माओ त्से तुंग का जन्म-स्थान: यात्रा-संस्मरण

जिन्ना की समाधि पर चार पंक्तियों का खामियाजा आडवाणीजी को इतनी जोर से भुगतना पड़ रहा है कि माओ के गांव देखने को मैं तीर्थ-यात्रा नहीं कह पा रहा हॅूं। मैं उसे तीर्थ कहूं या न कहूं, हूनान के लोग तो शाओ शान नामक इस गांव को तीर्थ ही मानते हैं और माओ को भगवान ! ‘शाओ शान’ नाम हिंदी में कितनी भव्यता की ध्वनि देता है, जैसे शाही शान हो। यह चीन के हूनान प्रांत में है। हूनान की राजधानी का नाम है – चांग शा। ‘शाओ शान’ चांग शा से लगभग 125 कि.मी. दूर स्थित है। कार से लगभग दो घंटे लगे और हम ‘शाओ शान’ पहुंच गए।

हूनान प्रांत चीन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह अपने तेज़ मसालेदार खाने के लिए प्रसिद्ध है। हूनान शब्द लगता है, जैसे यूनान हो। हूनानी बोली भी चीन की मुख्यभाषा, पू तुंग ह्वा (मेन्डारिन) से काफी अलग है। माओ त्से तुंग जब काम की खोज में पेइचिंग आए तो उनकी बोली वहां के लोगों को पल्ले ही नहीं पड़ती थी। इसका प्रत्यक्ष नमूना मैंने चांग शा हवाई अड्डे पर पहुंचते ही देखा। शांघाइ से मेरे साथ गईं, एकेडेमी आॅफ वल्र्ड वाॅच की वरिष्ठ महिला अफसर मदाम ली जैसे ही स्थानीय मेज़बान से बात करने लगीं तो मैंने अपनी दुभाषिया कन्या रेबेका होंग से कहा कि अनुवाद करो तो वह बोली कि मैं इन लोगों की बातों का एक शब्द भी नहीं समझ पा रही हॅूं। मदाम ली हूनानी हैं और वे हूनान की मुख्य भाषा से भी अलग अपने गांव के साथी श्री सीए चुन के साथ किसी स्थानीय बोली में बात कर रही थीं। भारत की तरह चीन में भी हजारों बोलियां हैं लेकिन उन्हें जोड़नेवाली भाषा एक ही है पू तुंग ह्वा।

शांघाइ से हमारा जहाज चांग शा दोपहर को पहुंचा था। उसी समय शाओ शान नहीं जाया जा सकता था, क्योंकि चीन के हिसाब से भयंकर गर्मी थी। 39 डिग्री की गर्मी चीनियों के लिए असह्य है। इसीलिए चांग शा में सड़कों पर सैकड़ों लोग उघड़े बदन घूमते दिखे। अपनी दुकानों के आगे औरतों और मर्दों को आरामकुर्सियों पर थोक में खर्राटे खींचते देखना अपने आप में एक दृश्य है। चांग शा की लंबी-चैड़ी सड़कें और गगन-चुम्बी अट्टालिकाएं देखकर नहीं लगता कि यह कोई प्रांतीय राजधानी है। दिल्ली तो इसके आगे कहीं नहीं ठहरती, मुंबई भी शायद इसके सामने फीकी लगे। इसके चैराहे लंदन के पिकेडिली सर्कस और न्यूयाॅर्क के टाइम्स स्क्वेयर से टक्कर लेते हैं। यहां दर्जनों बहुमंजिले सुपर बाजार हैं और सड़कों पर दिनभर वैसी ही गहमागहमी बनी रहती है, जैसी कि मेनहट्टन में दिखाई देती है। इतनी आधुनिकता के बावजूद यहां विदेशी लोग बिल्कुल भी दिखाई नहीं पड़ते। मुझे धोती-कुर्ता और काली बंडी में देखकर लोग अचकचा जाते थे। मेरे साथ चल रहे तीन-चार चीनी साथियों से वे पूछते थे कि ये सज्जन कहां से आए हैं? क्या किसी देश के बड़े नेता हैं? स्थानीय लोगों का असमंजस स्वाभाविक है। इतनी दूर कोई विदेशी क्यों आएगा? चांग शा औद्योगिक शहर जरूर है, मोटर कार और ट्रेक्टर-निर्माता शहर लेकिन यह पेइचिंग और शाघाइ तो नहीं है। यहां तो प्रायः अन्य देशों के कम्युनिस्ट नेतागण ही आते हैं, जिन्हें माओ के गांव की तीर्थ-यात्रा करनी होती है।

दूसरे दिन सुबह साढ़े आठ बजे ही हम शाओ शान के लिए मोटर में सवार हुए। मैंने नाश्ते में सिर्फ ठंडा दूध पिया। मदाम ली और रेबेका ने जमकर चीनी नाश्ता किया। हमें लेने स्थानीय विश्वविद्यालय के उपकुलपति सीए चुन आ गए। माओ त्से तुंग जब जवान होंगे, तब चुन की तरह लगते होंगे। चुन अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं जानते लेकिन अपने हाव-भाव और नैन-बैन से सम्प्रेषण-सेतु कायम कर लेते हैं। वे अपने साथ श्री ल्यू व्ए की बड़ी कार लाये हैं। ल्यू हूनान के चेम्बर्स आॅफ काॅमर्स केे निदेशक हैं और चांग शा के लोकप्रिय अध्यापक भी रहे हैं। उन्होंने पिछली शाम चांग शा के सबसे बड़े होटल में ‘स्वागत भोज’ आयोजित किया था। यह होटल कभी किसी राजा का विशाल महल रहा होगा। ल्यू अपने आपको बहुत पढ़ा-लिखा समझते हैं लेकिन उन्हें यह भी पता नहीं कि दिल्ली और मुंबई किस चिडि़या का नाम है। प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के नाम जानना तो और ज्यादा टेढ़ी खीर है। वे अमेरिका में पढ़े हैं। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोल लेते हैं। भारत आना चाहते हैं।

इन्ही ल्यू की कार से चुन, ली, रेबेका और मैं शाओ शान रवाना हुए। आश्चर्य कि सवा सौ कि.मी. लंबे रास्ते में कहीं भी गरीबी, गंदगी और गांव के दर्शन नहीं हुए। चीन भी भारत की तरह ही है। जहां-जहां गांव हैं, वहां-वहां गरीबी और गंदगी का साम्राज्य है। चीन के बड़े शहर न्यूयार्क और लंदन को मात देते दिखाई पड़ते हैं तो उसके गांव मूसाखेड़ी और हरदनहल्ली से भी ज्यादा पिछड़े हुए हैं लेकिन यह किसका गांव है? माओ त्से तुंग का गांव है। दुनिया के सबसे बड़े नेता का गांव ! चांग शा से शाओ शान तक के रास्ते पर डामर और सीमेंट की पक्की सडक़ जड़ी हुई है। रास्ते के दोनों तरफ लंबे-लंबे वृक्ष और उनके पार चावल के हरे-हरे खेत फैले हुए हैं। शाओ शान पहुंचते-पहुंचते पहाड़ी इलाका आ जाता है। रास्ते में छोटे-छोटे पोखर और झरने यात्रा को अधिक सुरम्य बना देते हैं। जहां-तहां खपरैल की छतवाले कच्चे घर भी दिखे लेकिन ज्यादातर मकान पक्के और सुघड़ दिखाई दिए। शाओ शान आ गया, इसका अंदाजा इसी बात से लग गया कि दर्जनों कारें और बसें दिखाई पड़ने लगीं, सैनिकों की मार्च करती टुकडि़यां लौट रही थीं और ‘गाइड’ लड़कियां हाथ हिला-हिलाकर हमारी कार रोक रही थीं। श्री चुन के दबदबे और कार की विशेष नम्बर-प्लेट के कारण हमारी कार ठेठ माओ की पाठशाला तक पहुंच गई, वरना जानलेवा धूप में हमें भी दो-तीन फर्लांग पैदल चलना पड़ता।

माओ की पाठशाला के पास उतरे तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि हम किसी गांव में आ गए। लगता है, जिस मूल गांव शाओ शान के बारे में माओ की जीवनियों में पढ़ा था, वह साफ कर दिया गया है और सारे स्थान को तीर्थ-स्थल की तरह बना दिया गया है। माओ की पाठशाला के बाहरी कमरे में माओ की आवक्ष मूर्ति लगी है और स्मारक वाक्य लिखा है कि विद्या से बड़ा कोई धन नहीं है। जिस कमरे में माओ पढ़ते थे, उसमें आठ-दस से ज्यादा छात्रा बैठ तो नहीं सकते। मेज़ और स्टूल के साथ 10ग्8 के कमरे में कितने लोग आ सकते हैं। कमरे तक पहुंचने के लिए लकड़ी की सीढि़यां हैं। खपरैल की छतवाला और चैड़ी ईंटों से बना यह कमरा मुश्किल से आठ फुट ऊंचा होगा। डेढ़ मंजिले मकान के इस कमरे में दो खिड़कियां हैं। माओ इन दोनों खिड़कियों के बीच बैठते थे, दीवार के पास। एक स्टूल पर ! आश्चर्य है कि अब से सौ साल पहले भी इस गांव की पाठशाला में टाटपट्टी नहीं, स्टूल-मेज की व्यवस्था थी। माओ के अध्यापक नीचे जमीन पर छोटे से कमरे में रहते थे। अध्यापक का पलंग वैसा ही है, जैसा कि लू शुन आदि के उपन्यासों में चित्रित है याने स्थिर पालकी की तरह। साथ में लकड़ी की छोटी-सी मेज़ और बच्चा-कुर्सी पड़ी थी। पूरी पाठशाला में दो अन्य कमरे भी थे। लगता है कि यह अध्यापक का घर ही रहा होगा।

लगभग 100-150 कदम दूर ही माओ का घर है। गांव के मकानों की तरह ईंट और चूने से बने इस मकान पर भी खपरैल की छत है। मकान एक मंजिला ही है लेकिन पोरबंदर में बने गांधीजी के मकान से काफी बड़ा है। माओ के माता-पिता, माओ और उनके भाइयों के लिए अलग-अलग शयन-कक्ष हैं। हर कक्ष में पालकीनुमा पलंग बना हुआ है। कमरों में बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं, जिनके पल्ले बाजू से नहीं, ऊपर से नीचे बंद होते हैं। माओ के भाई के शयन-कक्ष के पास ही सूअरों का बाड़ा है। माओ के पिता मूलतः अनाज के व्यापारी थे। वे सूअरों का व्यापार भी करने लगे थे। माओ को भी बचपन में दुकानदारी का अनुभव मिला था। माओ के घर की रसोई का कमरा भी काफी बड़ा है। उसमें दो बड़ी-बड़ी भट्टियां हैं, जो लोहे के तवों से ढकी हुई हैं। घर में भोजन करने और बैठने के कमरे भी अलग हैं। एक कमरे में धान की सफाई-कुटाई की व्यवस्था है। हर कमरे में कुछ न कुछ फर्नीचर हैं। लकड़ी की कुर्सियों या स्टूलों पर कहीं भी गद्दी नहीं है। गांव का खुरदरापन साफ-साफ दिखाई पड़ता है। सारा मकान खपरैल से ढका है। रोशनी के लिए हर कमरे में कांच के दो-तीन खपरैल लगे हुए हैं। मकान के अंदर एक चैकोर दालान भी है। मकान से बाहर निकलते ही अहसास होता है कि वह ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। पहाड़ी के नीचे एक छोटा-सा तालाब है और उसके पार फोटो खिंचाने का स्थल है। सैकड़ों लोग उस खास स्थान पर खड़े होकर फोटो खिंचाते हैं। मेरे साथ दर्जनों चीनी स्त्राी, पुरुषों और बच्चों ने फोटो खिंचवाए। इस फोटो-स्थल के पार हरी घास से ढंकी सुरम्य पहाडि़यां हैं।

माओ के घर से थोड़ी दूर ही संग्रहालय बना हुआ है। संग्रहालय के द्वार पर ही माओ की भव्य मूर्ति बनी हुई है। इस श्वेत मूर्ति पर नकली फूलों के गुलदस्ते चढ़ाए जाते हैं। कुछ लोग दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम भी करते हैं और चीनी भाषा में गुनगुनाते हुए मन्नतें भी मांगते हैं लेकिन फा मन आदि बौद्ध तीर्थों और शांघाइ के बौद्ध मंदिरों में बुद्ध की मूर्ति के आगे चीनी जिस प्रकार हाथ जोड़कर और घुटने टेककर भावभीनी प्रार्थना करते हैं, वैसा भावपूर्ण वातावरण यहां नहीं दिखाई पड़ा। यों भी अब चीन के घरों और दुकानों पर माओ और चाऊ एन लाई के चित्रा प्रायः दिखाई नहीं पड़ते। पिछले 25 वर्षों में चीन की रेल पूंजीवादी पटरी पर चल पड़ी है। व्यक्ति-पूजा और निजी महिमा-मंडन लगभग समाप्त हो चुका है। फिर भी छह-सात काफी बड़े कक्षों में माओ द्वारा इस्तेमाल की गई एक-एक चीज को बहुत सहेजकर रखा गया है। इन चीजों को देखकर लगता है कि माओ काफी सादगीपसंद व्यक्ति रहे होंगे। उनकी मां तो बौद्ध थी लेकिन भाई-बहन सभी उनके साथ क्रांति में कूद पड़े थे। परिवारजन के साथ उनके दुर्लभ चित्रा इस संग्रहालय में हैं, जो मुझे उनकी जीवनियों में कहीं दिखाई नहीं दिए। उनका पलंग बड़ा होता था लेकिन आधा किताबों से भरा रहता था। लाल क्रांति के लंबे अभियान के भी कई चित्रा देखे। 1966 में शाओ शान में आकर कुछ दिन रहे माओ के चित्रा भी दर्शनीय हैं। वह मोटर कार भी वहीं खड़ी है, जिसमें बैठकर राष्ट्रपति माओ अपने गांव आए थे। उस समय उनके लिए जो विशेष पलंग बना था, वह भी देखने लायक था। बिल्कुल सादा लेकिन ऊपर से नीचे की तरफ ढलता हुआ। मुझे बताया गया कि वे ऐसे पलंग पर इसलिए सोते थे कि रात को सोते वक्त लेटे-लेटे किताबें पढ़ने में उनको सुविधा होती थी। इसी संग्रहालय में सस्ते-से कपड़े का हल्के, नीले रंग का एक पेंट भी रखा हुआ है, जिसकी पूरी बैठक रफू हुई दिखाई पड़ती है। यही पेंट पहनकर वे अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मिले थे। उनके गांव के मकान में नहाने की तो कोई खास जगह दिखी नहीं लेकिन इस संग्रहालय के जिस भवन में वे कुछ दिन ठहरे थे, वहां उनके शयन-कक्ष के पास अच्छा-खासा स्नान-कक्ष बना हुआ था, जिसमें बाथ-टब आदि सभी सुविधाएं थीं।। इस संग्रहालय को देखने के लिए कतारें नहीं लगी थीं फिर भी दो-चार लोग हर कमरे में दिखाई पड़ जाते थे। क्योंकि दो कमरों में हमारे अलावा कोई नहीं था, हमारे मेज़बानों ने चैकीदारों की नज़र बचाकर तड़ातड़ कुछ फोटो खींच लिए। संग्रहालय के अंत में लंबी-चैड़ी दुकान है, जिसमें माओ के पोस्टर, चित्रा, मूर्तियां, बिल्ले, घडि़यां, चाबी-छल्ले आदि बिकते हैं। मैंने भी लगभग डेढ़ सौ रुपए का एक छल्ला खरीदा। मेज़बानों का दिल रखने के लिए भी कुछ न कुछ तो करना चाहिए न !

यह सब देखते-देखते लगभग दो घंटे बीत गए लेकिन गर्मी और उमस ने निचोड़कर रख दिया। धूप न लगे, इसलिए रेबेका मुझ पर बराबर छाता ताने रहती थी लेकिन सारे कपड़े पसीने में लथपथ हो गए थे। ऐसी हालत में कहा गया कि वे गुफाएं देखने चलिए, जिनमें माओ अपनी लाल सेना के साथ छुपे रहा करते थे। जैसे ही गुफा के द्वार पर पहुंचे, ठंडी हवा का जोरदार झोंका आया। शायद अंदर एयर कंडीशनर्स लगे हुए थे। गुफाओं को इतने अच्छे ढंग से सजा दिया गया है कि वे गुफाएं ही नहीं लगतीं। बाहर निकलकर मालूम पड़ा कि ये गुफाएं वैसी ही दुर्गम हैं, जैसी कि अफगानिस्तान की पहाडि़यां। समर-नीति के अध्येताओं के लिए यह रोचक विषय है कि छापामार युद्धों में इन गुफाआंे और पर्वत-श्रेणियों का कितना विलक्षण उपयोग होता है। गुफा के बाहर एक पहाड़ी पर शेर का मुख बना हुआ है। उससे पानी झर रहा था। मुझसे कहा गया कि मैं भी भीड़ में घुसकर उस पानी को प्रसादस्वरूप ग्रहण करूं। उससे अनेक कष्ट दूर होते हैं। मुझे बड़ी विनम्रतापूर्वक इस पाखंड से बच निकलना पड़ा। लगता है, चीन में अंधविश्वास और पाखंड का साम्राज्य उसी तरह फैला हुआ है, जैसा कि भारत में है। एक तिब्बती दुकान में एक चीनी ने बुद्ध-पूजा के नाम पर जबर्दस्त ढोंग फैलाया और हमारी साथिन श्रीमति ली को 10 रु. का पत्थर डेढ़ हजार रुपए में टिका दिया। माओ के गाव से लौटते ही यह घटना घटी। माओ त्से तुंग जैसे क्रांतिकारी के गांव में ही अभी तक अंधविश्वास की जड़ें हरी हैं तो शेष देश के क्या कहने?

चांग शा से लौटते हुए ल्यू शाओ ची के गांव, ‘व्हा मिंग लौ’ भी जाने का विचार था लेकिन गर्मी और उमस ने थका डाला था। हमारी कार के ड्राइवर की सिगरेट के धुएं के कारण सिर में चक्कर आने लगा था। ल्यू शाओ ची के गांव न जाने का अफसोस सदा रहेगा। ल्यू माओ के दाएं हाथे थे, क्रांति के दिनों में लेकिन सांस्कृतिक क्रांति के दिनों में उनके साथ माओ ने अच्छा सलूक नहीं किया। वे राष्ट्रपति और पोलितब्यूरो के सदस्य भी रहे। मुझे उनके लेख माओ से भी ज्यादा प्रभावशाली लगते थे। उनकी शैली सरल और विचार तर्कपूर्ण होते थे। बचपन में पढ़ी उनकी पुस्तक ‘अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें?’ आज भी मुझे याद है।

चांग शा लौटने क बाद दूसरे दिन हमने अपना रात्रि-भोज ‘अग्नि मंदिर रेस्तरां’ (हुअ गोंग दिन) में किया। यह वह रेस्तरां हैं, जहां माओ अक्सर आया करते थे। चीनी भोजन और खाने के तौर-तरीकों पर अलग से लिखना उचित रहेगा लेकिन यहां यह बताना जरूरी है कि यह रेस्तरां आज भी चांग शा का सबसे सस्ता रेस्तरां है और इसमें मेरे जैसे शाकाहारी व्यक्ति के लिए भी दर्जनों पकवान थे। मदाम ली मुझे यह रेस्तरां सिर्फ दिखाना चाहती थीं, यहां खिलाना नहीं चाहती थीं। इस रेस्तरां में हर प्लेट 2 या 3 युआन (चीनी रुपया) की थी, जबकि उसका मूल्य अन्यत्रा हम 25 या 30 युवान देते थे। ‘अग्नि मंदिर’ के साथ-साथ बने होने के कारण इसका नाम अग्नि मंदिर रेस्तरां पड़ गया। यह एक बड़ा-सा चैकोर हाल है, जिसमें सादी मेज-कुर्सियां लगी हुई हैं। लगभग 200 लोगों के बैठने की जगह है। यहां माओ की कोई निशानी नहीं है। जनश्रुति के आधार पर ही इस रेस्तरां की प्रतिष्ठा है।