-राकेश दुबे
राजस्थान कांग्रेस के बीते कई सालों के ज्ञात इतिहास में, पहली बार ऐसा हुआ है कि जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के लिए सीधे नाम तय करने के बजाय जिलों से समर्थन आधारित आवेदन मांगे गए हैं। परंपरागत रूप से अब तक कांग्रेस आलाकमान ही जिलाध्यक्षों की सीधी नियुक्ति करता रहा है, परंतु इस बार संगठन में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देने की कोशिश की गई है। प्रदेश के लगभग 50 जिलों से करीब 3,000 कांग्रेसजनों ने जिलाध्यक्ष बनने के लिए आवेदन जमा किए हैं। हालात, एक अनार सौ बीमार वाले हैं। इतनी बड़ी यह संख्या भले ही पार्टी की आंतरिक सक्रियता दिखाती है, लेकिन साथ ही यह भी सवाल खड़ा करती है कि इतने इच्छुक उम्मीदवारों में से किसे चुना जाए। और सवाल यह भी है कि जिसे चुना जाएगा, क्या बाकी सारे उसके साथ रहेंगे?
संगठन में खींचतान ज्यादा
अखिल भारतीय कांग्रेस के महासचिव सचिन पायलट और राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री रहे दिग्गज नेता अशोक गहलोत के समर्थक अपने-अपने नेता के आशीर्वाद से जिलाध्यक्ष पद पाने की उम्मीद में जुटे हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा भी निश्चित रूप से इसी तरह से अपने लोगों को पद पर लाना चाहते ही होंगे। हर गुट चाहता है कि उसके नजदीकी चेहरे को संगठन में स्थान मिले। इसी कारण यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक कम और गुटीय शक्ति प्रदर्शन अधिक लगने है, जिससे संगठन में समरसता व आंतरिक लोकतंत्र की बजाय खींचतान की संभावना ज्यादा बढ़ती दिख रही है।
जिलों में प्रक्रिया पूर्ण, दिल्ली में अंतिम चरण की बैठकों का दौर
राजस्थान कांग्रेस में जिलाध्यक्ष चयन की प्रक्रिया अब दिल्ली पहुंच गई है। राज्य स्तर पर सभी जिलों में कार्यकर्ताओं से आवेदन और समर्थन जुटाने का दौर समाप्त हो चुका है। अब यह पूरा प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के पास है। वे 25 अक्टूबर को नई दिल्ली में प्रदेश नेतृत्व व प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा के साथ बैठक कर चुके हैं, जिनमें संभावित नामों पर गहन मंथन होना बताया गया है। पार्टी नेतृत्व इस बार ऐसा संतुलन साधने की कोशिश में है, जिससे संगठन में सभी खेमों का प्रतिनिधित्व हो सके। हालांकि प्रदेश के बड़े नेता, विशेषकर गहलोत, डोटासरा और पायलट के बीच की आंतरिक प्रतिस्पर्धा चयन प्रक्रिया पर स्पष्ट रूप से प्रभाव डाल रही है, ऐसा माना जा रहा है। दिल्ली में बैठकों का दौर यह संकेत देता है कि कांग्रेस संगठन अपनी जमीनी और शीर्ष दोनों परतों के बीच संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अंतिम सूची जारी होते ही असंतोष के स्वर उठने तय माने जा रहे हैं।
गहलोत के बयान का मतलब
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिलाध्यक्षों के चयन को लेकर ‘नेताओं को पंचायती न करने’ की सलाह दी है। गहलोत का यह बयान साधारण नहीं माना जा रहा। राजस्थान कांग्रेस में गहलोत का कद सबसे ऊंचा है और उनका हर वक्तव्य संगठन में संदेश की तरह लिया जाता है। दरअसल, गहलोत यह संकेत दे चुके हैं कि जिलाध्यक्षों की नियुक्ति पूरी तरह संगठन की सामूहिक सोच पर आधारित होनी चाहिए। लेकिन यह बात भी उतनी ही स्पष्ट है कि गहलोत खेमे के कई नेता जिलाध्यक्ष पद के लिए जोरशोर से सक्रिय हैं। उनके इस बयान का सीधा अर्थ यह हैं कि यह पार्टी में एकता का संदेश है, तथा संगठन जो करेगा वही सही होगा। माना जाता है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डोटासरा मूल रूप से गहलोत के समर्थक हैं। अतः गहलोत विरोधी खेमे में यह भी कहा जा रहा है कि गहलोत अपने प्रतिद्वंद्वी गुटों, विशेषकर पायलट खेमे को अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दे रहे हैं कि संगठन के फैसले में ज्यादा दखल न दें। उनके शब्दों का असर संगठन के अंदर गहराई तक है और यही कारण है कि जिलाध्यक्षों की नियुक्ति अब शक्ति-संतुलन की बड़ी परीक्षा बन गई है।
एक पद 50 उम्मीदवार
कांग्रेस में हर जिले से औसतन 50 से अधिक नेताओं ने जिलाध्यक्ष बनने के लिए आवेदन दिए हैं। यह आंकड़ा बताता है कि पार्टी में स्थानीय स्तर पर महत्वाकांक्षा बहुत ज्यादा बढ़ी हुई है, लेकिन उत्साह भी बहुत है। हालांकि, हर जिले में कम से कम 10 से 15 ऐसे कांग्रेसजनों ने भी आवेदन किए हैं, जिनके साथ जिले भर में 10 कार्यकर्ता भी नहीं है। फिर भी बहुत बड़ी संख्या में लोगों के जिलाध्यक्ष बनने की मंशा पालने की यह स्थिति संगठनात्मक चुनौती भी बन रही है। एक जिले में जब इतने दावेदार होंगे, तो अंतिम चयन के बाद बाकी दावेदारों का समर्थन मिलना बेहद मुश्किल होगा। राजनीति विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि जिस नेता को पद नहीं मिलता, वह अक्सर मौन असंतोष का हिस्सा बन जाता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या चुना गया जिलाध्यक्ष अपने ही जिले के कार्यकर्ताओं का विश्वास जीत पाएगा? हालांकि, कांग्रेस में यह पहली बार नहीं हो रहा, लेकिन इस बार विरोध की संभावनाएं कहीं ज्यादा हैं, क्योंकि सबको खुलकर अध्यक्ष पद के लिए आवेदन का मौका दिया गया है। परिहार कहते हैं कि बहुत संभव है कि जब किसी एक का नाम सामने आएगा, तो असंतोष के स्वर हर जिले से सुनाई देंगे। यह स्थिति संगठन की एकजुटता के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकती है।
संगठनात्मक चुनौती
राजस्थान कांग्रेस पहले से ही गुटबाजी की मार झेल रही है। अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री रहते हुए सचिन पायलट ने जिस तरह से 5 साल तक लगातार विरोध किया और खेमेबाजी को हवा दी, उसके बाद से खींचतान जगजाहिर है। पायलट की इसी गुटबाजी को हवा देने तथा खींचतान की वजह से कम से कम 15 सीटों पर हार जाने से कांग्रेस को सरकार से बाहर होना पड़ा। वरिष्ठ पत्रकार हरि सिंह राजपुरोहित कहते हैं कि ऐसे हालात में, जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की इस नई लोकतांत्रिक पद्धति के जरिए, कांग्रेस ने, इस अंतर्विरोध को और गहरा करने का जोखिम उठा लिया है। कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर मानते हैं कि परंपरा से हटकर आवेदन-आधारित प्रक्रिया को अपनाना कांग्रेस में लोकतांत्रिक कदम कहा जा सकता है, लेकिन इससे संगठनात्मक अनुशासन पर सवाल उठे हैं। सोनवलकर कहते हैं कि इस प्रक्रिया से हर जिले में अनेक धड़े सक्रिय हो सकते हैं, जो कि पहले से ही हैं, और जिलाध्यक्ष पद पर आने वाले व्यक्ति के निर्णयों से असंतुष्ट होकर जिलाध्यक्ष के विरोध की अलग राह भी पकड़ सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार हरि सिंह राजपुरोहित का मानना है कि यदि असंतोष को समय रहते नहीं संभाला गया, तो यह आने वाले चुनावों में कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचा सकता है। संगठन के मजबूत करने की ईमानदार भावना की जगह यदि आंतरिक प्रतिस्पर्धा हावी रही, तो यह पूरी प्रक्रिया पार्टी के लिए लाभ की बजाय हानि का सौदा साबित हो सकती। यही वजह है कि राहुल गांधी के निर्देशों के कारण नई प्रक्रिया तो अपना ली गई है, लेकिन कांग्रेस आलाकमान इस बार संतुलित और रणनीतिक फैसले लेने के दबाव में है, क्योंकि, युवक कांग्रेस के संगठन का हाल – बदहाल वह भुगत ही रही है।


