कौन बदल गया : बीजेपी या आरएसएस?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को हर क्षण जीवन से जोड़कर देखने वाले नागपुर के एक परिवार ने सवाल पूछा-बीजेपी कितनी बदल गयी है। कोई जवाब देने से पहले मेरे मुंह से निकल पड़ा-आरएसएस भी तो कितनी बदल गयी है। मुझे पता नहीं था कि मेरा सवाल ही इस परिवार के लिये जवाब हो जायेगा, जो तीन पीढ़ियों से संघ से न सिर्फ जुड़ा है बल्कि संघ से जुड़ने की प्रेरणा लगातार हर सुबह संघ जमघट में मोहल्ले दर मोहल्ला अब भी देता है। कोई बड़ी-छोटी सभा-सम्मेलन नागपुर में हो तो सैकड़ों लोगों की रोटी बनाने में पूरा परिवार जुट जाता है।

नागपुर के महाल इलाके का ये परिवार 1940 से यहां रह रहा है, इसलिये हेडगेवार-गुरु गोलवरकर-देवरस-रज्जु भैया सभी को बेहद करीब से इस परिवार ने देखा है। महाल में ही संघ मुख्यालय है और इस मोहल्ले के संकरी गलियों में सैकड़ों परिवार हैं, जो हेडगेवार के दौर से संघ परिवार के सदस्य हैं।

 

लेकिन संघ बदल गया है….यह सवाल किसी संघी परिवार के लिये जवाब हो जाये, ये मैंने कतई नहीं सोचा। लेकिन कहते हैं न किसी को पूरी तरह माफ कर देना ही उसे पूरी तरह जान लेना होता है। कुछ इसी तर्ज पर सहमति की लीक के साथ परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि 21 जनवरी को दिल्ली में ही तो दत्तोपंत ठेंगडी भवन का उद्धाटन हुआ है, जो डेढ़ करोड़ की लागत से बना है। मैंने भी कहा, जी…उस समारोह में मैं भी गया था। इसका उद्घाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया था । तो आपने भी महसूस किया कि संघ बदल गया है।

 

आपने जवाब पर मैं सोचता और चर्चा आगे बढ़ती, इससे पहले मेरे दिमाग में 2002 का स्वदेशी जागरण मंच के प्रतिनिधि मंडल का सम्मेलन आ गया। आगरा में दो दिन के इस सम्मेलन में दंत्तोपंत ठेंगडी-गोविन्दाचार्य-गुरुमूर्ति और मदनदास देवी भी मौजूद थे। सबसे बुजुर्ग संघी ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में उस वक्त वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा पर वर्ल्ड बैंक के एंजेडे को लागू करने का आरोप लगाते हुये उन्हें तत्काल हटाने की मांग की थी। उन्होंने यशवंत सिन्हा को अर्थ की जगह अनर्थ मंत्री कहा था। ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में पहली बार मुरलीधर राव के जरिये स्वदेशी विचार को दोबारा आंदोलन की शक्ल देने का भरोसा जताया था। इसी सम्मेलन में मदन दास देवी आर्थिक नीतियों में विकल्प के तौर पर हाथ में पत्रिका इकनॉमिस्ट लेकर चीन की आर्थिक नीति की वकालत कर रहे थे। इस सम्मेलन में गोविन्दाचार्य देश भर के युवाओं को जमाकर आर्थिक आंदोलन की भूमिका का राग दे रहे थे और इसी सम्मेलन में गुरुमूर्ति राष्ट्रीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के जरिये बीजेपी की पटरी से उतरी आर्थिक नीतियों को पटरी पर लाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे थे।

 

संयोग से दत्तोपंत ठेंगडी ने इसी सम्मेलन में बीजेपी की नीतियों के कांग्रेसीकरण होने का आरोप मढ़ते हुये सीधे कहा था कि उन्हें डर लगता है कि बीजेपी भी कांग्रेस की तरह विरासत की राजनीति शुरु ना कर दे और हमारे मरने के बाद कोई सड़क या इमारत बनवाकर आंदोलन स्वाहा ना कर दें। लेकिन संघ की इच्छा और बीजेपी की पूंजी पर बनी दत्तोपंत ठेंगडी इमारत के जरिये भारतीय मजदूर संघ का भला होगा यह ठेंगडी के साथ काम कर चुके किसी संघी के लिये सोचना भी शायद मुश्किल होता।

 

आगरा के इस सम्मेलन का जिक्र करते हुये जैसे ही मैंने कहा-ठेंगडी की मौत तो अब हुई जिसका उद्धाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया है। तो नागपुर के इस संघी परिवार के मुखिया ने बिना लाग लपेट कर बताया कि ठेंगडी ने मजदूरों को देशहित का पाठ पहले पढ़ाया और फिर संगठन बनाया। लेकिन अब पहले इमारत बनी है और उसके जरिये मजदूर संघ को जिलाने की बात की जा रही है। जबकि ठेंगडी होते तो डेढ़ करोड़ की कोई इंडस्ट्री लगवाकर रोजगार की व्यवस्था पहले करते। उसके बाद देश के विकास में मजदूरों के योगदान का सवाल उठाते जो मजदूरो को देश से जोड़ता और फिर संगठन और पार्टी खुद-ब-खुद मजबूत होती।

 

मुझे भी याद आया कि संघ के मुखिया ने उद्धघाटन करते हुये कहा था-ठेंगडी को श्रमिक क्षेत्र में काम करने के लिये उस वक्त भेजा गया, जब इस क्षेत्र में वामपंथ और अन्य वादो का बोलबाला था। उस वक्त मजदूर संगठन कहते- हमारी मांगे पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो । लेकिन ठेंगडी ने कहा-मजदूरो को पूरा दाम मिलना चाहिये पर सबसे उपर देशहित होन चाहिये। 1962 के चीन युद्द के वक्त जब बंगाल के वामपंथी संगठनों ने हड़ताल की वकालत की तब मजदूर संघ से जुड़े श्रमिको ने अतिरिक्त काम किया। इस कथन का जिक्र करते हुये मैने सवाल किया कि लेकिन उन्हीं लोगो के बीच संघ इतना कैसे बदल सकता है…जो ठेंगडी के साथ थे वहीं लोग तो ठेंगडी भवन का उद्घाटन देखकर ताली बजा रहे थे। इस समारोह में ठेंगडी के प्रिय मुरलीघर राव से लेकर ठेंगडी के वैचारिक सहयोगी हसुभाई दवे और केतकर भी मौजूद थे।

लेकिन विकल्प क्या है…यही सवाल संघ को शायद जोड़े हुये होगा, आप यह भी कह सकते हैं । नागपुर के इस परिवार ने चर्चा का सिरा पकडते हुये कहा। लेकिन सार्वजनिक तौर पर तो बीजेपी है….आप यह बताइये कि बीजेपी कितनी-कैसे बदल गयी।

 

लेकिन पहले आप बताएं की बीजेपी का मतलब आप समझते क्या हैं। मेरे इस सवाल पर बिना देर लगाये ही वह बोल पड़े….आंख बंद कर बीजेपी बोलता हूं तो आडवाणी की तस्वीर और कुर्सी पर मुस्कुराते लेकिन उम्र की बीमारी लिये बाजपेयी जी दिमाग में चल पड़ते हैं । कोई और तस्वीर तो मैं देखता ही नहीं हूं।

 

क्यों आडवाणी जी की तस्वीर पीएम के लिये इंतजार करते शख्स के तौर पर नहीं उभरती है ? मेरे इस सवाल पर श्याम जी जोर से हंस पड़े। यहां नागपुर के इस परिवार के मुखिया का नाम लेना जरुरी है क्योंकि जो बात उन्होने कही वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी के बारे में एक सरसंघचालक की है । और इसे छुपाकर नहीं बताया जा सकता। श्याम जी के मुताबिक जब आडवाणी जी सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथयात्रा पर निकले थे तो लगातार नागपुर के संघ मुख्यालय में भी उमंगे उछालें मार रही थीं। संघ परिवार के सदस्य रथ यात्रा को देखने के लिये नागपुर में घुसने वाली वर्धा रोड पर बीस किलोमीटर पहले से ही फूल-मालाओं के साथ मौजूद थे । नागपुर में चंद घंटे रुके आडवाणी जी सरसंघचालक देवरस से मिलने भी पहुंचे । लेकिन अगले दिन रथ यात्रा के नागपुर से निकलने के बाद अयोध्या आंदोलन को लेकर चर्चा के बीच संघ मुख्यालय में कई संघ सदस्यों की मौजूदगी में आडवाणी जी की रथ यात्रा की सफलता-असफलता पर भी सवाल जबाब हो रहे थे।

 

उस वक्त एक प्रचारक ने रथ यात्रा की सफलता के बाद बीजेपी की राजनीतिक सफलता का मुद्दा उठाया तो देवरस ने इसे संगठन को मजबूत और एकजूट करने वाली यात्रा बताते हुये कहा कि आपातकाल के बाद अयोध्या ही एक ऐसा मुद्दा बना है, जिससे बिखर रहे संगठन एक साथ एक मन से जुडेंगे। एक अन्य ने जब कहा कि आपातकाल के बाद जनता पार्टी सत्ता में आयी थी तो क्या बीजेपी भी सत्ता में आ सकती है। देवरस का जबाब था रास्ता बनेगा लेकिन सत्ता तक पहुंचना अयोध्या के आगे की राजनीतिक पहल पर निर्भर करता है। इसपर आडवाणी के नेतृत्व को लेकर जब एक स्वयंसेवक ने सवाल किया तो देवरस ने उनके साथ संगठन और विचार की इमानदारी की बात कही। लेकिन आडवाणी जी के बारे में जब एक निजी सवाल आया तो देवरस ने कहा, आडवाणी जी की निजी छवि ही उन्हे सार्वजनिक नहीं होने देती। आडवाणी जी जो बात सोमनाथ में सोच कर चले होंगे, उसे ही अयोध्या तक ले जायेंगे। परिस्थितयां उन्हें खोलती नहीं हैं। इसे आप आडवाणी की ताकत मानें या कमजोरी, लेकिन वह परिवेश और विचार से प्रभावित होकर राजनीतिक समझ विकसित करें या बदलें यह मुश्किल है।

 

जाहिर है इस जबाव के खत्म होते ही मैने तुरंत पूछा तो क्या जिन्ना प्रकरण पर न सिर्फ आडवाणी का टिके रहना और अपनी किताब में भी उसका जिक्र कर उसमें बिना किसी बदलाव के छापने का मतलब यही है कि आडवाणी का जिन्ना को लेकर विचार पाकिस्तान यात्रा से पहले से रहा होगा । इस पर श्याम जी खामोश हो गये लेकिन फिर बोले- आपने जो सवाल शुरु में उठाया था कि आरएसएस बदल गयी है तो उसका जबाब यही है कि 2004 से लेकर 2007 तक जो मंथन संघ के भीतर हुआ और उसके बाद आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिये बतौर उम्मीदवार बनाने पर संघ ने सहमति जिस तरह दी, उसका मतलब है संघ बदल गया है।

 

जाहिर है यह संकेत संघ के अभी के हालात को लेकर समझने के लिये काफी था। क्योंकि सरकार्यवाह मोहन भागवात, मदनदास देवी और सुरेश सोनी बकायदा आडवाणी के आवास में जा कर पीएम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा कर आये थे । जबकि सरसंघचालक सुदर्शन ने चार साल पहले ही आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने की सलाह दी थी। असल में आरएसएस के भीतर पहली बार कई पावर सेंटर काम कर रहे हैं और पहली बार सरसंघचालक द्वारा अपनी विरासत सौपने की परंपरा पावर सेंटर के हिसाब से चल रही है। जिसमें इंतजार करना कोई नहीं चाहता और टकराव के जरिये ही वक्त कटता जाये जो परंपरा को बनाये रखने का स्वांग देता रहे…यह मानसिकता कहीं तेज होती जा रही है। और उसी का अक्स बीजेपी में मौजूद है, जिसमें राजनाथ की दिशा और आडवाणी की राजनीति टकराती है तो इस एहसास के साथ की टकराव की राजनीति से संघ में भी गुदगुदी होती है। और परिवार में यह संवाद बनता है कि अब तो फैसला होना चाहिये जिससे परिवार पटरी पर आ जाये। यानी कभी राजनाथ सिंह को लगे कि वह आडवाणी से बेहतर पीएम के उम्मीदवार है तो कभी सरकार्यवाह मोहनराव भागवत को लगे कि जितनी जल्दी हो वह सरसंघचालक बन जाये तो परिवार का भला हो।

यह बात नागपुर के श्यामजी ने नहीं कहीं लेकिन संकेत में बता दिया कि चर्चा असल में कौन बदला है, इसकी जगह कौन नहीं बदला…. इस पर होनी चाहिये थी जिससे खामोशी में वक्त कट जाता और कुछ कहना भी नहीं पड़ता।