न्याय का गला घोंटती न्यायपालिका

भारतीय न्याय व्यवस्था में यह कहा जाता है कि भले की गुनाहगार को देरी से सजा हो, लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर हालात उल्टे हैं। गुनाहगार पैसे और पहुंच के आधार पर कानूनी प्रक्रिया में ऐसा दांव पेंच चलते हैं कि वे जल्द ही बाहर आ जाते हैं। वही ढेरों बेगुनाह जेल में सलाखों के पीछे अपनी कोर्ट की तारीख का इंतजार करते वर्षों गुजार देते हैं।

ऐसा कई बार हुआ है जब कोर्ट का निर्णय आया तब तक व्यक्ति बेगुनाही में जेल काटा या फिर जितनी सजा थी, उससे कही ज्यादा साल जेल में गुजार दिए। हाल ही में फाइट फार ह्यूमन राइट्स सोसाइटी की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बिना सुनवाई के अनुसूचित जाति, जनजाति समुदाय के जेल में बंद 31 हजार विचाराधीन कैदियों के मामले को गंभीर मसला बताता। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि इस समस्या के समाधान के लिए सभी राज्यों के गृह सचिवों की छह सप्ताह के अंदर बैठक बुलाई जाए। साथ की कोर्ट ने यह भी कहा है कि मूक दर्शक बने रहने के बजाय उसे केंद्रीय एजेंसी के रूप में काम करके राज्यों से बात करनी चाहिए। संभवत गुलाम भारत में आंदोलनकारियों को छोड़ दे तो ऐसे शायद ही उदाहरण मिले जिसमें अंग्रेजों ने बिना ट्रायल के वर्षों तक विचाराधीन कैदियों से अपनी जेले भरी हो। आज भारत की आजादी के  68 साल बाद भी न्यायिक प्रक्रिया इतनी सहज नहीं बन पाई कि बिना पैसे व पहुंच के साधारण आदमी त्वरित न्याय मिल सके। स्वयं कोर्ट के जज तक यह कह चुके हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय जैसा है।

अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के करीब 31 हजार विचाराधीन कैदी बिना सुनवाई के जेल में सड़ रहे हैं। वे पुलिस व कोर्ट की कार्रवाई की भाषा समझ नहीं पाते हैं। कोर्ट उन्हें अच्छा अनुवादक भी उपलब्ध नहीं करा पता है।

छत्तीसगढ़ का जाता मामला है, राज्य सरकार ने आदिवासी प्रकरणों के लिए गठित निर्मला बुच कमेटी ने दर्जनों मामले में उन कैदियों के जमानत का विरोध नहीं करने का सुझाव दिया है जिसमें निर्धन आदिवासी आरोपी मामूली रकम नहीं हुटा पाने के कारण जेल में हैं। शर्मनाक बात यह है कि इन कैदियों में एक ऐसी गरीब आदिवासी महिला आरोपी है, जो हत्या के प्रकरण में विचाराधीन है। विचाराधीन स्थिति में ही वह दस वर्ष जेल में रह चुकी है। अब भला वह दोषमुक्त हो भी जाए तो उसके सामने कौन का भविष्य बचा? ऐसे मामले केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं है। सूचना के अधिकार के अंतर्गत छत्तीसगढ़ की जेलों के विषय में मिली जानकारी के अनुसार जगदलपुर जेल में नक्सली मामलों के 546 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 512 कैदी आदिवासी हैं। दंतेवाड़ा जेल में नक्सली मामलों के 377 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 372 कैदी आदिवासी हैं। कांकेर जेल में नक्सली मामलों के 144 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 134 कैदी आदिवासी हैं। दुर्ग जेल में नक्सली मामलों के 57 विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनमे 51 कैदी आदिवासी हैं। नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के केंद्रीय जेलों में बगैर किसी सुनवाई के हजारों आदिवासी बंद हैं। सवाल है कि आखिर समाज का यह वर्ग अपने मौलिक अधिकारों से जुड़े मसले से इतना वंचित क्यों है?

सरकार पर यह भी आरोप लगता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों ने आदिवासियों को यह भी नहीं बताया जाता कि उन्हें किस आधार पर गिरफ्तार किया गया है। संकट भाषा के संप्रेषण का है। आदिवासी अपनी मूल भाषा में बोलते हैं। वे गिरफ्तारी के वक्त या कोर्ट में अपनी बात सही तरीके से कोर्ट को नहीं समझा पाते हैं। और कोर्ट भी उन्हें समझने का सिरदर्द नहीं उठाता है। उन्हें न उनकी भाषा समझने वाला वकील उपलब्ध कराया जाता है ओर न ही अदालतों में ऐसे अनुवादक उपलब्ध है जो आदिवासियों की भाषा को अनुवाद कर माननीय जज महोदय को उनकी बात बता सकें। जेले के नक्सली कैदियों के सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही नक्सल समर्थक सरकार को इस बात को लेकर कटघरे में खड़ा करते हैं कि सभी नक्सली आदिवासी हैं या फिर आदिवासी ही नक्सली बन गए हैं। उधर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री कहते हैं कि नक्सली लोग देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। जेल के आंकड़े कहते हैं कि आदिवासी ही नक्सली हैं। मतलब है कि देश के आदिवासी ही खुद के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जल, जंगल और जमीन को लेकर आदिवासी हितों की रक्षा के लिए वर्षों से आवाज उठ रही हैं।

नक्सली गैर नक्सल आदिवासियों की आड़ लेकर अपना हित साध रहे हैँ। इनके विकास के लिए लाखों करोड़ों की योजनाओं की राशि के खर्च के बाद भी हालात संतोषजनक नहीं हुए। शिक्षा के मामले में आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी असंतोषजनक स्थिति में है। आरक्षण के बाद भी हजारों रिक्त आदिवासी पदों के आंकड़े यह साबित भी करते हैं कि शिक्षा की अलख आदिवासी क्षेत्रों से अभी दूर है। नेशनल इंस्टिट्यूट आॅफ एडवांस्ड स्टडीज की ओर से यूनिसेफ के लिए किए गए अध्ययन में बताया गया है कि आदिवासियों को दी जाने वाली शिक्षा का स्तर बहुत दयनीय है। आदिवासी क्षेत्रों में सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं पर बहुत खराब ढंग से अमल किया जा रहा है। लिहाजा, आदिवासियों की स्थिति बदलने के बजाय बदतर होती गई। उनके क्षेत्रों में बाहरी दुनिया के लोगों ने घुसपैठ कर दोहन शुरू किया है। विरोध पर राष्टÑविरोधी कार्यों के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। उनकी अपनी भाषा को न सरकार समझ रही है और न ही कोर्ट।