नक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये।
जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रयास और मनमोहन का अभी का प्रयास आदिवासियों को आधुनिक ड्राईंग रुम में टेबल पर रखकर चिंतन वाला ही रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 1991 से पहले तक आदिवासियों को लेकर बनायी जाने वाली हर योजना में आदिवासियों को जंगल से जोड़कर ऱखा गया । जंगल गांव की परिभाषा भी तभी तक जीवित रही।
लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के दौर में जब आर्थिक सुधार की बयार बही तो पहली बार 1991 में ही जंगल गांव की मौजूदगी पर सवाल उठे। टाइगर परियोजना से लेकर एसईजेड तक के दो दशक के सफर में जमीन से आदिवासियो को बेदखल करने की योजना और कहीं नहीं बनी बल्कि उसी नार्थ-साउथ ब्लॉक में पेपर तैयार हुआ, जहां आदिवासियों के कल्याण के लिये प्रधानमंत्री के भाषण का पर्चा 4 नवबंर 2009 के लिये तैयार किया गया। यानी बीते 18 सालों में करीब पांच करोड़ आदिवासियों के पलायन या कहे अपनी जमीन छोड़ बेदखल होने के दर्द को प्रधानमंत्री कार्यालय ने कितना समझा, इस पर सवाल उठाना वाजिब नही होगा बनिस्पत प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना कि 4 नवबंर 2009 को उन्हें पहली बार लगा कि विकल्प भी कोई सोच होती है।
यह अलग मसला है कि इस दौर में परियोजनाओं पर सत्तर हजार करोड़ खर्च हो गये और आदिवासी कल्याण के लिये महज सत्तर करोड़ ही सरकार को पोटली से निकले। जिस रौ में मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार की हवा बहाने को लेकर लगातार बैचेन रही है उसमें विकल्प शब्द भी बेमानी सा लगने लगा। क्योंकि विकास की जो लकीर आर्थिक सुधार तले खिंची गयी उसी का परिणाम है कि गरीब और दलित के घर रात बिताकर राहुल गांधी बार बार देश के सच से कांग्रेस को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी का कोई भी बयान जो ग्रामीण-आदिवासियों से लेकर गरीब-दलितों को लेकर दिया गया हो, अगर उसके आईने में आर्थिक सुधार की नीतियों को रख लें तो समझा जा सकता है कि अचानक प्रधानमंत्री के जेहन में विकल्प शब्द क्यों आ गया।
अभी तक चिदंबरम-मोटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की तिकड़ी ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को विकल्प माना, जिसके विकल्प देने का चैलेंज वह नक्सलियों के हिमायतियो से कर रहे हैं। इसका एक मतलब तो साफ है कि जो नीतियां परोसी जा रही हैं, वह बहुसंख्यक समाज के लिये विकल्प नहीं है बल्कि त्रासदी ज्यादा हैं। और इसका दूसरा मतलब यही है कि सरकार के पास विकल्प की अर्थव्यस्था का कोई खाका नहीं है। जो अचानक नक्सली समस्या के साथ जरुरत बनती जा रही है। लेकिन आर्थिक सुधार के दौर में योजना आयोग से लेकर पीएमओ तक में बैठे अर्थशास्त्री कैसे आंखों पर सेंसेक्स और औघोगिक विकास की पट्टी बांध कर काम करते रहे, यह उस किसी से नहीं छुपा है जो बजट से पहले या फिर गाहे-बगाहे सुझावो के साथ नार्थ-साउथ ब्लाक में आमंत्रित किये जाते रहे हैं।
“जो सुझाव आप दे रहे है वह तो ठीक है लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये यह तो आप बताईये। ” हर वैकल्पिक सुझाव के बाद पीएमओ में बैठे अर्थशास्त्रियों या नौकरशाहों की यही आवाज गूंजती है । किसानों की त्रासदी से लेकर बुंदेलखंड की बदहाली और औघोगिक विकास को जन भागीदारी के साथ जोड़ने से लेकर पंचायत स्तर पर स्वरोजगार का सवाल कमोवेश हर बजट से पहले और बाद में लाल पत्थरों के नार्थ-साउथ ब्लाक में हर साल अलग अलग खेमो और अलग अलग विचारधारा के तहत काम करने वाले लोगो ने उठाये। लेकिन इस दौर में हर सवाल का स्वागत कर जब बड़ा सवाल सामने रखा गया कि आपके विचार तो जायज है और सुझाव का भी स्वागत लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये तब हर विकल्प छोड़ा पड जाता है कि सरकार का संकट जब लागू तक ना करा पाने का है तो विकल्प शब्द का मतलब क्या है। वाकई बाजार और मुनाफे की थ्योरी में विकल्प शब्द ना सिर्फ गौण हुआ बल्कि धीरे धीरे विकल्प का सुझाव देने वालो की तादाद भी सरकार के दरबार में घटती चली गयी। इसलिये जो सवाल राहुल गांधी उठाने लगे अचानक देश को वही विकल्प भी लगने लगे। दो देश में बंटता देश। ग्रामीण आदिवासियों और गरीब दलितों को मौका ना मिलना। यह बयान राहुल गांधी के हैं, जो इंगित करते हैं कि आर्थिक सुधार की नीतियों से देश का बंटाधार हुआ है।
लेकिन इसका विकल्प क्या है यह सवाल प्रधानमंत्री को राहुल गांधी से भी पूछना चाहिये कि आपने भी तो कोई विकल्प बताया नहीं फिर देश के बदतर हालात पर अंगुली उठा कर प्रधाननमंत्री पद की गरिमा को क्यों मिटा रहे हैं। पीएमओ की दीवारों में इतनी ताकत है नहीं कि राहुल से विकल्प का सवाल उठा लें ऐसे में खुद लोग कैसे कैसे विकल्प पैदा कर रहे हैं, जिसपर नजर पीएमओ की भी नहीं होगी वह गौरतलब है । संयोग से जिस वक्त प्रधानमंत्री ग्रामीण-आदिवासियों के समाधान के लिये विकल्प का सवाल उठाकर नक्सलियो के हिमायितियों पर उंगली उटा रहे थे, उसी वक्त विदर्भ में छह किसान आत्महत्या की तैयारी कर रहे थे। और किसानों की खुदकुशी के बाद अब किसानों की विधवाओ ने मदद के लिये अपना विकल्प खुद तैयार किया है कि वह 11 नवबंर से अनिश्चितकालिन भूख-हडताल करेंगी जिससे कोई राहत उनतक पहुंच सके। यानी जिस भूख ने उन्हें विधवा बना दिया उसी भूख को वे जीने का विकल्प बना रही हैं। क्योकि सरकार को यही परिभाषा समझ में आती है । तो विकल्प का मतलब ही जिस व्यवस्था में जान जाना या जान बचाना भर हो, वहां पहले विकल्प की बात होगी या जान बचाने की इसे प्रधानमंत्री समझेंगे यह आस तो लगायी ही जा सकती है।