नोट: इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा मुझे एक वीडियो से मिली क्योंकि मैं बॉलीवुड से नितांत अलग था और बचपन से ही अलग ।
सिनेमा और रेप कल्चर : एक गीत के बहाने एक व्यापक समीक्षा
(Cinema as a Mirror and Multiplier of Rape Culture)
सिनेमा को आजकल समाज का “दर्पण” भी कहा जाता है, लेकिन यह केवल दर्पण ही नहीं है यह समाज का निर्माता भी है।
क्योंकि जाने अनजाने ( प्रत्यक्ष परोक्ष) में यह समाज पर प्रभाव तो डाल ही रहा है ।
जो दृश्य, संवाद और गीत बड़े परदे पर दिखते हैं, वे सिर्फ मनोरंजन नहीं होते; वे समाज के व्यवहार, संवेदनाओं और नैतिकता को आकार देते हैं।
इसी संदर्भ में पुराने समय का एक लोकप्रिय गीत
“अठरा बरस की कुँवारी कली थी, फँसी गोरी चने के खेत में…” एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है:
यह गीत इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।
यदि इसकी लिरिकल सामग्री को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह एक नाबालिग लड़की के साथ होने वाली ज़बरदस्ती, बलात् और घेराबंदी, बेबसी और सामाजिक शर्म को “रोमांटिक” और “मनोरंजक” रूप में प्रस्तुत करता है।
यह सिर्फ एक गीत नहीं है बल्कि भारतीय लोकप्रिय संस्कृति के एक बड़े पैटर्न की निशानी है। हमारे समाज को विनाश की ओर ढकेलने की तैयारी है ।
गीत का विश्लेषण : ज़बरदस्ती को रोमांस में बदलने की प्रवृत्ति
गीत में लड़की से कहलवाया जा रहा है “फँसी गोरी” “ ज़ुल्मी ने पकड़ी कलाई” “ शिकारियों के घेरे” ( गैंग रेप) “जवानी के लुटेरे” “क्या-क्या हुआ मेरे साथ रे”
फिर भी गीत की धुन, लोकेशन, फिल्मांकन और नृत्य सब “मस्ती”, “छेड़छाड़”, “उत्साह” की शैली में हैं। अर्थात् रेप में भी उत्साह दिखाया जा रहा है ।
यह गंभीर हिंसा को “मज़ाकिया”, “अशरफी-छर्रा रोमांस” और “देहात की शरारत” जैसा रंग देता है।
यही rape culture की नींव है ।जहाँ अपराध को अपराध नहीं, बल्कि “युवा जोश”, “मस्ती” और “छेड़खानी” बताया जाता है।
प्रेम और पीछा करने (Stalking) का मिश्रण : दुर्व्यवहार का सामान्यीकरण
भारतीय सिनेमा में दशकों से यह narrative चलता आया है कि ,लड़की “ना” कहेगी , लड़का ज़ोर डालेगा , लड़की धीरे-धीरे “हाँ” कर देगी
यह फ़ॉर्मूला अनगिनत फिल्मों और गीतों में दोहराया गया है, जिसमें , पीछा करना, कलाई पकड़ना, जबरदस्ती नाचने के लिए खींचना, सुनसान में रोकना , बिना अनुमति छूना इत्यादि ।
इन्हें “रोमांटिक मूव्स” के रूप में दिखाया गया।
लड़कियों की “असंवेदना” या “ना” को “शर्म”, “ना-नुकुर” या “नखरे” बताया गया।
यह cinematic device युवाओं को यह सिखाता है कि
ना का मतलब कभी-कभी हाँ भी हो सकता है।
जबरदस्ती का अर्थ रोमांस।
और सीमाएँ पार करना , अर्थात मर्दानगी।
इसी मानसिकता के कारण समाज में छेड़खानी, पीछा करने और यौन आक्रामकता को गंभीर अपराध नहीं समझा जाता।
पीड़िता की चुप्पी का महिमामंडन
गीत में लड़की कहती है कि “ ऐसे कैसे सबको कहानी बताऊँ?” “ कोई भी तो आया न हाथ रे…”
यह वह वास्तविक पीड़ा है जिसे गीत में मनोरंजन सामग्री में बदल दिया गया।
इस प्रकार के चित्रण युवा दर्शकों में यह धारणा बनाते हैं कि,
पीड़िता को चुप रहना चाहिए अर्थात उसका रेप भी हो जाये पर वह चुप रहे नहीं तो समाज उसकी बात पर हँसेगा
और उसे ही शर्म आएगी ।
यही rape culture का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें
अपराध को छिपाना, पीड़िता को दोषी महसूस कराना, और अपराधियों के व्यवहार को ‘यौवन’ मान लेना।
अब #तहर्रूश समझिये । तहर्रूश क्या होता है अलग से गूगल कर लें ।
घेराबंदी, भीड़ और “लुटेरे” और अपराधियों का ग्लैमराइजेशन
गीत में अपराधियों को “जवानी के लुटेरे” कहा गया है अर्थात्
हिंसा को “युवा ऊर्जा” का रूप दिया गया है।
यह ग्लैमराइजेशन केवल पुराने गीतों तक सीमित नहीं।
बॉलीवुड ने बार-बार यही किया है और करते आ रहे हैं ।
यही visual language युवा लड़कों को सिखाती है कि aggression = attraction।
अब आप प्रश्न करें कि सिनेमा समाज का दर्पण या समाज का निर्माता? अथवा हमें गर्त में डाल रहा है ।
सिनेमा के निर्माताओं का अक्सर तर्क होता है कि हम समाज को जैसा है वैसा दिखाते हैं।
लेकिन सिनेमा केवल दिखाता नहीं बल्कि यह मॉडलिंग, रिपीटिंग और नॉर्मलाइजिंग भी करता है।
अगर एक व्यवहार , गीतों में बार-बार सुनाई दे , फिल्मों में लगातार दिखाया जाए , हीरो द्वारा किया जाए तो वह समाज में स्वीकार्य बन जाता है।
इसलिए सिनेमा वस्तुतः दर्पण और ढालने वाला दोनों है।
समाधान : क्या किया जा सकता है?
Consent को रोमांस का नया केंद्र बनाया जाना चाहिये । तथा स्टॉकिंग और हेरासमेंट को कॉमेडी या रोमांस की जगह अपराध की तरह दिखाया जाना चाहिए । महिलाओं की इच्छाओं, सीमाओं और agency को मुख्य भूमिका में लाना चाहिए । गीतों और फिल्मों का सामाजिक समीक्षात्मक मूल्यांकन होना चाहिये । फिल्मकारों की संवेदनशीलता का मूल्यांकन होना चाहिये ।
सिनेमा जितना बड़ा प्रभाव पैदा कर सकता है, उतना ही बड़ा बदलाव भी ला सकता है।
“अठरा बरस की कुँवारी कली थी…” जैसे गीत सिर्फ एक उदाहरण हैं।
लेकिन यह उदाहरण यह दिखाता है कि सिनेमा ने वर्षों तक कि ज़बरदस्ती को रोमांस, पीछा करने को प्रेम, लड़की की चुप्पी को मर्यादा, और हिंसा को मर्दानगी के रूप में प्रस्तुत किया।
यही वह invisible framework है जिसे आधुनिक समाज में rape culture कहा जाता है
जहाँ यौन हिंसा को हिंसा नहीं, बल्कि “पुरुष व्यवहार”, “शरारत” या “प्रेम का तरीका” मान लिया जाता है।
सिनेमा इस संस्कृति को दर्शाता भी है और बढ़ाता भी।
और इसलिए इसकी समीक्षा, पुनर्विचार और सुधार
आज अधिक आवश्यक है जितना कभी था।


