मोदी का टूटता तिलिस्म

 

धर्म की भूमि पर कर्म के द्वारा व्यक्ति का अपना एक आभा मण्डल होता ह,ै इसी से लोग उसके अनुयायी बनते है। निःसंदेह कर्म की गति अति महीन होती है बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी इसमें चूक कर देते है। प्रतिकर्म को ही कर्म समझने की भूल कर बैठते है। जब विश्वास पर कर्म की मोहर लगती है तो दबे पैर अहंकार का प्रवेश हो ही जाता है। कहा भी गया है ‘‘पद पाये काहे मद नाहीं’’ यदि खुद बचना भी चाहे तो इर्द-गिर्द का वातावरण भी बचने नहीं देता, क्योंकि अहंकार के आते ही व्यक्ति की विवेक पर ‘‘पकड़ कमजोर’’ जो हो जाती है। जरूरी नहीं है अहंकार केवल अक्रमक ही हो यह विनम्र भी हो सकता है इसलिए अहंकार की पहचान में अक्सर चूक हो जाती हैं। लगातार मिलने वाली सफलता के बाद असफलता की शुरूआत निःसंदेह न केवल अति विश्वास को तोडती है बल्कि विश्वास पर भी आघात पहुंचाती है। वर्तमान की राजनीति के केन्द्र बिन्दु नरेन्द्र मोदी भी कुछ इसी तरह के झंझावतों से जूझ रहे हैं। गुजरात से उभरा चमत्कारिक व्यक्तित्व नरेन्द्र मोदी की यात्रा दिल्ली तक अनवरत सफल रही लेकिन विगत 9 माह का पर्याप्त समय के बाद जनता को अपेक्षित परिणाम न मिलने से एक के बाद एक असफलताओं का भी दौर शुरू सा हो गया हैं।

 

पहला भारत की राजधानी दिल्ली में भाजपा की करारी हार ने भाजपा को पुर्नविलोकन के लिए मजबूर किया। दूसरा प्रधानमंत्री की खुशनसीबी से वैश्विक स्तर पर डीजल-पैट्रोल के लगातार गिरते दामों में जनता को इसका पूरा फायदा न दे बीच-बीच में एक व्यापारी की तरह उत्पाद शुल्क का बढ़ाना। अब, जब पुनः वैश्विक स्तर पर जब पुनः इनकी कीमतें बढ़ रही है, तब क्या सरकार बढ़ाये उत्पाद शुल्क में कमी कर जनता को राहत देगी? या कम्पनी का घाटा रो उनके पाले में खड़ी होगी?

 

तीसरा भारत-पाक के विदेश सचिवों की जब वार्ता होनी थी उस समय केन्द्र की नई नवेली बहुमत वाली सरकार ने पाकिस्तानी उच्च आयुक्त के हुर्रियत नेताओं के बुलाये जाने से नाराज हो भारत ने वार्ता रद्द कर दी थी। अब अचानक मोदी क्रिकेट का बहाना बना भारत के विदेश सचिव एस. जयशंकर को शीघ्र इस्लामाबाद भेजने की बात किसी भी भारतीय जनता के गले नहीं उतर रही। यहां यक्ष प्रश्न उठता है आखिर ऐसा क्या हुआ कि हमारे शेर प्रधानमंत्री को अचानक पाक से वार्ता के लिए तैयार होना पड़ा? क्या पाक झुका? क्या अमेरिका ने धमकाया? क्या अमेरिका का भारत से पींगे बढाने से नाराज पाक चीन की गोद में बैठ जाने से डर गया? क्या अमेरिका एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव से डरा? क्या अमेरिका को अपने एकत्व-प्रभुत्व पर खतरा मंडराया? क्या अमेरिका राष्ट्रपति ओबामा का भारत की यात्रा का मुख्य उद्देश्य उनके अपने देश में उनकी घटती लोकप्रियता के मद्देनजर व्यापार और रोजगार बढ़ाने के उद्देश्य से केवल एक कुशल एवं चालाक व्यापारी की ही भूमिका थी? क्या भारत को हमारे पुराने मित्र रूस को नजर अंदाज कर नए मित्र पर अधिक भरोसा करना उचित हैं? वैसे भी चीन, अमेरिका, जापान एवं रूस के बीच सामरिक एवं आर्थिक विषयों को ले पहले से ही मतभेद है। यहां अमेरिका की एक चालाकी इसलिए भी समझ में आती है कि भारत की यात्रा से लौटते ही पाकिस्तान को 1 अरब डालर की मदद प्रस्ताव दे डाला। यहाँ फिर यक्ष प्रश्न उठता है मोदी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? जबकि पाक ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए अमेरिका के समर्थन का विरोध किया। निःसंदेह पाक मिली राशि का भी पहले की ही तरह अपनी प्रवृत्ति अनुसार भारत के ही विरूद्ध आतंकी हमले और सीमा पर छदम युद्ध के लिए करेगा। यहां फिर यक्ष प्रश्न सभी भारतीयों के मानस पटल तैर रहा है। मोदी बिना शर्त पाक से वार्ता के लिए क्यों तेैयार हुए? क्या हमारी कूटनीति फैल गई? क्या भारत के इस कदम से अलगाववादियों एवं आतंकवादियों के हौंसले बुलन्द नहीं होंगे? क्या यह सीमा पर हमारे शहीदों का अपमान नहीं हैं?

 

ये, वे ही ओबामा है जो भारत को धार्मिक असहिष्णुता पर उपदेश देते है, गांधी होते तो दुखी होते, कहते हैं उसी अमेरिका में अलगाववादियों द्वारा मंदिर तोड़ना कहां तक उचित हैं, अब मौन क्यों?

चौथा-              पूरे 9 माह में घरेलू सामान एवं साग सब्जियों के दाम आसमान छूते रहे। पांचवा-युवा बेरोजगार हाथों के लिए कोई ठोस रोजगार की योजना नहीं। छठवा-मध्यम एवं गरीबों को महंगाई से राहत नहीं। सातवां-प्रशासनिक स्तर पर कसावट जैसी कोई चीज नहीं और न ही इसके उत्साहजनक परिणाम जनता को दिखें। आठवां-भ्रष्टाचार एवं बलात्कार के मामलों में कोई भी कमी नहीं हुई। नौवां-मोदी का ‘‘विशेष सूट’’ जिसे बदनसीब मान नीलामी के दर तक पहुंचाया। एक और जहां कांग्रेस इसे डेमेज कन्ट्रोल बता रही हैं वही भाजपाई इसे गंगा सफाई के लिए धन जुटाने की बात कह रहे है। यहां फिर यक्ष प्रश्न उठता है आखिर हमारे परिधान मंत्री के और कितने ऐसे परिधान है? उनका नम्बर कब आयेगा?

सीधे ही प्रधानमंत्री केजरीवाल की तरह गलती को स्वीकार कर विवाद को खत्म क्यों नहीं करते?

गंगा सफाई का बहाना क्यों? यदि सरकार के पास धन नहीं है तो क्यों नहीं पूंजीपतियों, उद्योगपतियों से दान देने की मुहिम चलाते? आखिर सरकार भी तो इन्हे ंसमय-समय पर बड़ी-बड़ी न केवल सब्सीडी देती है बल्कि कर्जा भी माफ करती है फिर नेक काम के लिए दान कोई अहसान भी नहीं है। मोदी पर उंगली उठना स्वाभाविक है क्योंकि मोदी जिस पृष्ठ भूमि से आते है। वहां सादा जीवन उच्च विचार की ही विचारधारा है दिखाने की नहीं।

दसवां- देश में बढ़ते पशुवध के कत्लखाने ‘‘रेड मीट’’ और गौ हत्या को भी ले जनमानस मंे असंतोष व्याप्त है। अब वक्त आ गया है मोदी को जनता को परिणाम देने ही होंगे नही तो न केवल इनसे जनता का विश्वास उठ जायेगा, बल्कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर भी नहीं रह जायेगा।