15 जुलाई : प्रभाष जोशी की जयंती
पुण्य प्रसून- प्रभाषजी जिस दौर में पत्रकारिता कर रहे थे, क्या उस वक्त की सक्रिय राजनीति में भी वे रहे? उनकी पत्रकारिता जब शुरू होती है तो वे सीधे सत्ता से टकराते दिखते हैं। तब इंदिरा गांधी सत्ता में थी और वह आपातकाल का दौर था। और फिर जहां वे पत्रकारिता छोड़ते हैं, यानी सक्रिय पत्रकारिता से सलाहकार की भूमिका में आते हैं, तबतक देश में अयोध्या आंदोलन शुरू हो चुका था। बाबरी मस्जिद की घटना घटी तो उनके जेहन में संघ के प्रति काफी गुस्सा भर गया, जो उनकी लेखनी में लगातार दिख रहा था। इस पूरे घटनाक्रम को आप किस तरह देखते हैं?
गोविंदाचार्य- मैं तो यह मानता हूं कि एक संवेदनशील पत्रकार मन स्थितियों का वस्तुपरक विश्लेषण कर रहा होता है। वह लोभ, मोह और क्रोध से बचता हुआ अपना आकलन प्रस्तुत करता रहता है। मैंने प्रभाषजी को हमेशा यही करते पाया। कभी अंतर्विरोध नहीं पाया। वे जब इंदिरा गांधी की तानाशाही से लड़ रहे थे, तब इंदिरा गांधी के प्रति उनके मन में कोई रोष नहीं था। वह एक लड़ाई थी, जिसे वे मुल्यों और मुद्दों के साथ लड़ रहे थे। इसमें व्यक्तिगत कुछ नहीं था। वही बात रामनाथ गोयनका में भी थी। गोयनकाजी ने हमेशा इंदिरा गांधी को अपनी बिटिया समान ही माना। मुझे ऐसा लगता है कि प्रभाषजी में जो गुण थे वह गोयनकाजी के करीब आने के कारण और भी पुष्ट हुए। मैं उनमें वही प्रवृत्ति रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान भी देखता हूं। विचारों के विरोध में खड़े होने के बावजूद व्यवहार में तलखी नहीं दिखती थी। उनमें सहज आत्मीयता दिखती थी। किसी से गहरे मतभेद होने के बावजूद, यहां तक कि उक्त व्यक्ति को दोषी समझने पर भी वे एक धरातल से ऊपर उठकर मानवीय संवेदना से रहित नहीं थे।
उदाहरण के रूप में देखें तो बाबरी मस्जिद की बात अभी आप कह रहे थे, तो मेरे मन में हमेशा यह उलझन रही कि प्रभाषजी इतने कटु कैसे हुए। तभी मेरी समझ में आया कि प्रभाष जोशी जी ने नरसिंह राव जी से वादा किया था कि संघ के रज्जु भैया कह रहे हैं, इसलिए ढांचे की सुरक्षा होगी। लेकिन इस घटना से संघ के प्रति उनकी आस्था टूट गई, क्योंकि संघ के बारे में कल्पना थी कि वह जो तय करेगा, वही होगा। इसके बावजूद वैसा क्यों नहीं हुआ। प्रभाषजी इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि वह घटना अनपेक्षित थी और उसको लेकर कोई योजना नहीं थी, क्योंकि उनकी यह आस्था थी कि संघ बगैर योजना के कोई कदम नहीं उठाएगा। उनके लिए यह मानना संभव ही नहीं था कि वहां सबकुछ हाथ से बाहर चला गया। ऐसी बात जो उनसे कहता था तो सदाचार के नाम पर सुन जरूर लेते थे, पर वे कहने वालों के प्रति संदेह रखने लगे। या फिर उक्त व्यक्ति को पर्दे के पीछे की घटना की जानकारी का न होने को और भी बुरा मानने लगे।
मेरी उनसे जुलाई, 1993 में इस संबंध में बात हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने तो नरसिंह रावजी से कहा था कि रज्जू भैया ने कहा है। अत: वहां कुछ नहीं होगा। रज्जू भैया ने कहा है कि छह हजार स्वयंसेवकों को उस ढांचे की सुरक्षा के लिए लगाया गया है। वहां कोई दुर्घटना नहीं होगी। दरअसल, प्रभाषजी की साख पर ही नरसिंह राव ने यह मान लिया था कि वहां कोई दुर्घटना नहीं होगी। लेकिन जब ढांचा टूटने लगा तब नरसिंह राव ने करीब सात बजे प्रभाषजी को फोन मिलाया। फिर कहा कि “आपने भी धोखा दे दिया। आपकी बात मानकर ही हमने तो कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की थी। आखिर आपने ऐसा बदला क्यों लिया?” यह सुनकर प्रभाषजी भौंचक्के रह गए थे कि प्रधानमंत्री ने मेरे ऊपर इतना भरोसा किया था और मैं उस भरोसे को निभा नहीं सका, क्योंकि जिस संघ पर मैं भरोसा करता था, वही गलत निकला। तो फिर आगे क्या होगा, क्योंकि यह कोई उपकरण हो ही नहीं सकता है। न ही दोबारा इसपर यकीन नहीं किया जा सकता है। मोहभंग होने की यह जो दास्तान है इसमें उनके संवेदनशील और आस्थावान मन की स्थिति हार की जीत कहानी के प्रमुख पात्र बाबा भारती की तरह थी। जुलाई, 1993 की मुलाकात के समय मैं यही महसूस कर रहा था।
पुण्य प्रसून-क्या नरसिंह राव ने प्रभाषजी पर उस वक्त इतना विश्वास किया था कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था तक नहीं की थी?
गोविंदाचार्य- जी हां। और उन्होंने किसी दूसरे पर इतना विश्वास नहीं किया था। तब सिर्फ ढांचा ही नहीं ढहा था, बल्कि विश्वास की डोर भी टूटी थी।
पुण्य प्रसून- तो क्या नरसिंह राव उस समय प्रभाषजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नुमाइंदा मान रहे थे?
गोविंदाचार्य- वे प्रभाषजी को मध्यथ के रूप में देख रहे थे।
पुण्य प्रसून- पर ऐसा लगता है कि उन्हें संघ के काफी करीब मान रहे थे?
गोविंदाचार्य- हां, भरोसे के साथ इतना करीबी मान रहे थे कि उनके जेहन में यह बात थी कि अकेले प्रभाषजी हैं जो देशहित को समझ रहे हैं। संप्रदायों के बीच के तनाव को भी अच्छी तरह महसूस करते हैं। दूसरी तरफ संघ को भी व्यक्तिगत रूप से जानते-पहचानते हैं। नरसिंह राव के मन में भी संघ के प्रति आत्मीयता थी। वे संघ को बचपने से जानते थे। अब इस जन अभियान पर संघ का नियंत्रण नहीं है, वे भी यह मानने की स्थिति में नहीं थे। छह दिसंबर को अचानक सबकुछ इतना उलट-पुलट हो गया कि वहां मंच पर बैठे लोग भी भौंचक्के रह गए थे।हां, मैं यह जरूर मानता हूं कि यदि उस समय महात्मा गांधी होते तो वे घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते। मुझे इस बात का दुख हुआ कि किसी ने घटना की नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली।
पुण्य प्रसून- यह माना जाना चाहिए कि तब प्रभाषजी पत्रकार की भूमिका में नहीं थे।
गोविंदाचार्य- मैं ऐसा मानता हूं कि तब वे केवल पत्रकार नहीं थे। जॉनसन्स आर रेयर्स बट बोस्टन्स आर रेयरर्स। कई बार बहुआयामी व्यक्तित्व का आंकलन सही तरीके से नहीं हो पाता है। इसके कई उदाहरण हैं। प्रभाषजी के साथ भी यही हुआ है। उनके व्यक्तित्व पर जो चीजें हमेशा हावी रहीं वह थी सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव। इस मित्र भाव में उम्र आड़े नहीं आई। यह स्वयं मैंने यह महसूस किया है। मुझे याद है 19 अप्रैल, 1992 को जब मैं तमिलनाडु एक्सप्रेस पकड़ने नई दिल्ली जा रहा था तब वे अचानक ही वहां पहुंच गए थे। हमें विदा करने स्टेशन आए। हालांकि, इसकी कोई वजह नहीं थी। वे पूरी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे और उन्हें ऐसा लगा भी होगा कि मेरे साथ कुछ अन्याय हुआ है। ऐसे में वे दुखी भाव से भरे थे, पर मेरा हौसला बुलंद करने स्टेशन आए थे। दरअसल, सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव में ही वे जीते थे। उनके स्वभाव का मूल पिंड मैंने यही पाया।
पुण्य प्रसून- अयोध्या की घटना के बाद प्रभाषजी दोनों समुदायों को मिलाने की कोशिश में जुटे थे। क्या यह माना जाए कि धोखा खाने के बाद एक प्रतिक्रिया थी कि वे मानने लगे थे कि आगे की जिम्मेदारी उनकी ही है?
गोविंदाचार्य- नहीं, इससे उलट था। यह कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। छह दिसंबर की घटना के बाद उन्हें लगा कि सिर्फ कोई ढाचा ही नहीं गिरा है, बल्कि काफी चीजें टूट और गिर चुकी हैं। इसके पहले की प्रक्रिया से वे जुड़े थे। अत: उन्होंने इसे जवाबदेही के रूप में लिया और माना कि इसकी भरपाई होनी चाहिए। उन्हें लगा कि वे गलती कैसे कर गए। उस गलती के परिमार्जन का दायित्वबोध उनमें आया। वह प्रतिक्रिया नहीं थी। यह भी साफ कर दूं कि वहां कटुता प्रतिक्रिया के कारण नहीं थी, बल्कि वह दायित्वबोध की वजह से आई। यह मैंने हमेशा निजी तौर पर महसूस किया है। मैं संघ परिवार से था। वे मुझे संघ परिवार का नुमाइंदा समझते थे, पर उससे क्या। इसके बावजूद निजी तौर पर मैंने उनमें कोई कटुता नई पाई। तब वे अपनी समझ व दृष्टि से एक दायित्ववान और संवेदनशील नागरिक के नाते चल रहे थे। उनको चोट पहुंची और इसी प्रतिक्रिया में वे थे, ऐसा बिल्कुल नहीं था।
पुण्य प्रसून- प्रभाषजी से कई राजनीतिक दल अक्सर सलाह-मशविरा लेते थे। यह कैसे होता था?
गोविंदाचार्य- वही मैं कह रहा हूं कि उनके सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव के कारण ही ऐसा होता था। उन्होंने किसी के भी संकुचित हितों को न तो दबाया, न ही आगे बढ़ाया। वे सर्वग्राही व सर्व स्वीकार्य थे, क्योंकि मन के बड़े थे। तभी गांधीवादी हों, सर्वोदयी हों या कोई और सभी उनके पास आते थे।
पुण्य प्रसून- मन का बढ़ा होने का क्या अर्थ लगाय जाए? एक तरफ वे सरकार की नई अर्थनीति का विरोध कर रहे थे। दूसरी तरफ उन्होंने मृत्यु से कुछ समय पहले ही मुझसे एक निजी बातचीत में कहा कि कांग्रेस के कुछ लोग आए थे जो यह पूछ रहे थे कि भाजपा जिस तरीके से समाज क भीतर हिन्दुत्व की बात कर रही है, उसका प्रति उत्तर कैसे दिया जाए। यही नहीं एक बार मैंने उनसे आपके बारे में मुखौटा प्रकरण पर पूछा था कि क्या बात इतनी भर ही है तो उन्होंने कहा कि नहीं। उन्होंने एक संदर्भ दिया कहा कि जब सरकार बनाने की बात आई तो वाजपेयी और आडवाणी ने स्वयं ही निर्णय ले लिया था। पार्टी के अंदर उसपर कोई विचार नहीं किया गया था। यहां हमारा सवाल है कि वह कांग्रेस हो या भाजपा वे हर तरफ विचरण कर रहे थे। तो ऐसे व्यक्ति को केवल मन का बढ़ा मानेंगे। सादासई मानेंगे। मित्र भर मानेंगे या फिर एक राजनीतिक कार्यकर्ता मानेंगे?
गोविंदाचार्य- गांधीजी के साथ प्रभाषजी का मन का जो सानिध्य था वह मूल पिंड सरीखा था। गाधी जी मूल रूप से राष्ट्र निर्माता थे और दुर्धटनावश राजनेता। मतलब यह कि राजनीति से परहेज नहीं, जरूरत आई तो राष्ट्र निर्माण के लिए उसका इस्तेमाल। यही प्रभाषजी का भी कलेवर था। अच्छे सदासई, संवेदनशील इंसान उनका पिंड था और राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य कलेवर था। इसलिए इसी अधिष्ठान पर खड़े होकर वे चलते थे। जिसे विनोबाजी ने बाद में निष्पक्ष-निर्भय कहा। वही बातें प्रभाषजी के जीवन में दिखलाई देती हैं। बिंदास भी थे, फक्कड़ थे। न उधो का देना, न माधो का लेना। यह सब करते हुए लोक-जीवन का जो व्यवहार था, उस व्यवहार में वे गांधी आदर्श अधिष्ठान पर खड़े थे। दोहरा इंसान तो गांधी के चरित्र को जीना नहीं चाहेगा। आप देखेंगे कि कई लोग दूर से काफी बड़े दिखते हैं, जबकि नजदीक आने पर छोटे दिखाई देते हैं। वहीं कई लोग दूर से छोटे जरूर दिखते हैं लेकिन धीरे-धीरे नजदीक आने पर बड़े दिखाई देते हैं। प्रभाष जोशी जी और विद्यार्थी परिषद के यशवंतराव केलकर को मैंने अपने जीवन में ऐसा ही पाया। ज्यों-ज्यों वे करीब पहुंचे, व्यक्तित्व उतना ही बड़ा होता नजर आया। आप रामबहादुर जी से बात करेंगे तो उनके विचार भी यही पाएंगे। ये दोनों गृहस्त थे। अच्छे पति, अच्छे पिता, अच्छे पत्रकार, अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर अच्छे आदमी थे।
पुण्य प्रसून- जिस राजनीतिक परिस्थितियों को प्रभाषजी ने अपने पत्रकारीय दौर में देखा और फिर नई आर्थिक नीतियों का दौर आया तो परिस्थितियां तेजी से बदलीं। क्या इस दौर में पत्रकारिता कमजोर हुई और राजनीतिक हालात भी बदल गए? या फिर वैचारिक शून्यता का दौर आ गया। आखिर वह कौन सी वजह थी कि प्रभाषजी अपने अंतिम दिनों राजनीति से ज्यादा पत्रकारिता के अंदर ही पेड-न्यूज की लड़ाई लड़ने को मजबूर हुए थे?
गोविंदाचार्य-हां, यह उन्होंने किया है। क्योंकि, मुश्किलें इतनी बढ़ गईं कि अपने-अपने मोर्चे को संभालने की बात हुई। अब जो लड़ाई शुरू हुई है, दरअसल वह नए किस्म की लड़ाई है। अंग्रेज तो दिखते थे। आज हम जिनसे लड़ रहे हैं, वे दिखलाई नहीं दे रहे हैं। वे छुपे हुए हैं और अपने ही लोग उसकी तरफदारी करते दिखते हैं। राजनीतिक पार्टियां इसमें अपवाद नहीं हैं। उनका हर जगह दोहरा चरित्र उजागर हो रहा है। आप भाजपा का ही उदाहण ले लीजिए। नागपुर में पानी का निजीकरण कर दिया गया। भाजपा वहां विरोध नहीं कर रही है, दिल्ली में विरोध करने की बात कह रही है। सेज का गुजरात में विरोध नहीं कर रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं। वह सभी पार्टियों के साथ है।
मैं समझता हूं कि आज विकेंद्रीकृत लड़ाई का समय आ गया है, जिस नाजुक दौर से लोकतंत्र गुजर रहा है, उसे प्रभाषजी समझ रहे थे। अत: प्रभाषजी भी मानते थे कि इन मुश्किलों से निपटने के लिए नया ढांचा, नया तरीका, नए औजार व नए लड़ाके चाहिए। अब कन्वेंसनल टूल्स से काम नहीं चलने वाला है। ऐसी परिस्थिति में ही उन्होंने पेड-न्यूज के खिलाफ मोर्चा संभाला था। जो जिस क्षेत्र से जुड़े हैं, वे वहां लड़ाई लड़ रहे हैं।
पुण्य प्रसून-आज मुश्किलें जो सामने हैं, उसमें गड़बड़ी कहां है? लोकतंत्र का कौन सा स्तंभ खत्म होने की कगार पर है?
गोविंदाचार्य- अब कुएं में ही भांग पड़ा हो तो वह बाल्टी में भी मिलेगा और लोटे में भी। प्रश्न यह है कि उससे निपटा कैसे जाए। ऐसे में जो समझ यह बन पाई है उसके अनुसार सत्ता शीर्ष को ठीक करने के लिए कुछ कोशिशें अंदर से यानी सत्ता और दल के भीतर करनी होंगे। और कुछ बाहर से, ताकि राजनीति को नियंत्रित किया जा सके। जनसंगठनों के माध्यम से विषयों को उठाया जाए और ऐसी स्थिति पैदा की जाए कि राजनीति पर उसका प्रभाव पड़े। इसमें दोनों पक्ष को मजबूत होना होगा, क्योंकि दोनों को बराबर की महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। यह लड़ाई कई मोर्चों पर लड़नी होगी। रणनीतिक तौर पर मैं इसे आवश्यक मानता हूं। प्रभाषजी एक मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे थे। पर आज स्थिति यह है कि मैदान पर उतरे सभी 22 फुटबॉल खिलाड़ी एक ही गोल पोस्ट में गोल दागने में लगे हैं तो अब दर्शक दीर्घा से ही खिलाड़ियों को चुनना होगा। यही वक्त का तकाजा है। आज देश को अराजकता के खतरे से बचाने के लिए सही, मजबूत और संवेदनशील विपक्ष की जरूरत है। इस लड़ाई के लिए नए लड़ाके और औजार की जरूरत पड़ेगी, उसे भी मांजना होगा।
पुण्य प्रसून- यह पूरी प्रक्रिया बताती है कि सामने एक दृष्टि होनी चाहिए कि देश को किस तरफ ले जाना है। फिलहाल यह कहीं दिख ही नहीं रहा है।
गोविंदाचार्य- बाहर से होगा। मैं देखता हूं कि भाजपा सहित किसी भी पार्टी में नीचे के लोग देश के लिए एक सपना पाले हुए हैं, पर ऊपर के लोग खुद के बारे में नक्शा बनाते दिखते हैं। मेरा कहना है कि नीचे के लोगों की अपील भी काम आ जाए और बाहर से जो विषय उठाए जा रहे हैं उस पर भी विचार हो। जैसे गंगा का विषय है। आप यदि इस मसले को उठाएंगे तो कृषि नीति, सिंचाई नीति, पर्यावरण और स्वास्थ्य नीति सब की बात उठानी होगी। इन सभी मसलों पर विचार करने होंगे।
पुण्य प्रसून- यह तो ठीक है, लेकिन देश को जाना कहां है?
गोविंदाचार्य- भारत को भारत बनाने की जरूरत है। अमेरिका, रूस, चीन या अब ब्राजील नहीं। भारत, भारत के नाते से अभी भी बचा हुआ है। इसकी जो अपनी शक्ति है वहीं इसे बचाए हुए है। इसलिए मैं मानता हूं धर्म सत्ता समाज सत्ता है, वह संस्कृति का ध्यान रखे। जीवन शक्ति, जीवन मूल्य व आदर्श का ध्यान रखे। राजसत्ता और अर्थ सत्ता यह अर्थ नीति और राजनीति का ध्यान रखे। इससे एक संतुलन बना रहेगा और समृद्धि भी होगी। यह भारतीय समाज की अपनी महत्ता है जिसने संबंधों पर आधारित समाज की रचना की है। इसने कॉन्ट्रक्ट पर आधारित समाज की रचना नहीं की है। भविष्य के लिए यह जरूरी है। मानव केंद्रित विकास की जगह प्रकृति केंद्रित विकास की तरफ दुनिया को लौटना होगा। भारत का यही मूल स्वभाव है तो हमें अपने मूल को संभाले रखना होगा ताकि भविष्य में हम दुनिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
ऐसे में हम पाते हैं कि एक लाइट हाउस की तरह महात्मा गांधी हमारे सामने हैं। उनसे पूर्ण हमें कोई दूसरा नजर नहीं आता है। गांधीजी की तरह रचनात्मक और आंदोलनात्म कामों का समन्वय रखने वाला कहीं और दिखाई नहीं देता है। जीवन और व्यवस्था का जो समन्वय हम गांधीजी में देखते हैं वह कहीं और नहीं है।
पुण्य प्रसून- आप भी गांधी का नाम लेते हैं। कांग्रेस भी लेती है। इसमें फर्क क्या है?
गोविंदाचार्य-वहां निर्णय प्रक्रिया की स्थिति में गांधीजी कहीं नहीं दिखते हैं। हां कांग्रेस में ऐसे लोग होंगे जिन्हें गांधीजी की विरासत में अच्छा स्वाद आता होगा। यह मैं मानता हूं। लेकिन कांग्रेस या फिर भाजपा की निर्णय प्रक्रिया में ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों ही बाजारवाद के साथ हैं।
पुण्य प्रसून- भाजपा यदि कल को नारा लगा दे कि गांधीजी का रास्ता ही देश का और हमारा रास्ता है तो क्या कोई संयोग बन सकता है?
गोविंदाचार्य- नारों से कैसे होगा। बात तो नीतियों पर होगी। अगर वे इसपर राजी हो जाते हैं तो देश का भला होगा। लेकिन मैं समझता हूं कि आज उनके लिए गांधीजी को नीतियों में उतारने के लिए शायद काफी कुछ चुकान और छोड़ना पड़ेगा। इस स्थिति में दोनों पार्टियां नहीं हैं।
पुण्य प्रसून- हम प्रभाषजी के घर जाते थे तो वहां गांधी की एक बड़ी तस्वीर लगी थी। आप भी गांधी का सवाल खड़ा करते हैं। कांग्रेस भी गांधी का नाम लेती है। तो हमें यह बताएं कि अगर गांधी की इतनी मान्यता है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इन चीजों को आत्मसात करे। पर उसने ऐसा नहीं किया है।
गोविंदाचार्य- ऐसा नहीं है। मुझे याद है कि 1964 में संघ के प्रात: काल के स्मरण में गांधीजी का नाम आया था। इस नाम को जोड़ा गया था। गुरुजी ने जोर देर गांधीजी के नाम को इसमें जुड़वाया था। तब से प्रात: स्मरण में गांधीजी का नाम अन्य दूसरे महापुरुषों से साथ लिया जाता है। लेकिन हां, इसे और गहरे तरीके से आत्मसात करने की जरूरत है। केवल नाम से तो बात नहीं बनेगी। जैसे- राम से बड़ा, राम का नाम। फिर राम के नाम से बड़ा राम का काम। यहां राम का काम भी करना होगा, तभी राम के दर्शन होंगे।
पुण्य प्रसून-आप इस दौर में ऐसा पत्रकार देखते हैं, जिसे राज्य का प्रमुख किसी आंदोलन की स्थिति में मध्यस्थता के लिए उसकी तरफ देख सकता है, जैसा कि अयोध्या आंदोलन के दौरान नरसिंह राव ने प्रभाषजी को चुना था। आज की स्थिति है कि राज्य पत्रकारों पर यकीन करेगा? या फिर क्या कोई आंदोलन की स्थित देश में है?
गोविंदाचार्य-मुझे लगता है कि आंदोलन तो जरूर होगा। हां, आंदोलन के जन्म लेने और उसकी विश्वसनीयता के पुख्ता होने के बाद राज्य को होश आएगा। फिर उन्हें इन सब की उपयोगिता महसूस होगी। आज ऐसे बहुत से लोग हैं जैसे अनुपम मिश्र हो, बनवारी जी हो, रामबहादुर हो ऐसे और भी लोग हैं। दक्षिण भारत में भी लोग हैं। उस समय इन सब की उपयोगिता राज्य महसूस करेगा।
आज आप कोई भी मुद्दा उठाएं, उसकी मार दूर तक जाएगी। पेड-न्यूज का मसला उठा तो बात दूर तक गई। गंगा का मुद्दा उठा तो उसका गहरा असर हुआ। आप कहीं से भी मुद्दे को उठाएंगे तो वह व्यवस्था परिवर्तन पर जाकर ही टिकेगी। पत्रकार बंधु यदि पेड-न्यूज की बात को आगे बढ़ाएंगे तो उससे भी आंदोलन के खड़े होने की पूरी संभावना है। प्रॉन्जय ठाकुरता सरीखे लोग इसमें जुटे हैं। मैंने पंचायतों को बजट का सात प्रतिशत हिस्सा देने की बात उठाई है। उसके पीछे उस इकाई को मजबूत करना है, जिससे गांव मजबूत हो सके।
पुण्य प्रसून- नई अर्थ व्यवस्था ने जिस संस्था को लेजिटिमेसी दे दी है उसके खिलाफ आप आंदोलन की बात कह रहे हैं। राज्य कहां से आपको अनुमति दे सकता है।
गोविंदाचार्य- इसलिए तो जन दबाव और जन संघर्ष की जरूरत पड़ेगी। दरअसल, राज्य की रचना ही इसलिए हुई थी कि वह उनका बचाव कर सके जो खुद का बचाव नहीं कर सकते। आज इससे उलट स्थिति है। हैसियत मंदों का बचाव किया जा रहा है। ऐसे में लड़ाई तो होगी और इसमें जो भी गांधीजी के सिद्धांत के आधार पर चलेंगे वे सही होंगे। यहां सही होना ज्यादा महत्वपूर्ण है, विजयी होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है।
पुण्य प्रसून- आप किस रास्ते हैं। संघ के रास्ते या गांधीजी के रास्ते?
गोविंदाचार्य- मैं दोनों रास्ते को एक मानता हूं। मेरा मानना है कि संघ के स्वयंसेवक होने के कारण जो मुझमें निस्वार्थता, देशभक्ति का संस्कार मिला और वही बात 1974 के आंदोलन में पहले सर्वोदय का विचार, बाद में समाजवाद से सर्वोदय की ओर जेपी की पुस्तक, फिर धीरेंद्र मजुमदार और तब महात्मा गांधी। यही मेरी वैचारिक यात्रा रही है। यहां अंतर केवल दो विषयों को लेकर था। एक हिंसा और अहिंसा के विषय को लेकर। दूसरा अल्पसंख्यों में मुसलमान समुदाय के प्रति समझ को लेकर। इन दो बातों को छोड़ दें तो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण लेकर जो धारा गांधीजी की रही, वही देश की धारा है। इसलिए वही संघ की भी धारा है। इन दोनों बातों के बारे में संवाद बहुत जरूरी था। वह नहीं हुआ।