देश की एक बड़ी आबादी धीमा ज़हर खाने को मजबूर है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे ज़हर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियों और फलों में शामिल हो चुका है. देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में आर्सेनिक सिंचाई जल के माध्यम से फ़सलों को ज़हरीला बना रहा है. यहां भू-जल से सिंचित खेतों में पैदा होने वाले धान में आर्सेनिक की इतनी मात्रा पाई गई है, जो मानव शरीर को नुक़सान पहुंचाने के लिए काफ़ी है. इतना ही नहीं, देश में नदियों के किनारे उगाई जाने वाली फ़सलों में भी ज़हरीले रसायन पाए गए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे देश की नदियां कितनी प्रदूषित हैं. कारख़ानों से निकलने वाले कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे इनका पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है. इसी दूषित पानी से सींचे गए खेतों की फ़सलें कैसी होंगी, सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
दूर जाने की ज़रूरत नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की ही हालत देखिए. जिस देश में नदियों को मां या देवी कहकर पूजा जाता है, वहीं यह एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है. काऱखानों के रासायनिक कचरे ने इसे ज़हरीला बना दिया है. नदी के किनारे सब्ज़ियां उगाई जाती हैं, जिनमें काफ़ी मात्रा में विषैले तत्व पाए गए हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नदियों के किनारे उगाई गई 50 फ़ीसद फ़सलों में विषैले तत्व पाए जाने की आशंका रहती है. इसके अलावा कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने भी फ़सलों को ज़हरीला बना दिया है. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. इसके बावजूद अधिक उत्पादन के लालच में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा के कीटनाशक निग़ल जाती है. पेस्टिसाइड्स ऐसे रसायन हैं, जिनका इस्तेमाल अधिक उत्पादन और फ़सलों को कीटों से बचाने के लिए किया जाता है. इनका इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिकों की सिफ़ारिश के मुताबिक़ सही मात्रा में किया जाए, तो फ़ायदा होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति ख़त्म होने लगती है और इससे इंसानों के अलावा पर्यावरण को भी नुक़सान पहुंचता है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए. ये नमूने उन इलाक़ों से लिए गए थे, जहां कपास की फ़सल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था. इसके साथ ही उन इलाक़ों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था. कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं. मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई. इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है. कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं. कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है. प्रदूषित जल से फल और सब्ज़ियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्ज़ियों में समा जाते हैं. सब्ज़ियों में पाए जाने वाले कीटनाशकों और धातुओं पर भी कई शोध किए गए हैं. एक शोध के मुताबिक़, सब्ज़ियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी ख़तरनाक धातुएं भी शामिल हैं. ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुक़सान पहुंचाती हैं. सब्ज़ियां तो पाचन तंत्र के ज़रिए हज़म हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं. यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं. इस प्रकार के ज़हरीले तत्व आलू, पालक, फूल गोभी, बैंगन और टमाटर में बहुतायत में पाए गए हैं. पत्ता गोभी के 27 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिनमें 51.85 फ़ीसद कीटनाशक पाया गया. इसी तरह टमाटर के 28 नमूनों में से 46.43 फ़ीसद में कीटनाशक मिला, जबकि भिंडी के 25 नमूनों में से 32 फ़ीसद, आलू के 17 में से 23.53 फ़ीसद, पत्ता गोभी के 39 में से 28, बैंगन के 46 में से 50 फ़ीसद नमूनों में कीटनाशक पाया गया. फ़सलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल की एक निश्चित मात्रा तय कर देनी चाहिए, जो स्वास्थ्य पर विपरीत असर न डालती हो. मगर सवाल यह भी है कि क्या किसान इस पर अमल करेंगे. 2005 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ मिलकर एक अध्ययन किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिकी स्टैंडर्ड (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के मुक़ाबले पंजाब में उगाई गई फ़सलों में कीटनाशकों की मात्रा 15 से लेकर 605 गुना ज़्यादा पाई गई. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिद्ध होगा, क्योंकि मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होगी. मिट्टी में कीटनाशकों के इन अवशेषों का सीधा असर फ़सलों की उत्पादकता पर पड़ेगा और साथ ही जैविक प्रक्रियाओं पर भी. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद प्रभावित होगी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्ज़ियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह से धोने से उनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन उनमें मौजूद विषैले तत्वों को भोजन से दूर करने का कोई तरीक़ा नहीं है. इसी धीमे ज़हर से लोग कैंसर, एलर्जी, हृदय, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी ज़हरीला होता जा रहा है. अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्ज़ियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है. ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्ज़ियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं. हालांकि देश में कीटनाशक की सीमा यानी मैक्सिमम ऐजिड्यू लिमिट के बारे में मानक बनाने और उनके पालन की ज़िम्मेदारी तय करने से संबंधित एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद फ़सलों को ज़हरीले रसायनों से बचाने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं की जाती. रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री श्रीकांत कुमार जेना के मुताबिक़, अगर कीटनाशी अधिनियम, 1968 की धारा 5 के अधीन गठित पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित दवाएं प्रयोग में लाई जाती हैं तो वे खाद्य सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती हैं. कीटनाशकों का पंजीकरण उत्पादों की जैव प्रभाविकता, रसायन एवं मानव जाति के लिए सुरक्षा आदि के संबंध में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुरूप वृहद आंकड़ों के मूल्यांकन के बाद किया जाता है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार स्वीकार कर चुके हैं कि कई देशों में प्रतिबंधित 67 कीटनाशकों की भारत में बिक्री होती है और इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से फ़सलों के लिए होता है. उन्होंने बताया कि कैल्शियम सायनायड समेत 27 कीटनाशकों के भारत में उत्पादन, आयात और इस्तेमाल पर पाबंदी है. निकोटिन सल्फेट और केप्टाफोल का भारत में इस्तेमाल तो प्रतिबंधित है, लेकिन उत्पादकों को निर्यात के लिए उत्पादन करने की अनुमति है. चार क़िस्मों के कीटनाशकों का आयात, उत्पादन और इस्तेमाल बंद है, जबकि सात कीटनाशकों को बाज़ार से हटाया गया है. इंडोसल्फान समेत 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल की अनुमति तो है, लेकिन कई पाबंदियां भी लगी हैं.
ग़ौरतलब है कि भारत में क्लोरडैन, एंड्रिन, हेप्टाक्लोर और इथाइल पैराथीओन पर प्रतिबंध है. कीटनाशकों के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे और विश्व में 12वें स्थान पर है. देश में 2006-07 के दौरान 74 अरब रुपये क़ीमत के कीटनाशकों का उत्पादन हुआ. इनमें से क़रीब 29 अरब रुपये के कीटनाशकों का निर्यात किया गया. ख़ास बात यह भी है कि भारत डीडीटी और बीएचसी जैसे कई देशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक भी है. यहां भी इनका खूब इस्तेमाल किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, डेल्टिरन, ईपीएन और फास्वेल आदि कीटनाशक बेहद ज़हरीले और नुक़सानदेह हैं. पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी में बिक रही सब्ज़ियों में प्रतिबंधित कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर सरकार को फलों और सब्ज़ियों की जांच करने का आदेश दिया है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार से कहा कि शहर में बिक रही सब्ज़ियों की जांच अधिकृत प्रयोगशालाओं में कराई जाए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि हम जांच के ज़रिये यह जानना चाहते हैं कि सब्ज़ियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल किस मात्रा में हो रहा है और ये सब्ज़ियां बेचने लायक़ हैं या नहीं. अदालत ने यह भी कहा कि यह जांच इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशाला या दूसरी प्रयोगशालाओं में की जाए. ये प्रयोगशालाएं नेशनल एक्रेडेशन बोर्ड फोर टेस्टिंग से अधिकृत होनी चाहिए. यह आदेश कोर्ट ने कंज्यूमर वॉयस की उस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए दिया है, जिसमें कहा गया है कि भारत में फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के मुक़ाबले 750 गुना ज़्यादा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लोरडैन के इस्तेमाल से आदमी नपुंसक हो सकता है. इसके अलावा इससे खू़न की कमी और ब्लड कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है. यह बच्चों में कैंसर का सबब बन सकता है. एंड्रिन के इस्तेमाल से सिरदर्द, सुस्ती और उल्टी जैसी शिकायतें हो सकती हैं. हेप्टाक्लोर से लीवर ख़राब हो सकता है और इससे प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर पड़ सकता है. इसी तरह इथाइल और पैराथीओन से पेट दर्द, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के समुचित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार आ सकता है. इससे खाद्य सुरक्षा में भी मदद मिलेगी. देश में हर साल कीटों के कारण क़रीब 18 फ़ीसद फ़सल बर्बाद हो जाती है यानी इससे हर साल क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये की फ़सल को नुक़सान पहुंचता है. भारत में कुल 40 हज़ार कीटों की पहचान की गई है, जिनमें से एक हज़ार कीट फ़सलों के लिए फ़ायदेमंद हैं, 50 कीट कभी कभार ही गंभीर नुक़सान पहुंचाते हैं, जबकि 70 कीट ऐसे हैं, जो फ़सलों के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़सलों के नुक़सान को देखते हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. देश में जुलाई से नवंबर के दौरान 70 फ़ीसद कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इन दिनों फ़सलों को कीटों से ज़्यादा ख़तरा होता है. भारतीय खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों का अवशेष 20 फ़ीसद है, जबकि विश्व स्तर पर यह 2 फ़ीसद तक होता है. इसके अलावा देश में सिर्फ़ 49 फ़ीसद खाद्य उत्पाद ऐसे हैं, जिनमें कीटनाशकों के अवशेष नहीं मिलते, जबकि वैश्विक औसत 80 फ़ीसद है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल के तरीक़े और मात्रा के बारे में जागरूकता की कमी है.
ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि पिछले तीन दशकों से कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर समीक्षा तक नहीं की गई. बाज़ार में प्रतिबंधित कीटनाशकों की बिक्री भी बदस्तूर जारी है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारें कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं. किसानों को अनुशंसित मात्रा में कीटनाशकों की पंजीकृत गुणवत्ता के प्रयोग, अपेक्षित सावधानियां बरतने और निर्देशों का पालन करने की सलाह दी जाती है. यह सच है कि मौजूदा दौर में कीटनाशकों पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए.