बिहार की प्रचंड जीत से यूपी में नई इबारत लिखने के तैयारी

स्वदेश कुमार

     बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने न सिर्फ वहां की राजनीति की तस्वीर बदल दी है, बल्कि उत्तर प्रदेश की सत्ता-समीकरणों में भी एक नई हलचल पैदा कर दी है। एनडीए ने बिहार में जैसा ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है, वह भाजपा के भीतर उत्साह का नया ज़रिया बना है। 243 सीटों में से 200 के पार पहुंचना किसी साधारण जनादेश का संकेत नहीं है। यह ऐसा राजनीतिक संदेश है जिसे समझने वाले जानते हैं कि यह लहर बिहार की सीमाओं में कैद रहने वाली नहीं, बल्कि पूरे हिंदी पट्टी के राजनीतिक नक्शे को प्रभावित करने वाली है। भाजपा के लिए खास बात यह रही कि पहली बार वह बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनी। पिछले चुनाव में जहां भाजपा 74 सीटों पर रुक गई थी, वहीं इस बार वह लगभग 90 सीटों पर जीत और बढ़त बनाकर उभरी। दूसरी ओर जेडीयू भी 85 के करीब सीटें लेकर मजबूत साझेदार के रूप में सामने आई। महागठबंधन का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा आरजेडी 25 के आसपास और कांग्रेस 6 सीटों पर सिमट गई। यह वो परिदृश्य है जिसने पूरे राजनीतिक विमर्श को नई दिशा दी है।

     इस जीत के पीछे केवल संगठन या गठबंधन की ताकत ही नहीं, बल्कि यूपी के नेताओं का योगदान भी बराबर माना जा रहा है। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को बिहार चुनाव का सह प्रभारी बनाया गया था और उन्होंने मुजफ्फरपुर को केंद्र बनाकर 78 सीटों पर रणनीति संभाली। ओबीसी समाज को साधने की उनकी क्षमता बिहार में खासा प्रभावी साबित हुई। धर्मेंद्र प्रधान के साथ मिलकर तैयार की गई चुनावी योजना का असर जमीनी स्तर पर दिखा। यूपी के कई मंत्री ब्रजेश पाठक, महेंद्र सिंह, अनिल राजभर, दया शंकर सिंह, सुरेश राणा, दिनेश प्रताप सिंह और अन्य नेताओं ने महीनों तक गांव-गांव घूमकर कार्यकर्ताओं के साथ बूथ स्तर पर काम किया। यह मेहनत केवल रैलियों में भीड़ जुटाने तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह वोट प्रतिशत बढ़ाने की रणनीति का ठोस हिस्सा थी।

     इसी कड़ी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सभाओं का भी खासा असर दिखा। उन्होंने 32 रैलियाँ और एक बड़ा रोड शो किया। जिन 43 प्रत्याशियों के लिए उन्होंने प्रचार किया, उनमें से अधिकतर सीटें एनडीए की झोली में चली गईं। यह सिर्फ लोकप्रियता का असर नहीं था, बल्कि बिहार के मतदाता के बीच सुरक्षा, कानून व्यवस्था और विकास की छवि का असर जमाने की राजनीतिक कला का भी प्रदर्शन था। बिहार में योगी का नाम और काम दोनों ही एक सशक्त संदेश के रूप में इस्तेमाल हुए और नतीजों ने साबित किया कि यह रणनीति सफल रही।बिहार की इस भारी जीत का सबसे बड़ा असर अब उत्तर प्रदेश में दिखाई देगा। यूपी में 2027 के विधानसभा चुनाव अभी दूर लगते हैं, लेकिन भाजपा ने इसकी तैयारी अभी से शुरू कर दी है। संगठन में बदलाव, कैबिनेट फेरबदल और क्षेत्रीय समीकरणों को साधने की रणनीतियों पर विचार तेज हो गया है। जिस तरह बिहार में जातीय गणित को अलग ढंग से साधा गया और इसे विकास आधारित राजनीति के साथ संतुलित किया गया, उसे यूपी में भी लागू करने की कवायद शुरू होगी। भाजपा की शीर्ष नेतृत्वीय बैठकें अब बिहार मॉडल की समीक्षा कर रही हैं ताकि उसे यूपी में अपनाया जा सके क्योंकि भाजपा जानती है कि 2024 के झटके के बाद यह चुनाव सिर्फ सत्ता का सवाल नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिष्ठा का भी सवाल है।

     दूसरी तरफ, सहयोगी दलों की रणनीति भी बिहार परिणामों के बाद बदलने को मजबूर होगी। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने चुनाव से पहले 153 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा किया था, लेकिन अंततः केवल 32 पर उतर सकी और ज्यादातर सीटों पर हारते हुए उसकी जमानत तक जब्त हो गई। इससे यह संदेश गया कि क्षेत्रीय दल भाजपा पर दबाव बनाकर अपनी मोल-भाव क्षमता बढ़ाने का जो खेल खेलते आए थे, अब वह उतना सफल नहीं रहेगा। बिहार में एनडीए की मजबूती ने संकेत दिया है कि भाजपा अकेले भी चुनाव जीतने की क्षमता रखती है, और सहयोगी दलों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा।उधर समाजवादी पार्टी के लिए भी बिहार ने एक मजबूत संदेश छोड़ा है। भले ही सपा ने बिहार में चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन अखिलेश यादव ने कुल 22 सभाएं करके इंडिया गठबंधन के हिस्से के रूप में प्रचार किया। बिहार परिणामों ने सपा को यह सोचने पर मजबूर किया है कि सिर्फ कोर वोट बैंक के भरोसे चुनाव लड़ना अब संभव नहीं। एमवाई समीकरण का समय बीत चुका है और अखिलेश जिस पीडीए मॉडल की बात कर रहे हैं, उसे अब जमीनी स्तर पर लागू करने की जरूरत है। सपा के वरिष्ठ नेता भी मान रहे हैं कि 2027 की लड़ाई जातीय समीकरणों की जगह विकास और व्यापक सामाजिक साझेदारी के आधार पर लड़ी जाएगी। सपा को गैर-यादव ओबीसी, गैर-जाटव दलित और ग्रामीण समाज के नए वर्गों तक अपनी पहुंच बनानी होगी, क्योंकि बिहार परिणामों ने यह साफ कर दिया है कि जनता अब केवल जाति-आधारित राजनीति को स्वीकार करने के मूड में नहीं है।

      इसी बीच अखिलेश यादव ने SIR प्रक्रिया पर गंभीर आरोप लगाए और कहा कि बिहार में चुनावी खेल हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि यह खेल अब पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और यूपी में नहीं होने देंगे। सपा का दावा है कि उनका PPTV यानी पीडीए प्रहरी हर बूथ पर चौकन्ना रहेगा और संभावित गड़बड़ियों पर पैनी नजर रखेगा। इन आरोपों का भाजपा ने कड़ा जवाब दिया है। केशव प्रसाद मौर्य ने स्पष्ट कहा कि हार की आदत डाल चुके नेता अब प्रक्रिया पर सवाल उठाकर जनता के जनादेश को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका दावा है कि 2027 में यूपी में भी 2017 जैसा प्रचंड बहुमत मिलेगा।बिहार में एनडीए की यह दो सौ के पार की लहर भाजपा के लिए सिर्फ जीत नहीं, बल्कि 2027 की रणनीति का पहला अध्याय है। यह जीत बताती है कि जनता ने जंगलराज, परिवारवाद और जातीय उथल-पुथल से ऊपर उठकर सुशासन को चुना है। इसी सोच को यूपी तक ले जाने की तैयारी अब तेज होगी। भाजपा अपनी संगठनात्मक शक्ति, जातीय समीकरणों की समझ और विकास आधारित राजनीति का संतुलन बनाकर यूपी में भी बिहार जैसा परिणाम चाहती है। वहीं विपक्ष के लिए यह चुनाव चेतावनी है कि पुराने फार्मूलों को छोड़कर नई राजनीति अपनानी होगी।बिहार की यह सुनामी चाहे जितनी दूर तक जाए, इतना साफ है कि इसका असर यूपी की राजनीति तक जरूर पहुंचेगा और आने वाले महीनों में राज्यों के बीच राजनीतिक रणनीतियों की अदला-बदली और तेज होगी। 2027 का चुनाव किस दिशा में जाएगा, यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन बिहार का यह परिणाम यह संकेत देने के लिए काफी है कि राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं और अगले चुनाव में मुकाबला पहले से कहीं ज्यादा दिलचस्प, चुनौतीपूर्ण और अप्रत्याशित होने वाला है। 

                     

 

 

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