आपातकाल: इंदिरा के अत्‍याचार से जनता की रूह कांप गई थी

1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी. यह सब हुआ इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फैसले को मानने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।


आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, "जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी."आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई. इनमें जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।


कैसे हुआ आपातकाल का जन्म?


मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था. लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि, इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किया. अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इस आदेश के  बावजूद इंदिरा गांधी ने खुद को न्यायालय से ऊपर साबित करने आपातकाल की घोषणा कर दी।


 कांग्रेस का दमन आत्मघाती बना


आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने का फैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। 1977 में 16 से 20  मार्च के बीच हुए में हुए चुनाव में विभिन्न दलों की संयुक्त नई राजनीतिक पार्टी जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और  24 मार्च को मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री सत्ता की बागडोर संभाली। इन चुनावों में आक्रोशित जनता ने इंदिरा गांधी को उन्हीं के गढ़ रायबरेली से चुनाव में हरा दिया। उस समय संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और आजादी के 30 वर्षों के बाद पहली बार केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस की पराजय का आलम यह था कि, उसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिल। 


शाह आयोग ने दोषी पाया


नई सरकार ने 1975-77 में लगी इमरजेंसी की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायधीश जेसी शाह की अध्यक्षता में एक कमिशन का गठन किया गया था। इस शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि,कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी ने संजय गांधी के साथ मिलकर विपक्षी पाटिर्यों के बड़े नेताओं को गिरफ्तार करवाने में महत्वपूर्ण भमिका निभाई। जिस वक्त आपातकाल की घोषण की गई उस वक्त देश में ना तो आर्थिक हालात खराब थे और ना ही कानून व्यवस्था में किसी तरह की कोई दिक्कत। रिपोर्ट में इदिरा गांधी पर आरोप लगाते हुए आयोग ने कहा कि प्रधानमंत्री ने देश में आपातकाल अपनी इच्छानुसार लगाया और इस संबंध में उन्होंने अपने पार्टी के किसी भी सहयोगी से विचार विमर्श तक नहीं किया। रिपोर्ट में इंदिरा गांधी केसाथ संजय गांधी, प्रणब मुखर्जी, बंसीलाल, कमलनाथ और प्रशासनिक सेवा कई वरिष्ठ अधिकारियों पर इन सभी राजनेताओं को कानून के खिलाफ जाकर मदद करने का अरोप लगाया जिसके फलस्वरूप देश की शांति व्यवस्था,एकता अखंडता,और भाइचारे का माहौल बुरी तरीकेसे प्रभावित हुआ। रिपोर्ट के पांचवे अध्याय में आयोग ने स्पष्ट कहा था कि आपातकाल के दौरान कुछ बड़े नेताओं की गिरफ्तारी राजनीतिक षड्यंत्र केतहत हुई थी जिससे सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी को किसी तरह का नुकसान ना हो। 


जुल्म की कहानी आयोग की जुबानी


आयोग ने तीन चरणों में 525 पन्नों की रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसकी पहली कॉपी 11 मार्च 1978 को सौंपी गई जिसमें इमरजेंसी लगाने के कारणों और प्रेस की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाए जाने के कारणों से संबधित थी। आयोग द्वारा पेश की गई दूसरी रिपोर्ट में तुकर्मान गेट पर हुई पुलिस कारर्वाई के साथ संजय गांधी की संलिप्तता पर आधारित थी। तुकर्नाम गेट पर हुई कारर्वाई में पुलिस ने बड़ी ही बर्बरता के साथ बेगुनाह लोगों पर गोलियां चलाई थी जो अपने घरों को उजड़ने से बचाने के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। इसकेबाद अंतरिम रिपोर्ट 6 अगस्त 1978 को पेश की गई जिसमें जेल केभीतर कैदियों के साथ हुई प्रताड़ना और परिवार नियोजन केनाम पर नसबंदी की सरकारी योजना पर आधारित थी।


अधिकारियों ने हदें पार कर दी


नौकरशाहों पर भी निशाना साधते हुए आयोग ने कहा कि ये वो लोग हैं जो देश की सबसे बड़ी परीक्षा पास कर केआते हैं और सब जानते हुए सरकारी नक्शे कदम पर चलते रहे और ये सिलसिला यहीं नहीं थमा प्रशासनिक सेवा केअधिकारियों ने आपताकाल से जुड़े कई महत्वपूर्ण साक्ष्यों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की बल्कि जेल नियमों केविरूद्व जाकर कई ऐसे कदम उठाए जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बिलकुल सही नहीं थे।अधिकारी अपनी नौकरी को बचाने और प्रोन्नती केलिए सरकार के गलत निणर्यों का साथ देते रहे। आयोग ने नसबंदी कार्यक्रम पर सरकार के रवैये को बेहद निराशाजनक करार देते हुए कहा कि पटरी पर रहने वाले   और भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गई बल्कि आॅटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण केलिए नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना पड़ता था। 


आख्रिर हासिल क्या हुआ?


आपातकाल मामले की जांच रिपोर्ट पर सुनवाई केलिए 8 मई 1978 में संसद ने विशेष एक्ट पास करते हुए दो विशेष अदालतों केगठन का आदेश  जनता पार्टी की सरकार ने दिलवाया था। किन्तु 16 जुलाई 1979 को इंदिरा गांधी की दोबारा सरकार  बाद सुप्रीम कोर्ट ने जनता पार्टी द्वारा गठित विशेष अदालतों को असंवैधानिक बताते हुए इस मामले में किसी भी तरह की जांच ना करने का आदेश दिए जाने से अमानुषिक अत्याचार की कहानी पर पर्दा पड़ा रह गया। जिससे दोषियों को बड़ी राहत मिल गई। एक आरटीआई कार्यकर्ता एस.सी. अग्रवाल की अपील पर गत वर्ष केन्द्रीय सूचना आयोग ने राष्ट्रपति सचिवालय को 1975 में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद द्वारा की गई आपातकाल की घोषणा से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के निर्देश के विरुद्ध सचिवालय ने संविधान के अनुच्छेद 74 का हवाला देते हुए सूचना देने से इंकार किया था। इसी तरह एक अन्य आरटीआई कार्यकर्ता गौतम अग्रवाल को प्रधानमंत्री कार्यालय में हाल ही में मांगी गई सूचना पर बेहद ही चौंकाने वाला जवाब दिया कि, पीएम आॅफिस में आपातकाल से जुड़े दस्तवावेज हैं ही नहीं! शाह कमीशन की रिपोर्ट की एक कॉपी नेशनल लाइब्रेरी आॅफ आस्ट्रेलिया में आज भी मौजूद है। इंदिरा गांधी की बायोग्राफी लिखने वाले कैथरीन फ्रैंक ने लिखा है कि शाह आयोग की जांच प्रक्रिया में इदिरा गांधी ने ईमानदारी के साथ सहयोग नहीं किया। 


इमरजेंसी के दौरान निर्दोष जनता पर हुए बर्बर अत्याचार और अमानुषिता पर रहस्य पड़े रहने का राजनीतिक फायदा कांग्रेस को ही होना है, सो वैसा आज तक हो ही रहा है।
-पुष्पारानी पाढ़ी