90% देशों ने एएमआर योजना तो बनायी पर सिर्फ़ 11% ने उसे वित्तीय पोषण दिया

शोभा शुक्ला

     ल्पना कीजिए कि 97 साल पहले उन लोगों का क्या हाल होता होगा जो बैक्टीरिया से होने वाले रोगों से बीमार थे परंतु 1928 तक एंटीबायोटिक दवा का इजात ही नहीं हुआ था। एंटीबायोटिक की दवा आने के बाद अनेक जानलेवा और लाइलाज संक्रमणों का इलाज आसान हो गया। परंतु दवाओं के ग़ैर-जिम्मेदारी के साथ बढ़ते अनुचित और दुरुपयोग के कारण, रोग पैदा करने वाले जीवाणु, दवा प्रतिरोधक हो जाते हैं जिसे एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस या एएमआर कहते हैं। दवा प्रतिरोधकता के बाद दवाएं काम नहीं करती, रोग का इलाज मुश्किल हो जाता है (नई दवाएँ चाहिए जो अत्यंत सीमित हैं और महँगी हैं) और रोग लाइलाज तक हो सकता है।

इसीलिए यह अत्यंत ज़रूरी है कि दवाओं के दुरुपयोग पर पूर्णत: रोक लगे, और दवाएं का उपयोग जिम्मेदारी से हो।

एक जटिल समस्या यह भी है कि दवाओं का दुरुपयोग सिर्फ मानव स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पशुपालन, खाद्य और कृषि वर्गों में भी चिंताजनक स्तर तक व्याप्त है। पर्यावरण तक एएमआर पहुंचना (नदी आदि में) अत्यंत गंभीर बात है।
 

भारत समेत 90% देशों ने एएमआर योजना तैयार की है

भारत समेत 90% देशों के पास अन्तर्वर्गीय एएमआर योजना है जिससे कि दवाओं के दुरुपयोग और अनुचित उपयोग पर विराम लग सके। यह योजना सिर्फ मानव स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है बल्कि पशुपालन और पशु स्वास्थ्य, कृषि और खाद्य वर्गों के संदर्भ में भी है।

89% देशों के पास एएमआर योजना तो है पर इन योजनाओं का वित्त पोषण नहीं किया गया है।

एक चुनौती यह भी है कि इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए अनेक सरकारी मंत्रालय और विभागों और अन्य संस्थाओं और वर्गों का सहयोग आवश्यक है – उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य मंत्रालय/ विभाग, कृषि और खाद्य मंत्रालय/ विभाग, पशुपालन संबंधित मंत्रालय/ विभाग, पर्यावरण मंत्रालय/ विभाग, जल मंत्रालय/ विभाग, आदि।
 

एएमआर रोकने के लिए 4 वैश्विक संस्थाओं की साझा पहल

 

वैश्विक स्तर पर जो मानव स्वास्थ्य पर सबसे बड़ी संस्था है – विश्व स्वास्थ्य संगठन – डबल्यूएचओ, पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम – यूएनईपी, संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संस्था – एफएओ, और अंतरराष्ट्रीय पशु स्वास्थ्य संस्था – डबल्यूओएएच ने एएमआर पर रोक लगाने के लिए साझा पहल की है। डॉ जीन-पियरे नयमाज़ी इस क्वाड्रीपार्टाइट सचिवालय के अध्यक्ष हैं।

डॉ नयमाज़ी ने कहा कि हालांकि दुनिया के 10 में से 9 देशों ने एएमआर योजनाएं तो बना ली हैं पर सिर्फ़ 10 में से 1 देश ही उसको वित्तीय पोषण दे पा रहा है। यदि एएमआर रोकना है तो सभी देशों को प्रभावकारी योजना को लागू करना होगा और जो वित्तीय पोषण आवश्यक है वह करना होगा।

डॉ नयमाज़ी ने याद दिलाया कि 2024 संयुक्त राष्ट्र महासभा में दुनिया के सभी देशों के अध्यक्ष जब एएमआर उच्च-स्तरीय बैठक में मिले थे तो उन्होंने 2030 तक कम से कम 60% देशों में पूरी तरह से वित्तीय पोषित योजनाओं को लागू करने का वादा किया था। संयुक्त राष्ट्र द्वारा संचालित एएमआर मल्टी-पार्टनर ट्रस्ट फण्ड (एएमआर एमपीटीएफ) भी एक प्रमुख ज़रिया है जो 6 साल पहले सभी देशों ने मिल कर स्थापित किया और नीदरलैंड ने सबसे पहले अमरीकी डॉलर 5 मिलियन का अनुदान दिया।

डॉ नयमाज़ी ने समझाया कि दवाओं के दुरुपयोग के कारण, रोग उत्पन्न करने वाले रोगाणु जैसे कि बैक्टीरिया (जैसे कि टीबी बैक्टीरिया) , वायरस (जैसे कि एचआईवी वायरस), फंगस (जैसे कि फंगल त्वचा रोग), पैरासाइट (जैसे कि मलेरिया पैरासाइट) आदि, दवा प्रतिरोधकता उत्पन्न कर लेते हैं, इसीलिए इन रोगाणु से संक्रमित होने वाले लोग भी दवा प्रतिरोधक संक्रमण का शिकार हो जाते हैं। संक्रमण बचाव और नियंत्रण अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि अन्य रोग से बचाव और नियंत्रण कार्यक्रम जैसे कि टीकाकरण आदि भी सशक्त होने चाहिए जिससे कि लोग रोग से संक्रमित ही न हों। रोग नहीं होगा तो कोई दवा लेगा ही क्यों? रोग नियंत्रण और बचाव तो यूँ भी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए।

डॉ न्यामज़ी, 5वें ग्लोबल मीडिया फोरम ऑन एएमआर को उद्बोधित कर रहे थे। उन्होंने ग्लोबल एएमआर मीडिया अलायन्स (गामा) के लगभग 1000 प्रतिभागियों से कहा कि एएमआर मल्टी-पार्टनर ट्रस्ट फण्ड को पोषित करने की साझी जिम्मेदारी सभी सरकारों की है – विशेषकर कि अमीर देशों की सरकारों की जिससे कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा पर मंडरा रहा एएमआर का खतरा टल सके।

कोविड के चरम के दौरान दुनिया ने देखा था कि कोविड किसी भी देश में पनप रहा हो – हब सब को ख़तरा था। कोविड ने सिर्फ़ स्वास्थ्य सुरक्षा ही नहीं ध्वस्त की, बल्कि आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को भी अत्यंत कुंठित किया।

स्वास्थ्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के तारतम्य को समझते हुए हमें एएमआर जैसी चुनौती का सामना करना है।
 

एएमआर बहु-भागेदारी वाली न्यास निधि

 

संयुक्त राष्ट्र के एएमआर नियंत्रण के लिए विशेष न्यास निधि सिर्फ विकासशील देशों को अनुदान देने के लिए है जिससे कि वह अपना एएमआर अंतरवर्गीय योजना को पूर्णत: लागू कर सकें। अनेक देश इससे लाभान्वित हो चुके हैं और एएमआर योजना को लागू कर रहे हैं।

 

ज़िम्बाब्वे ने एएमआर नियंत्रण कर के दिखाया स्वास्थ्य, खाद्य और आर्थिक हित

 

ज़िम्बाब्वे ने 2019 में एएमआर मल्टी-पार्टनर न्यास निधि से अनुदान ले कर, सबसे पहले मवेशी आदि के लिए टीकाकरण फैक्ट्री को पुन: चालू किया जिससे कि मवेशी आदि पशुओं में टिक-बोर्न रोग न हो। इस रोग के कारण अक्सर दवाओं का दुरुपयोग होता था। यदि मवेशी आदि में यह रोग ही न होगा तो दवाओं के दुरुपयोग पर भी लगाम लगेगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ज़िम्बाब्वे के डॉ टप्फ़ुमानें माशे ने बताया कि जिम्बाब्वे एक कृषि-प्रधान देश है। बोलवैक वैक्सीन जिम्बाब्वे में पुन: बनने लगी, मवेशी आदि पशुओं को लगने लगी, टिक-बोर्न रोग का दर कम हुई। यह एएमआर एमपीटीएफ  के अनुदान के कारण संभव हो पाया। इसका सीधा असर यह हुआ कि जो नुक़सान अर्थव्यवस्था को इस रोग के कारण हो रहा था वह कम हुआ और लोगों को राहत मिली। पशुधन यदि स्वस्थ रहेंगे तो उनपर निर्भर समुदाय भी स्वस्थ रह सकेगा।

डॉ माशे ने कहा कि अनेक वैज्ञानिक शोध यह प्रमाणित करते हैं कि यदि टीकाकरण और स्वस्थ पानी, स्वच्छता और साफ़-सफ़ाई सबको मिल सके तो हर साल विकासशील देशों में हो रहीं 750,000 असामयिक मृत्यु को कम किया जा सकता है।

टाइफाइड टीका

2019 में ज़िम्बाब्वे ने बैक्टीरिया से होने वाले टाइफाइड से बचाव के लिए एक प्रभावकारी टीकाकरण आरंभ किया। इस टीके को टाइफाइड कंज्यूगेट वैक्सीन या टीसीवी कहते हैं। यह टीका, साल्मोनेला टाइफी नामक बैक्टीरिया से होने वाले टाइफाइड रोग से बचाता है।

क्योंकि टाइफाइड के इलाज में दवाओं का अक्सर दुरुपयोग होता है, तो टाइफाइड के दर में गिरावट से दवा का दुरुपयोग भी कम हुआ। लोगों का पैसा जो पहले अन्यथा ही व्यय होता था वह थमा, सरकार का जो व्यय टाइफाइड या टाइफाइड जैसे-लक्षण वाली बीमारियों पर होता था, वह कम हुआ।

डॉ माशे ने बताया कि हर 1 लाख आबादी पर 1373 टाइफाइड रोगी होते थे जो अब घट कर हर 1 लाख आबादी पर 341 रोगी हो गया है। इसके कारण हो रहे अनावश्यक दवा उपयोग भी रुका और एएमआर भी कम हुआ है।

2018 तक सिप्रोफ़ोल्क्सेक्सिन एंटीबायोटिक ने काम करना बंद कर दिया, टाइफाइड का इलाज अज़िथ्रोमायसिन से अत्यंत महंगा हो गया

2018 में टाइफाइड का इलाज सिप्रोफ़्लॉक्सिन से असफल होने लगा क्योंकि दवा प्रतिरोधकता इतनी बढ़ गई थी कि सिप्रोफ़्लॉक्सिन से इलाज संभव ही न रहा – बैक्टीरिया सिप्रोफ़्लॉक्सिन से दवा प्रतिरोधक हो चुका था।

नई दवा, अज़िथ्रोमायसिन, महंगी थी – मजबूरी में टाइफाइड का इलाज उसी से करना पड़ रहा था।

2019 में जब टाइफाइड टीकाकरण शुरू हुआ तो टाइफाइड दर में गिरावट आई और सरकारी व्यय भी कम हुआ। लोगों ने भी राहत की सांस ली क्योंकि टाइफाइड दर में गिरावट आ रही थी।
 

कंबोडिया ने भी एएमआर एमपीटीएफ़ की मदद से योजना लागू की
 

2019 में एशियाई देश कंबोडिया के पास एएमआर एक्शन प्लान तो था पर पैसा नहीं था।

एएमआर एमपीटीएफ की मदद से कंबोडिया ने अंतर-वर्गीय एएमआर एक्शन प्लान लागू किया।

संयुक्त राष्ट्र की खाद्य और कृषि संस्था – एफएओ – के डॉ मकारा हक़ ने कहा कि बिना पर्याप्त वित्तीय पोषण के, एएमआर योजना लागू करने के कंबोडिया के अध-कचरे प्रयास, छितरे हुए थे। एमपीटीएफ की मदद से कंबोडिया में योजनाबद्ध तरीके से एएमआर कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी मंत्रालय, विभाग, संस्थाएं आदि एकजुट हुईं।

डॉ हक ने कहा कि उदाहरण स्वरूप, इस अनुदान से कंबोडिया ने 1000 से अधिक ग्रामीण पशु चिकत्सकों और अन्य निजी पशु पालन में लगे लोगों, और 200 से अधिक जिले स्तर के पशु चिकत्सकों को एएमआर नियंत्रण और बचाव में प्रशिक्षित किया।

जब तक पशुओं (और मानव और कृषि वर्ग) के लिए सही और समय से जाँच नहीं उपलब्ध होगी, सही इलाज नहीं मिलेगा, रोग नियंत्रण और बचाव के लिए टीका आदि नहीं मिलेगा, तो दवाओं का दुरुपयोग कैसे रुकेगा?

डॉ हक ने बताया कि कंबोडिया ने देश-व्यापी जांच लेबोरॉट्री का नेटवर्क सशक्त किया है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कंबोडिया ने जो एएमआर नियंत्रण के लिए मज़बूत कार्य किया है उसके कारण ही उसको जर्मनी विकास बैंक से अमरीकी डॉलर 34 मिलियन का अनुदान मिला है। अब यह प्रयास थामेंगे नहीं बल्कि बढ़ेंगे, डॉ हक ने कहा।

आर्थिक सहयोग के चलते और सफल एएमआर नियंत्रण के कारण हो रहे जन-स्वास्थ्य, सामाजिक, और आर्थिक हित देख के कंबोडिया सरकार ने भी 2025-2030 एएमआर राष्ट्रीय अंतर-वर्गीय एक्शन प्लान पारित किया।

स्वास्थ्य में राष्ट्रीय निवेश इतना कम क्यों?

सतत विकास की दृष्टि से विदेशी अनुदान (या बैंक का क़र्ज़) लेने से बेहतर तो यह है कि सरकारें जन-स्वास्थ्य पर निवेश को बढ़ायें जिससे कि ग़रीब-अमीर और समाज के हाशिए पर रह रहे लोग एक-समान स्वास्थ्य व्यवस्था का लाभ उठा सकें। सामाजिक और आर्थिक न्याय और स्वास्थ्य को अलग-थलग कर के नहीं देखा जा सकता। जन स्वास्थ्य में कम निवेश करना, न तो समाज के लिए हितकारी है और न ही किसी देश के लिए।

 

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