा के साथ-साथ एक चरित्रवान जीवनायपन करते हुए अपने पवित्र आचार-विचार और हृदय की पवित्रता के माध्यम से अध्यात्म के सहारे मानव-कल्याण के पथ पर अग्रेसित होती है. स्वामी जी ने अपने भाषण मे वहाँ के प्रेमाचार के विषय पर कहा कि अगर वे विवाहेच्छुक होते तो अमेरिका के अन्य नवयुवको की भाँति सैकडो बार प्रेमाचार के आडम्बर की अपेक्षा बिना किसी आडम्बर के किसी एक के प्रियपात्र बन चुके होते है. अमेरिका मे बढते तलाको की संख्या पर चिंतित होकर उन्होने वहाँ बताया कि भारतीय समाज मे यह सर्व-शिक्षा दी जाती है कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपने पति-पत्नी के अलावा अन्य सभी को मातृवत-पुत्रवत की नजर से देखे. अमेरिका मे स्त्री भोगवादी मानसिकता के केन्द्र-बिन्दु मे वास करती है परंतु भारत मे स्त्री सदैव से पूज्या रही है. इसी भारतीय-चिंतन के चलते भारत मे तलाको की संख्या अमेरिका के अपेक्षाकृत नगण्य है.
व्यक्तित्व विकास
व्यक्तित्व विकास की शिक्षा पर स्वामी जी का मानना था कि व्यक्ति का व्यक्तित्व असरदार होना चाहिये. व्यक्ति जिसके भी सम्पर्क मे आये उस पर उसके ग़ुणो की, उसकी बुद्धि की तथा उसके आचरण का जबरदस्त हो यह हर व्यक्ति को ध्यान रखना चाहिये क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का स्थान दो-तिहाई भाग मे होता है और मात्र एक-तिहाई भाग मे ही बुद्धि और उसके कहे हुए शब्द का स्थान रहता है. हमारा कर्म हमारे व्यक्तित्व का बाह्य अभिव्यक्ति मात्र ही है. अत: हमारी सम्पूर्ण शिक्षा और सारे अध्ययनो का एकमेव लक्ष्य हमारे व्यक्तित्व को गढते हुए उसे और अनवरत निखारना ही है. व्यक्तित्व की महत्ता हम इसी बात से लगा सकते है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व जिस पर भी पडता है उसे कार्यशील बना देता है. व्यक्तित्व पर एक उदाहरण देते हुए स्वामी जी ने यहाँ तक कहा कि दार्शनिक मात्र बुद्धि पर असर करता है अपितु एक धर्मसंस्थापको का असर सम्पूर्ण समाज पर पडता है जिससे सारा देश तक हिल जाता है. मनुष्य को पूर्णता को प्राप्त होना ही उसके जीवन उद्देश्य होना चाहिये. मनुष्य मे अच्छी – बुरी स्वभाविकत: दोनो वृत्तियाँ होती है. समयानुसार व्यक्ति द्वारा उसके अन्दर की बुराईयो को कम करने की कोशिश करना ही उसे पूर्णता की ओर अग्रसित करता है.
शिक्षा
शिकागो से भारत वापस लौटने पर स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया. स्वामी विवेकानन्द ने एक सभा मे शिक्षा पर जोर देते हुए कहा कि शिक्षा का आधार धर्म होना चाहिये और उसका केन्द्र बिन्दु “चरित्र-निर्माण” ही होना चाहिये. धर्म से उनका तात्पर्य मात्र पूजा-पद्धति ही नही था अपितु “जीवन जीने की कला” था जिसकी पुष्टि उन्होने विचार-शक्ति का महत्व, कर्म का परिणाम और भाग्य के निर्माण इत्यादि जैसे विभिन्न विषयो पर अपने विचार रखकर किया. स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि हम जैसे सोचते है वैसे ही बन जाते है क्योंकि विचार सजीव होते है परिणामत: वाणी की अपेक्षाकृत उनका अधिकतम प्रभाव सदैव हमारे जीवन पर पडता रहता है. अत: हमे अपने विचारो के प्रति बहुत सावधान रहना चाहिये.
स्वामी विवेकानन्द शिक्षा हेतु किसी भी प्रकार के दंड देने के विरुद्ध थे क्योंकि उनका मानना था कि जिस प्रकार प्रताडित करके गधे को घोडा नही बनाया जा सकता उसी प्रकार किसी भी प्रकार की प्रताडना से हम उसे अक्षर ज्ञान तो दे सकते है पर हम उसे शिक्षित नही बना सकते. इसलिये उन्होने शिक्षित बनाने हेतु ठोक-प्रणाली का खुलकर विरोध किया और उनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से मानसिक बल, चरित्र-निर्माण और बुद्धि का विकास होता है, इतना ही नही “मन की एकाग्रता” ही शिक्षा का सार है और शिक्षा के माध्यम से मिले सारे प्रशिक्षणो का उद्देश्य व्यक्ति-विकास ही है.
किसी भी देश की उन्नति मे वहाँ के शिक्षित-प्रतिशत की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है. क्योंकि देश की उन्नति का अनुपात और जन-समुदाय के शिक्षित का अनुपात सदैव परस्पर निर्भर होते है. भारतवर्ष के पिछडेपन का एक प्रमुख कारण यह भी है कि कुछ चन्द लोगो ने शिक्षा पर अपना आधिपत्य जमा रखा है. गाँवो मे शिक्षा-रूपी दीपक का प्रकाश अभी भी धूमिल ही है. अत: यदि किसी अभाववश विद्यालय मे विद्यार्थी न पहुँच पाये तो विद्यालय को स्वयम उन अभावाग्रस्त विद्यार्थियो के पास पहुँचकर उनकी मातृभाषा मे ही उन्हे शिक्षा देनी चाहिये. इसके साथ- साथ शिक्षा मे संस्कृत जैसी उत्कृष्ट भाषा का स्थान विशिष्ट होना चाहिये. संस्कृत भाषा मात्र वेदो-उपनिषदो की भाषा बनकर न रहकर जाय अत: इसके प्रचार-प्रसार की नितांत आवश्यकता है क्योंकि शिक्षा पर केवल ब्राह्मण विशेष का अधिकार न होकर अपितु सभी सभी लोगो का समान अधिकार है. शिक्षा का अंतिम लक्ष्य यही है कि वह व्यक्ति को स्वामी बनाये परिणामत: वह सदैव एक स्वामी की तरह कार्य करे न कि किसी भी प्रकार के गुलाम की तरह.