मार्क्स के प्रति ममता की नफरत

हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने राज्य के सरकारी स्कूलों की ८वीं, ११वीं और १२वीं कक्षाओं में वामपंथी दार्शनिक कार्ल मार्क्स पर आधारित पूरे अध्याय को हटा दिया है। नए सिलेबस को कोलकाता विवि की प्रोफ़ेसर शिरीन मसूद की अगुवाई में १९ सदस्यों की समिति ने तय किया है। कार्ल मार्क्स पर आधारित यह अध्याय कई वर्षों से छात्रों को पढ़ाया जा रहा था। इस समिति ने न सिर्फ इतिहास बल्कि २१ विषयों के सिलेबस में भी बदलाव किया है। किन्तु कार्ल मार्क्स पर आधारित पूरे अध्याय को हटाना वामदलों के प्रति ममता की नफरत को दर्शाता है।

यह ठीक है कि बदलाव होते रहना चाहिए किन्तु इतिहास को विकृत करने की सूरत में नहीं। कार्ल मार्क्स वामपंथी दार्शनिक ज़रूर थे किन्तु उन्होंने जो विचारधारा दी उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। ममता को शायद यह अंदेशा हो गया था कि स्कूल के बच्चे यदि मार्क्स को पढेंगे तो उनका झुकाव वामपंथ की ओर होगा जिससे भविष्य में वामपंथ पुनः अधिक प्रासंगिक हो जाएगा।

वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब स्कूली सिलेबस के साथ घोर राजनीतिक नजरिये एवं पक्षपातपूर्ण रवैये के इतिहास के साथ खिलवाड़ किया गया हो। बिहार में लालू प्रसाद यादव के मुख्मंत्रित्व काल में उनकी ही जीवनी का एक अध्याय स्कूली सिलेबस में शामिल किया गया था। “मिटटी के लाल” नामक इस अध्याय में लालू का संघर्ष गान था। किन्तु सत्ता परिवर्तित होते ही लालू का संघर्ष गान स्कूली किताबों से ऐसा गायब हुआ कि अब उसे कोई याद रखना नहीं चाहता| इसी तरह त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकार ने कक्षा पांच की किताब से महात्मा गांधी का अध्याय हटाकर लेनिन का अध्याय शामिल कर लिया है। महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की गठबंधन सरकार ने अपने शासनकाल में आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के हिंदुत्व दर्शन और शिवाजी के गुरु दादाजी कोंडदेव का पाठ स्कूली सिलेबस में शामिल किया था लेकिन कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने इन अध्यायों को हटा दिया। ऐसा ही कुछ राजस्थान में हुआ। वसुंधरा राजे सिंधिया की बीजेपी सरकार ने कक्षा ९वीं से लेकर १२वीं के स्कूली पाठ्यक्रम में डॉ. हेडगेवार और पं. दीनदयाल उपाध्याय को शामिल किया था लेकिन कांग्रेस की सरकार आते ही उसने इन पाठ्यक्रमों को स्कूली सिलेबस से ही हटा दिया।

 

दरअसल विचारधाराओं को लेकर हमारे देश में हमेशा से कटुता रही है। सभी राजनीतिक पार्टियां खुद की विचारधारा को ही सर्वोपरि मानती रही हैं जबकि यह भी उतना ही सत्य है कि सभी विचारधाराओं में मानव मात्र की बेहतरी का मार्ग बतलाया गया है। सभी विचारधाराओं की परिणति “वसुधैव कुटुम्ब्बकम” की अवधारणा पर ही समाप्त होती है। किन्तु कौन समझाए हमारे देश के नेताओं को? क्या डॉ. हेडगेवार या महात्मा गाँधी ने मानव मात्र की सेवा एवं एकजुटता से रहना नहीं सिखाया था? क्या पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद लोगों में वैमनस्यता फैलाता है? क्या कार्ल मार्क्स पढ़कर सभी बच्चे वामपंथी हो जायेंगे? क्या लेनिन और महात्मा गाँधी के विचारों में कोई बहुत बड़ा अंतर है? शायद नहीं।

इन सभी की विचारधारा कोई भी रही हो किन्तु अंतिम लक्ष्य सभी का एक था। दूसरे की विचारधारा को अपनी विचारधारा के समक्ष तुच्छ समझने की वजह से ही आज हमारा देश बंटा हुआ सा नज़र आता है। फिर इतिहास के साथ जितना खिलवाड़ हमारे देश में हुआ है उतना दुनिया के किसी देश में देखने को नहीं मिलेगा। हर ताकतवर व्यक्तित्व ने इतिहास को अपनी सुविधानुसार लिखवाया है ताकि वह उस कालखंड में हमेशा के लिए अमर हो जाए। इससे हमारा इतिहास विकृत ही हुआ है। अब ममता बैनर्जी ने कार्ल मार्क्स के अध्याक को स्कूली पाठ्यक्रम से हटवाकर इतिहास को विकृत करने की कोशिश की है। उन्होंने मार्क्स को एक अपराधी मान उनकी विचारधारा के साथ अन्याय किया है| किन्तु ममता शायद यह भूल गई हैं कि जिन बच्चों ने कभी मार्क्स को नहीं पढ़ा है वे भी अब कौतुहल वश उन्हें पढ़ने की चेष्ठा करेंगे| इससे ममता का मंतव्य तो पूरा नहीं होगा अलबत्ता मार्क्स के विचार ज़रूर अधिकाधिक संख्या में पढ़े जायेंगे।

 

ममता इससे पहले भी अंग्रेजी अखबारों को सभी सरकारी पुस्तकालयों से हटाने के निर्णय के विरुद्ध आलोचना का शिकार हो चुकी हैं| अब कार्ल मार्क्स के अध्याय को स्कूली पाठ्यक्रम से हटाने के ममता के निर्णय की सर्वत्र आलोचना हो रही है। यह आलोचना सही भी है। मात्र कार्ल मार्क्स या अंग्रेजी के अखबार पढ़ने से ही ममता की राजनीति को खतरा हो ऐसा नहीं है| यह तो उस मानसिक विकृति का नमूना है जो स्वयं को हमेशा असंशय में पाता है या किसी अनजान भय से भयभीत रहता है| लगता है ममता का वामपंथ के प्रति भय अभी भी बरकरार है तभी जनहित के मुद्दों पर राजनीति करने की बजाए वे बेसिर-पैर के निर्णय ले रही हैं जो उनकी छवि को तो नुकसान पहुंचा ही रहे हैं, उनकी राजनीतिक ताकत को भी कमजोर कर रहे हैं| यदि ममता इसी तरह फ़िज़ूल के मुद्दों में उलझी रहीं तो ज़रूर वामपंथ मजबूत होकर ममता की सत्ता को महरूम कर देगा| ममता को एक बार पुनः तय कर लेना चाहिए कि उनके निर्णय क्या उनकी छवि के साथ न्याय करते हैं? जननेता से सत्ता-लोलुप नेता की छवि में गढ़ती जा रही ममता को हालिया विवाद से नुकसान होना तय है|