तवांग तीर्थ यात्रा का उद्देश्य और उसका प्रभाव

भारत तिब्बत सहयोग मंच ने २०१२ में तवांग तीर्थ यात्रा शुरु की थी । यह तीर्थ यात्रा प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष मास में  असम के गुवाहाटी से प्रारम्भ होती है । गुवाहाटी को पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है । गुवाहाटी ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि प्रागैतिहासिक नगर कहा जाता है । गुवाहाटी में नीलाचल पर्वत पर स्थित कामाख्या देवी की आराधना से तवांग यात्रा की शुरुआत होती है । कामाख्या देवी के दर्शन के बाद पूर्वोत्तर भारत की जीवन रेखा , ब्रह्मपुत्र के बीचोंबीच एक टापू पर स्थित भगवान महादेव मंदिर में आराधना की जाती है । उसके बाद तीर्थ यात्री तेज़पुर की ओर प्रस्थान करते हैं । तेज़पुर में अग्निगढ प्रसिद्ध है । यहीं भगवान कृष्ण और शंकर महादेव के बीच भयंकर युद्ध हुआ था जिसको ब्रह्मा जी ने स्वयं आकर रुकवाया था । तेज़पुर से यात्री अरुणाचल प्रदेश की ओर प्रस्थान करते हैं । भालुकपोंग अरुणाचल प्रदेश का पहला नगर है । यहाँ के दुर्ग के तो मात्र अब अवशेष ही बचे हैं । भालुकपोंग से आगे प्रमुख शहर बोमडीला आता है । बोमडीला पर १९६२ की लड़ाई में चीन का क़ब्ज़ा हो गया था । बोमडीला के बाद जसवन्तगढ आता है , जहाँ १९६२ की लड़ाई में एक सिपाही जसवन्त सिंह ने ७२ घंटों तक चीन की सेना को दर्रे के उस पार रोके रखा था । भारत की सेना ने उसकी स्मृति में एक मंदिर बनाया और जगह का नाम ही जसवन्तगढ कर दिया । जसवन्तगढ के बाद तीर्थयात्री तवांग पहुँचते हैं और वहाँ १९६२ की लड़ाई में शहीद हुये सैनिकों की स्मृति में बने शहीद स्मारक पर फूल चढ़ाते हैं । तवांग में ही छटे दलाईलामा का जन्म हुआ था । इस प्रकार छटे दलाई लामा भारत और तिब्बत के बीच भ्रातृत्व की महत्वपूर्ण कड़ी हैं । उनके जन्म स्थान और तवांग मठ को नमन करने के बाद यात्री बुमला की ओर रवाना होते हैं । रास्ते में छटे दलाईलामा के पदचिन्ह का पवित्र स्थल आता है ।

इसके बाद वह पावन गुफ़ा आती है जिसमें स्थानीय जन विश्वास के अनुसार प्रथम गुरु श्री नानक देव जी ने अपनी तिब्बत उदासी के समय तपस्या की थी । सीधी सपाट ऊँची पहाड़ी के मध्य में स्थित यह गुफ़ा शताब्दियों से स्थानीय लोगों के लिये श्रद्धा स्थल रहा है । मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान इसी रास्ते से होकर गये थे । स्थानीय भाषा में साधु सन्तों को लामा कहा जाता है । अत वे यहाँ नानक लामा के नाम से विख्यात हुये । तवांग से बुमला तक का यह क्षेत्र १९६२ के चीन युद्ध के पश्चात् निर्जन हो गया है । अब यहाँ कोई बस्ती नहीं है । भारतीय सेना के स्थान स्थान पर शिविर हैं । युद्ध से पहले विद्यार्थीं परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिये अपनी पुस्तक नानक लामा की गुफ़ा में रख जाते थे और दूसरे दिन ले जाते थे । अब सेना ने इस तपस्यास्थली पर एक बोर्ड लगा दिया है । तवांग तीर्थ यात्रा के यात्री अब हर साल इस स्थान पर नानक देव जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं । इस तपस्यास्थली से आगे फिर बुमला की ओर यात्रा शुरु होती है । भारत की अंतिम सीमा बुमला तक ही है । उसके आगे तिब्बत शुरु हो जाता है , जिस पर आजकल चीन ने क़ब्ज़ा किया हुआ है । तीर्थयात्री यहाँ सीमा पर धरती माँ का पूजन करते हैं । उसके बाद यात्रा वापिस गुवाहाटी पहुँचती है ।

ऐसा नहीं कि यह तीर्थ यात्रा दो साल पहले ही शुरु हुई हो । सैकड़ों वर्ष पहले गुरु नानक देव जी इसी यात्रा मार्ग से होते हुये तिब्बत पहुँचे थे । अलग अलग स्वरुपों में तो यह यात्रा विभिन्न खंडों में हज़ारों वर्षों से चल ही रही है । उदाहरण के लिये कामाख्या देवी के मंदिर के दर्शन के लिये तो भारतवर्ष के हर हिस्से से यात्री साल भर आते ही हैं । अरुणाचल प्रदेश में तवांग मठ और छटे दलाई लामा के जन्म स्थान को देखने के लिये केवल देश में से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी अनेक बौद्ध मताबलम्बी आते हैं । सत्रहवीं शताब्दी में बने तवांग मठ में २८ फ़ुट उँची भगवान बुद्ध की स्वर्णिम मूर्ति है । तवांग का शहीद स्मारक तो देश के वर्तमान या पूर्व सैनिकों के लिये उनका मक्का मदीना ही है । शायद ही कोई दिन जाता हो , जब वहाँ श्रद्धालु न पहुँचते हों । इसी प्रकार तवांग से जब छटे दलाईलामा तिब्बत की ओर चले तो रास्ते में एक चट्टान पर रुके । वे पद चिन्ह अब भी विद्यमान हैं । उनको नमन करने के लिये न जाने कहाँ कहाँ से श्रद्धालु आते रहते हैं । उसके बाद नानक लामा तपस्यास्थली है । स्थानीय लोग अत्यन्त श्रद्धा से वहाँ पूजा करते हैं । इस तपस्यास्थली से थोड़ा दूर ही संगत्सर झील है , जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके दर्शन मात्र से सभी पाप धुल जाते हैं । इस प्रकार यह यात्रा अलग अलग समय में और अलग अलग हिस्सों में प्राचीन काल से प्रचलित है ।

अरुणाचल प्रदेश में स्थित परशुराम कुंड पर तो अब देश भर से लाखों लोग स्नान करने के लिये हर साल जाते हैं । लेकिन पश्चिमी कामेंग और तवांग ज़िला क्षेत्रों की ओर जाने वालों की संख्या प्राय कम ही रहती है , जबकि इस क्षेत्र में अनेक राष्ट्रीय  ऐतिहासिक दर्शनीय और तीर्थ स्थल विद्यमान हैं । तवांग और बुमला के बीच संगत्सर झील के पास ही आचार्य पद्मसंभव का मंदिर है , जिसे तकछंग मठ भी कहा जाता है । इसे शेर का घर कहते हैं । ऐसा एक मंदिर हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िला में रिवाललर में है और दूसरा मंदिर तवांग ज़िला में है । दोनों मंदिरों की केवल भारत में ही नहीं बल्कि तिब्बत और मंगोलिया तक में मान्यता है और इन दोनों देशों से अनेक तीर्थ यात्री इन मंदिरों के दर्शनों के लिये आते हैं । तिब्बत में तो पद्मसंभव को तथागत बुद्ध के बाद दूसरा स्थान प्राप्त है । इन्द्रेश कुमार का मानना है , यह पहली ऐसी यात्रा है जिसमें तीर्थ यात्री समान भाव से कामाख्या देवी , भगवान बुद्ध और गुरु नानक देव जी से सम्बंधित तीर्थ स्थलों की यात्रा एक साथ करते हैं । तवांग का शहीद स्मारक भारत माता का नया मंदिर है । उस के दर्शन करने के बाद भारत और तिब्बत के संधिस्थल पर धरती माँ का पूजन करते है ंऔर दुनिया के अंतिम ग़ुलाम देश तिब्बत की स्वतंत्रता का संकल्प लेते हैं । यह नये भारत की ऐसी तीर्थ यात्रा है जो पूरे भारत को और उसके जीवन मूल्यों को अपने में समेटे हुये है ।

लेकिन भारत तिब्बत सहयोग मंच के संरक्षक इन्द्रेश कुमार ने इन सभी यात्राओं को एक श्रृंखला में पिरो कर इसे तवांग तीर्थ यात्रा का नाम दे दिया तो इसकी उपादेयता और भी बढ़ गईँ और अब यह केवल धार्मिक यात्रा न रह कर सच्चों अर्थों में राष्ट्रीय तीर्थ यात्रा बन गई है । इन्द्रेश कुमार के अनुसार तीर्थ यात्राओं का एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य भी होता है । आज भारत की आवश्यकता उस राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को प्राथमिकता देने की है । शायद इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये उन्होंने पूर्वोत्तर भारत की इन लघु यात्राओं को समन्वित करके इस राष्ट्रीय यात्रा का श्री गणेश किया । इस वर्ष यह यात्रा १८ नबम्वर को गुवाहाटी से प्रारम्भ होगी और २४ नबम्वर को वहीं आकर समाप्त होगी । राष्ट्रीय सिक्ख संगत भी इस ऐतिहासिक तवांग तीर्थ यात्रा में अपनी भागीदारी निभा रही है , इससे इस यात्रा का महत्व और भी बढ़ जाता है ।