‘आई लव मोहम्मद’ के नाम पर देश में दहशत का माहौल

संजय सक्सेना की कलम से 

 

     देश में इन दिनों जिस तरह से कुछ योजनाबद्ध तरीके से खतरनाक स्लोगनों के सहारे समाज में जहर घोला जा रहा है, उसने संपूर्ण राष्ट्र को चिंता में डाल दिया है। आई लव मोहम्मद जैसे दिखने वाले मासूम से प्रतीत होने वाले नारे जब राजनीतिक-धार्मिक मकसद से फैलाए जाते हैं और उसके सहारे हिंसक व उन्मादी समूह यह संदेश देने लगते हैं कि यदि किसी ने उनके विचारों या धार्मिक प्रतीकों का अपमान किया तो उसके लिए केवल एक ही सजा है ‘सिर तन से जुदा’, तब यह मुहिम सिर्फ धार्मिक भावनाओं के प्रदर्शन तक सीमित नहीं रह जाती, बल्कि राष्ट्र की कानून-व्यवस्था, सामाजिक एकता और शांति के लिए गहरी चुनौती बन जाती है। देश के विभिन्न हिस्सों में इस तरह के उत्तेजक नारों और खतरनाक स्लोगनों की बाढ़ ने हालात को इतना बिगाड़ दिया है कि हर जगह तनाव और टकराव का वातावरण बन रहा है। यह केवल नारे या दीवारों पर लिखी बात नहीं है, बल्कि सुनियोजित तरीके से अराजकता और भय का माहौल तैयार करने की साजिश है।

      यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ अतिवादी तत्व इस मुहिम का उपयोग समाज को बांटने और हिंसा भड़काने के लिए कर रहे हैं। जब भी खुली सड़क पर या साइबर माध्यमों में ऐसे नारे लगते हैं, तो वह अविश्वास और डर का वातावरण बनाते हैं। लोग सोचने लगते हैं कि देश की कानून-व्यवस्था इतनी कमजोर हो गई है कि कोई भी समूह किसी भी समय खुलेआम कानून को धता बताकर हिंसा का संदेश फैला सकता है और शासन-प्रशासन बेबस बना हुआ है। यह परिस्थिति न सिर्फ राज्य की सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल तोड़ती है, बल्कि आम नागरिक को भी यह अनुभव कराती है कि उसकी सुरक्षा और सम्मान खतरे में है। स्थितियों को और गंभीर बनाने वाला पक्ष यह है कि इन अराजक तत्वों को सीधे तौर पर कुछ ऐसे राजनीतिक दलों और नेताओं का संरक्षण प्राप्त है, जो तुष्टिकरण की राजनीति में विश्वास रखते हैं। उन्हें यह लगता है कि इस तरह के उग्र नारों और असामाजिक कार्यों को संरक्षण देकर वे किसी विशेष वर्ग का वोट बैंक हमेशा अपने साथ बनाए रखेंगे। यह बेहद शर्मनाक दृश्य है जब राष्ट्रविरोधी और अशांतिपूर्ण गतिविधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है। इससे न सिर्फ लोकतंत्र कमजोर होता है, बल्कि संविधान और कानून की गरिमा पर भी दुर्भावनापूर्ण चोट पहुंचती है।

      ऐसे हालात में सबसे पहली चुनौती कानून-व्यवस्था पर पड़ती है। पुलिस और प्रशासन को हर उस समूह और व्यक्ति की पहचान करनी चाहिए जो इस तरह के खतरनाक स्लोगन लिखने, चिपकाने या फैलाने में शामिल हैं। नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए जब कोई खुलेआम ‘गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सिर तन से जुदा’ जैसे हिंसक नारे देता है, तो यह सीधे-सीधे देश की शांति और व्यवस्था के खिलाफ युद्ध जैसी घोषणा होती है। इसे किसी भी परिस्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसे कृत्यों पर कठोरतम प्रावधानों के तहत तुरंत कार्रवाई हो। कानूनी दृष्टि से देखा जाए तो यह न केवल समाज में वैमनस्य फैलाने का अपराध है, बल्कि देश की अखंडता और आपसी सौहार्द पर सीधा प्रहार है। ऐसे में सिर्फ दिखावटी गिरफ्तारी या हल्की-फुल्की कार्रवाई से काम नहीं चलेगा। पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को इन तत्वों के नेटवर्क को तोड़ना होगा, यह देखना होगा कि इनके पीछे किसकी वित्तीय व राजनीतिक मदद है और कौन इन्हें संरक्षण प्रदान कर रहा है। जब तक इस पूरे खेल को उजागर कर दोषियों को सख्त सजा नहीं दी जाती, तब तक यह मुहिम रुकने वाली नहीं है।ऐक्टिववियर

      यह भी जरूरी है कि इन आंदोलनों व नारों में शामिल लोगों को उदाहरणात्मक दंड मिले ताकि भविष्य में कोई भी व्यक्ति या समूह इस तरह की दुस्साहसिक हरकत करने का साहस न कर सके। देश में पहले भी कई बार देखा गया है कि जब सख्त कार्रवाई होती है तो अराजक तत्वों का हौसला टूटता है और वह पीछे हट जाते हैं। लेकिन जब ढिलाई बरती जाती है या राजनीतिक दबाव में मामलों को रफा-दफा कर दिया जाता है, तो यह तत्व और ज्यादा ताकतवर होकर उभर आते हैं। इसलिए इस समय की मांग है कि सरकार और न्यायपालिका दोनों मिलकर ऐसे कठोर फैसले लें जो आने वाली पीढ़ियों के लिए उदाहरण बनें।

     इस पूरी स्थिति का दूसरा पहलू समाज में फैल रहा भय और असुरक्षा है। एक नागरिक के तौर पर हर व्यक्ति यह चाहता है कि वह बिना डर के अपने विचार रख सके, देश के हर हिस्से में सुरक्षित रह सके और प्रशासन उसकी सुरक्षा की गारंटी ले। जब सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक ऐसे हिंसक नारे फैलने लगते हैं, तो सामान्य नागरिक के मन में असुरक्षा की भावना घर कर जाती है। यह सीधे-सीधे लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है। लोकतंत्र की बुनियाद यह है कि हर व्यक्ति कानून के नियमों के तहत स्वतंत्र और सुरक्षित जीवन जी सके। अतः यह बेहद जरूरी हो गया है कि राष्ट्र के सभी जिम्मेदार नागरिक मिलकर इस दुष्प्रचार और सांप्रदायिक जहरीले खेल के खिलाफ खड़े हों।सवाल यह भी उठता है कि इस मुहिम को चालू रखने वालों का असली मकसद क्या है। क्या वे सिर्फ धर्म के नाम पर भावनाएं भड़काना चाहते हैं, या फिर देश की स्थिरता और शांति को तोड़ना चाहते हैं। इसकी तह तक जाना और इसका भंडाफोड़ करना बेहद आवश्यक है। जब तक यह साफ नहीं होगा कि असली खिलाड़ी कौन है, तब तक इस खेल को पूरी तरह समाप्त करना संभव नहीं है। लेकिन यह निश्चित है कि इनके लक्ष्य राष्ट्र और समाज के लिए घातक हैं।ऐक्टिववियर

      इस सच्चाई को समझना भी आवश्यक है कि इस तरह के खतरनाक नारे न सिर्फ हिंदू और मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी करते हैं, बल्कि दूसरे सभी समाजों को भी भय के घेरे में डालते हैं। जब समाज भयभीत होता है, तो वहां विकास, शिक्षा, रोजगार और प्रगति की राहें बंद हो जाती हैं। इसलिए इन नारों के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ कानून-व्यवस्था बनाए रखने का सवाल नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र के भविष्य और प्रगति से भी जुड़ा मामला है। अब सवाल है कि इस पर कार्रवाई कैसे हो। सबसे पहले सभी स्थानों पर फैले इन विवादित स्लोगनों को तुरंत हटाया जाना चाहिए। इसके बाद, ऐसे स्लोगन फैलाने वालों की पहचान कर उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह और समाज विरोधी कृत्यों के तहत मुकदमे दर्ज किए जाने चाहिए। सोशल मीडिया पर इसका प्रसार करने वाले खातों को तुरंत बंद कर, उन व्यक्तियों को न्यायालय में पेश किया जाना चाहिए। नेताओं और राजनीतिक दलों की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए, ताकि यह साफ हो कि कौन लोग राष्ट्रविरोधी तत्वों को संरक्षण दे रहे हैं। यदि राजनीतिक संरक्षण साबित हो तो उन नेताओं पर भी कठोर कार्रवाई हो, चाहे वे कितने ही बड़े पदों पर क्यों न हों।

                                                (लेखक स्वतंत्र, वरिष्ठ पत्रकार है उपरोक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं)

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

*