तिब्बत पर ज़रा जुबान हिलाएं

तिब्बत की कराह ने सारी दुनिया को कॅंपा दिया है| दुनिया को पता है कि जो चीनी सरकार अपनी हान जाति के चीनी नौजवानों को हजारों की संख्या में मार सकती है, वह तिब्बतियों को क्यों बख्शेगी| चीनी सरकार के मुताबिक अभी तक ल्हासा में सिर्फ दस आदमी मरे हैं लेकिन प्रवासी तिब्बती सरकार और तिब्बत गए पर्यटकों का कहना है कि कम से कम 30 लोग मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हो गए हैं| ल्हासा में हुए रक्तपात पर अमेरिका, जर्मनी और आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तीव्र प्रतिकि्रया की है और संयुक्तराष्ट्र का मानव अधिकार आयोग भी चुप नहीं बैठा है| संसार भर के मीडिया में तिब्बत उछल रहा है| यह मॉंग भी की जा रही है कि तिब्बत के मामले में संयुक्तराष्ट्र संघ हस्तक्षेप करे|

यह मांग गलत नहीं है| यदि मानव अधिकारों की रक्षा के लिए सं.रा. म्यांमार में हस्तक्षेप कर सकता है तो वह तिब्बत में क्यों नहीं कर सकता है? यदि स.रा. का विशेष दूत बार-बार म्यांमार जाकर वहां की सरकार के साथ-साथ विरोधी नेताओं से मिल सकता है तो वह तिब्बती नेताओं से क्यों नहीं मिल सकता है? यदि अंतरराष्ट्रीय समाज तिब्बत पर तुरंत कार्रवाई नहीं करेगा तो चीनी सरकार तिब्बत के असंतोष को आसानी से मसल डालेगी| वह इन्टरनेट और मोबाइल फोनों पर पाबंदी लगा देगी, पर्यटकों को निकाल बाहर करेगी और तिब्बत को लोहे के डिब्बे में बंद करके उसका दम घोट देगी| अभी तिब्बत के बारे में दुनिया को जो खबरें मिल रही हैं, वे संवाददाताओं से नहीं, पर्यटकों से मिल रही हैं|

आखिर तिब्बत में अचानक यह लावा क्यों फूटा? यह अचानक नहीं फूटा है| इसकी कहानी लंबी है| पचास साल से ज्यादा हो गए, तिब्बत नामक स्वतंत्र् राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया| इन पॉंच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की, उसके प्राकृतिक स्रोतों का निर्मम दोहन किया, तिब्बत का सामरिक इस्तेमाल किया और अब वहॉं रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने की प्रयत्न किया जा रहा है| जहां तक दलाई लामा और भारत सरकार का प्रश्न है, उन्होंने तिब्बत की आज़ादी की मांग को छोड़ दिया है| उन्होंने तिब्बत को चीन का प्रांत मान लिया है| साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है| यहॉं ‘स्व’ का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है| चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिल्कुल नहीं मानते| तिब्बत में रहने वाले तिब्बती लोग चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं| तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है| शत्र्ुता की गुप्त धारा उनके बीच बराबर बहती रहती है| चीन की मुख्यभूमि में मुझे अनेक बार कई तिब्बतियों से मिलने का मौका मिला| वे भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं| तिब्बत उनका अपना देश है लेकिन वहॉं उन्हें गुलामों की तरह रहना पड़ता है|

तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है लेकिन शक्ति और सम्पदा के असली मालिक लोग चीनी ही हैं| उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईर्ष्या का स्थायी भाव उत्पन्न कर दिया है| यही ईर्ष्या ल्हासा में फूट पड़ी है| चीनियों का कहना है कि ‘तिब्बती अपराधियों’ ने ल्हासा के चीनी व्यापारियों को पकड़कर जिंदा जला दिया और उनकी दुकानें लूट लीं| अगर यह सत्य है तो यह बहुत डरावना सत्य है| चीन जैसे देश में तिब्बतियों की इतनी हिम्मत हो जाए, यह बात पेइचिंग को पेचिश लगा देगी| चीनी सरकार ने ‘अपराधियों’ को मंगलवार तक आत्म-समर्पण के लिए कहा है, वरना उन पर वह जमकर वज्रपात करेगी| चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जर्बदस्त प्रदर्शन किए हैं| दिल्ली, काठमांडो, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं| एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलम्पिक खेलों की तैयारी कर रही है| ओलम्पिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है| वह तिब्बत होकर ही जाएगी| उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया तो कहीं ओलम्पिक खेल ही स्थगित न हो जाऍं| ओलम्पिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा|

चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है| धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है| यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है| यह सत्य है कि भारतीय कम्युनिस्टों की तरह उन्होंने इस घटना को चीन का घरेलू मामला नहीं कहा है| उन्होंने चीनी दमन को तिब्बत की स्थिरता, एकता और शांति के विरूद्घ बताया है| भारत सरकार की प्रतिकि्रया भी काफी नरम है| उसने चीन की निंदा नहीं की है| हिंसा पर चिंता प्रकट की है और मामले को बातचीत के जरिए हल करने की सलाह दी है| लेकिन अमेरिकी सरकार का रवैया दो टूक है| उसने दमन का स्पष्ट विरोध किया है| चीनी सरकार से कहा है कि वह दलाई लामा से बात करे| अमेरिकी संसद की अध्यक्ष श्रीमती नैन्सी पेलोसी दलाई लामा से मिलने धर्मशाला आ रही हैं और हॉलीवुड के प्रसिद्घ रिचर्ड गियर भी भारतीय तिब्बतियों के प्रदर्शन में भाग लेंगे| तिब्बतियों का एक जत्था तिब्बत में घुसने की भी कोशिश करेगा| भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार करेगी|

इसमें शक नहीं कि भारत और चीन के व्यापारिक संबंध इधर काफी घनिष्ट हो रहे हैं लेकिन यह समझ में नही आता कि भारत को चीन से इतना ज्यादा दबने की क्या जरूरत है? यदि चीन हमारे तवांग पर खम ठोक सकता है और प्रधानमंत्री के अरूणाचल जाने का विरोध कर सकता है तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि तिब्बतियों के मानव अधिकारों के लिए अपनी जुबान ज़रा-सी हिला दें| यह ठीक है कि कम्युनिस्टों की बैसाखी पर टिकी हमारी सरकार चीन को नाराज़ नहीं कर सकती लेकिन चीन से सच्ची दोस्ती का तकाज़ा है कि भारत चीन से तिब्बत पर खुलकर बात करे| इससे चीन का फायदा होगा और भारत का भी| यदि हम हमारे कश्मीर के बारे में पाकिस्तानियों से बात कर सकते हैं तो तिब्बत के बारे में चीनियों से क्यों नहीं कर सकते?