सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत जरूरी क्यों हैं?

भारत और पाकिस्तान के बीच आजकल जो चल रहा है, वह अजूबा है। यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में एक विलक्षण प्रहसन के तौर पर जाना जाएगा। मुठभेड़ तो हुई है दो देशों के बीच, लेकिन दंगल उनके बीच नहीं, उनके अंदर चल रहा है। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए हैं। वे कह रहे हैं कि भारत ने यदि नियंत्रण-रेखा के पार शल्य-क्रिया (सर्जिकल स्ट्राइक) की है तो सरकार कोई प्रमाण क्यों नहीं देती? दूसरे शब्दों में सरकार प्रचार में तो मेधावी है, लेकिन प्रमाण में मंदबुद्धि क्यों है? फौज ने जब प्रमाण बनाकर वीडियो प्रधानमंत्री को सौंप दिए हैं तो प्रधानमंत्री संयम का उपदेश क्यों दे रहे हैं? सबूत देने की बात पहले दिन तो किसी ने भी नहीं उठाई थी। फौज के प्रवक्ता और सरकार ने ही सबूतों का झंडा फहराया था। अब जो लोग सबूत मांग रहे हैं, वे फौजी कार्रवाई की तारीफ तो जमकर कर रहे हैं, लेकिन सरकार के हाथ मजबूत करने के नाम पर उसकी टांग खींच रहे हैं। राहुल गांधी का ‘खून की दलाली’ वाला बयान बहुत जहरीला है।

उधर, पाकिस्तान की सरकार पहले दिन से बार-बार कह रही है कि नियंत्रण-रेखा के पार कोई हमला हुआ ही नहीं है। यह कोरी गप है। भारतीय फौजों ने कौन से सात ‘लांच पैड’ उड़ाए हैं और कौन से 38 पाकिस्तानी जवान और आतंकी मारे हैं, जरा वह दुनिया को बताए। उसने कुछ अपने और कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकारों को ले जाकर नियंत्रण-रेखा के वे स्थान भी दिखा दिए, जिन पर हमले का दावा हमारी सरकार ने किया था। संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों और इन पत्रकारों ने कहा है कि उन्हें हमले के कोई सबूत नहीं मिले।

यदि भारत ने कुछ नहीं किया है तो फिर पाकिस्तान में इतनी उथल-पुथल क्यों मची हुई है? प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को रोज बयानबाजी क्यों करनी पड़ रही है? वे अपने सेनापति राहील शरीफ से मंत्रणा क्यों कर रहे हैं? उन्हें मंत्रिमंडल, सभी दलों और संसद की आपात बैठक क्यों बुलानी पड़ी है? सारी बात आई-गई हो जानी चाहिए, लेकिन अफवाहों का बाजार गर्म है। अफवाह ये भी हैं कि दोनों शरीफ अब अपनी शराफत की हद पर पहुंच गए हैं। नवाज शरीफ ने फौज और आईएसआई से कह दिया है कि आतंकियों के खिलाफ जो भी कार्रवाई हो, उसमें वे बिल्कुल अड़ंगा न लगाएं। पाकिस्तानी अखबार ‘डाॅन’ की खबर है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेंजुआ और गुप्तचर मुखिया अख्तर को आदेश दिया है कि वे पाकिस्तान के चारों प्रांतों में जाएं और आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करें। पाक-प्रवक्ता ने इस खबर को मनगढ़ंत बताया है लेकिन पाक मीडिया पर यह खबर छाई हुई है।

असल बात तो यह है कि उड़ी में हुआ हमला पाकिस्तान को बहुत महंगा पड़ गया है। उड़ी-जैसे आतंकी हमले कई हो चुके हैं। भारत ने कई बार जवाबी कार्रवाई भी डटकर की है, लेकिन इन छुट-पुट मुठभेड़ों का जैसा प्रचार इन दिनों हुआ है, पहले कभी नहीं हुआ। हमारी प्रचारप्रेमी सरकार बधाई की पात्र है, जिसने सारी दुनिया में पाकिस्तान की दाल पतली कर दी है। वह इतना अकेला 1971 में भी नहीं पड़ा था, जब उसने पूर्वी पाकिस्तान में नर-संहार किया था। उस समय अमेरिका और चीन उसकी पीठ ठोंक रहे थे, लेकिन उड़ी की घटना ने उसे ‘अंतरराष्ट्रीय अछूत’ बना दिया है। दुनिया की किसी भी महाशक्ति, किसी भी मुस्लिम राष्ट्र और किसी भी दक्षेस राष्ट्र ने पाकिस्तान के लिए सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं बोला। उड़ी हमले की सबने निंदा की तथा भारत की जवाबी कार्रवाई को सही और जरूरी बताया। इस्लामाबाद में होने वाला दक्षेस सम्मेलन स्थगित हो गया। पाकिस्तान और आतंकवाद एक-दूसरे के पर्याय बन गए। आज आतंकवाद इतना घृणित शब्द है कि जो राष्ट्र भी इसमें लिप्त पाया जाएगा, उसे दुनिया ‘गुंडा-राज्य’ (रोग स्टेट) कहने के लिए तैयार है। पाकिस्तान की परेशानी का कारण यही है।

सच पूछा जाए तो सारा मामला अब ठंडा पड़ जाना चाहिए, क्योंकि मोदी ने भी इसे तूल देना ठीक नहीं समझा है और नवाज भी कह रहे हैं कि कुछ हुआ ही नहीं है। किंतु यह गरमाया जाता रहेगा, क्योंकि यह अब जितना भारत-पाक के बीच है, उससे कहीं ज्यादा यह दोनों देशों की आंतरिक राजनीति का अहम मुद्‌दा बन गया है। भारत में उत्तरप्रदेश और पंजाब के चुनाव हैं। पाकिस्तान में सेनापति राहील शरीफ अगले माह रिटायर होने वाले हैं और ‘पनामा पेपर्स’ से निकले काले धन की वजह से नवाज़ काफी कमजोर पड़ गए हैं। फौजी तख्ता-पलट की अफवाह भी गर्म है। इधर भारत में ढाई साल के राज ने मोदी की छवि को काफी मंदा कर दिया था। दिल्ली और बिहार में मात खाने तथा उत्तराखंड और अरुणाचल में दुर्गति करवाने के बाद यह उड़ी-कांड एक आसमानी वरदान की तरह टपक पड़ा। अब भाजपा इसे भुनाए तो इसमें गलत क्या है? इसी संभावना ने भारत के विरोधी दलों को हड़का दिया है। वे और नवाज़ शरीफ बिल्कुल एक ही आवाज में बोल रहे हैं। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ हुई ही नहीं। बेचारे विरोधी नेता अब पछता रहे हैं। पहले उन्होंने इस ‘नकली कार्रवाई’ का इतनी गर्मजोशी से स्वागत क्यों कर दिया? राहुल गांधी के दोनों बयानों -प्रशंसा और निंदा- में गहरी अपरिपक्वता दिखाई पड़ती है। पता नहीं, उन्हें कौन पट्‌टी पढ़ा रहा है? अपने ‘नेता’ के बयानों पर बेचारे बुजुर्ग कांग्रेसी नेता बगले झांक रहे हैं। यदि ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ विवादास्पद बन गया तो भी जो फायदा भाजपा को मिल गया, सो मिल गया। बस, डर यही है कि यह विवाद कहीं अंतरराष्ट्रीय बहस का मुद्‌दा न बन जाए। उस स्थिति में मोदी सरकार ही नहीं, भारत की प्रतिष्ठा भी दांव पर लग सकती है। तब सरकार के पास ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के प्रमाण पेश करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा।

यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि इन प्रमाणों को दिखाने से हमारे हथियार, हमारी रणनीति और हमारे रहस्य दुनिया के सामने उजागर हो जाएंगे। एक स्थानीय और छोटी-सी कार्रवाई के लिए इतनी बड़े-बड़े बहाने बनाने की कोई जरूरत नहीं है। हो सकता है कि मोदी सरकार पर ‘झूठ बोलने’ और ‘फौजियों के खून की दलाली’ के सारे आरोप लगाने के बाद विरोधी नेता जब गद‌्गद होने लगें तो उसी वक्त मोदी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के सारे प्रमाण उनके मुंह पर दे मारें। ये प्रमाण प्रकट हों या न हों, लेकिन ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, जिसका सरकार ने इतना प्रचार किया है और जो पहले गुपचुप होती थी, वह अब सरकार की नई नीति बन गई हैं। देखें, इस नई नीति का पालन कहां तक होता है?