राजनीति में बदलती दृष्टि

                                                                                                                      मुझे एक कहानी याद आती है भारत का एक आदिवासी राजा विदेश घुमने गया अपना एक फोटो खिंचाने की इच्छा से फोटोग्राफर की दुकान पर पहुंचा वहां उसने देखा की फोटो खीचने की रेट लिस्ट जिसमें लिखा जैसे आप है वैसा फोटो 5 रूपये जैसा लोगों को दिखाई पडते है 10 रूपया जैसा आप सोचते है होना चाहिये। 15 रूपये राजा चैंका उसने कहा अभी तक तो मैं एक ही तरह के फोटो से परिचित था, फोटोग्राफर ने कहा 5 रूपये वाले में कोई दिक्कत नहीं लेकिन अन्य दो में अतिरिक्त मेहनत हैं जो नहीं है वैसा बनाने में। आदर्श झूठा व्यक्तित्व पैदा करता है। आज वर्तमान राजनीति में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है। मूल आदमी और उसका स्वभाव खो गया है जो नहीं है वैसा दिखने और करने में जनता के हाथ केवल नकली आदमी ही पकड़ में आ रहा है। वैसे अर्थशास्त्र का भी सिद्धांत है। नकली सिक्का असली सिक्के को चलन से बाहर कर देता है आज राजनीति में भी बनावटीपन, दिखने की चाह, लोगों को दिखाने की चाह, अपनो के बीच वैभव, और ठसक दिखाने का मजा कुछ और ही है। कुछ क्षेत्र ऐसे है जहां नकलीपन की ही सर्वोच्चता है मजबूरी है जैसे माया नगरी, लेकिन हैरत तब ज्यादा होती है ‘‘सेवक’’ के संग में नकलीपन, दिखावटीपन हो तो वह न केवल धोखा है बल्कि सेवा के पवित्र कार्य में जहर भी है। यही कारण है आज दिखने दिखाने की होड में, चमक में जब उनका असली चेहरा सामने आता है तब न केवल ऐसे लोग समाज को बदनाम करते है बल्कि उस क्षेत्र को भी कलंकित करते हैं।

            भारत एक लम्बे समय तक गुलाम रहा, सामंतवादियों एवं राजे-राजवाड़ों के प्रभाव में रहा जिससे आम और विशेष का विशेष प्रभाव रहा। समाजसेवा और राजनीति आपस में इतने घुलमिल गये कि दोनों में भेद करना भी मुश्किल हो गया है। समाजसेवा के पवित्र उद्देश्य से राजनीति में आये कुछ ही ऐसे विरले हैं जिन्होंने ‘‘सेवा की पवित्रता’’ को कायम रखा फिर बात चाहे लाल बहादुर शास्त्री की हो, मदन मोहन मालवीय की हो, या महात्मा गांधी की हो, वर्तमान में चाल चरित्र, चेहरा की बात करने वाली भाजपा में मोदी की हो, या योगी की हो या शिवराज की हो, इन्होंने राजनीति के क्षेत्र में सेवा की पवित्रता की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल ही है। बदलते परिवेश में राजनीति को एक नया आयाम दिया है लेकिन बुराई अच्छाई पर जल्दी प्रभुत्व जमा लेती है हाल ही में मोदी द्वारा वी.आई.पी. कल्चर को ले लालबत्ती को छोडने, हटाने की पहल निःसंदेह एक अच्छी शुरूआत है लेकिन कई पार्टी के ही लोग इस निर्माण से खुश नहीं है तभी तो जनता के प्रतिनिधि के वजह एक शासक बनने की मानसिकता से अपने को अलग नहीं कर पा रहे है। लालबत्ती हटी तो क्या अब हुटर लगायेंगे, यदि हूटर बंद किया तो शायद लाल कपडा, लाल गाडी, लाल चेहरा लेकर धुमेंगे। ऐसी मानसिकता ने ही जनप्रतिनिधियों को जन से ही दूर किया जो नहीं है वह दिखने की चाह में शहरो, कस्बों को होडिंग्स से पाटने की कोशिश एवं मानसिकता पर भाजपा के शीर्ष नेताओं को चिंतन एवं सुधार करना ही होगा।

            जब जनता का प्रतिनिधि ‘फ्री’ में मौज करें तो जनता क्यों नहीं? जब जनता सभी सुविधाओं का टैक्स पटाती है भुगतान करती है तो जनप्रतिनिधि क्यों नहीं? यहां यक्ष प्रश्न उठाता है जब जनप्रतिनिधि ही जनता के टैक्स के पैसों पर वेतन भत्ते सुख सुविधा की बात करें, तो जन सेवा कहां रही? फिर ये तो एक व्यवसाय हो गया फिर ‘फ्री’ कल्चर क्यों? समाज में भ्रष्टाचार और चोरी का बढावा शायद इसी कल्चर की प्रविति है। अब वक्त आ गया है कि शासकीय सेवक की तरह जन सेवकों की भी आचार संहिता सेवा शर्तों संबंधी नियमावली होना चाहिए। क्योंकि इनको भी जनता की गाढी कमाई के टैक्स से वेतन और पेंशन जो मिलती है। शासकीय सेवकों की तरह वेतन आयोग, बंगले के किराये का भुगतान, सम्पत्ति एवं व्यवसाय की घोषणा होना चाहिए। ताकि जनता को भी पता चले उसका जन सेवक कैसे एवं किस रीति-नीति से अल्पकाल में ही करोड़ो अरबों का मालिक कैसे बन गया? संबंधित पार्टी खुद ही आगे बढ ऐसों की जांच करें शसकीय सेवक की ही तरह महत्वपूर्ण पदों से स्वयं हटायें ताकि जनता में एक अच्छा संदेश जायें। गुण्डे मवालियों को राजनीति से दूर रखा जायें ताकि बाद में न कहना पडे हमें क्या मालूम?

            निःसंदेह जब हम रातों रात भ्रष्ट नहीं हुए तो रातो-रात ईमानदार भी नहीं हो सकते। परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है। लेकिन मोदी की सोच और पहल को पार्टी नेताओं ने मन से और मन को मारकर अपनाया तो वह समय दूर नहीं जब राजनीति में भी जन प्रतिनिधि को जवाबदेह बनाया जा सकें। सुशासन में उनकी भागीदारी ‘मन’ से हो जबरिया नहीं, आखिर सारा खेल मन का हैं।