बांधों से विकास?

-विमल भाई

एनएचपीसी कहती है कि बांध से विकास होगा तो फिर प्रश्न ये है कि पूरी जानकारी लोगों को क्यों नहीं दी जा रही है? जानकारी हिन्दी में क्यों नहीं दी जा रही है? सरकार को कहीं इस बात का डर तो नहीं है कि यदि लोग सच्चाई जान जाएंगे तो बांध का विरोध करेगें।

मेरे जीवन के बुरे दिनों में दो दिन 27 और 28 जून 2007 के रहे। देवप्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा के संगम के बाद जो नदी बहती है उसे गंगा के नाम से जाना जाता है। इन दोनों दिनों में टिहरी व पौड़ी जिले में प्रस्तावित कोटली भेल जल विद्युत परियोजना चरण-2 की जनसुनवाई हुई और लोगों ने सिर्फ अपनी कुछ मांगें रखी। लोग जानते ही नहीं थे कि क्या होने वाला है। प्रचारित है कि बांध विकास है और उसका विरोध करने को पूंजीपरस्त तबका राष्ट्रद्रोह कह देता है। एनएचपीसी कहती है कि बांध से विकास होगा तो फिर प्रश्न ये है कि पूरी जानकारी लोगों को क्यों नहीं दी जा रही है? जानकारी हिन्दी में क्यों नहीं दी जा रही है? सरकार को कहीं इस बात का डर तो नहीं है कि यदि लोग सच्चाई जान जाएंगे तो बांध का विरोध करेगें।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इसे ऊर्जा राज्य बनाने की कवायद काफी तेज हुई है। इसी क्रम में कोटली भेल जलविद्युत परियोजना भी एक है। चरण एक और चरण दो भागीरथी, अलकनंदा तथा गंगा पर प्रस्तावित है। भागीरथी एवं अलकनंदा गंगा की मुख्य सहायक नदियां हैं। दोनों नदियों को अनेक छोटे-बड़े बांधों में कैद किया जा रहा है। देवप्रयाग में संगम के बाद इसे गंगा कहा जाता है। एनएचपीसी द्वारा प्रस्तावित कोटली भेल चरण-1 अ, ब और चरण-2, इन तीनों ही परियोजनाओं की जनसुनवाइयों में भयंकर प्र्र्रक्रियागत दोष रहे हैं। भागीरथी, अलकनंदा और गंगा पर बनने वाली ये परियोजनाएं देवप्रयाग तथा नीचे की जगहों के लिए हमेशा खतरे की घंटी बनी रहेगी। साथ ही ये परियोजनाएं पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी विनाश का कारण बन रही हैं।

परियोजना संबंधी कागजात अधिकारियों द्वारा छुपाए जा रहे हैं। प्रभावितों को जानकारी ना मिले, ऐसी कोशिश हर बार की जा रही है। लोगों को ये भी पता नहीं चल पाया कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट और प्रबंध योजना जैसे कोई कागजात होते हैं, जिन पर जनसुनवाई की जाती है। न ही इस तरह के कागजात लोगों को उपलब्ध कराए गए। इन कागजातों में परियोजना संबंधी संपूर्ण जानकारी होती है। जिसमें जन-जीवन, जंगल, वायु-प्रदूषण, जीव-जंतुओं, नदी घाटी आदि पर प्रभावों का अध्ययन शामिल होता है। पुनर्वास सहित इन प्रभावों के प्रबंधन पर प्रस्तावित खर्च का ब्यौरा भी इसमें होता है।

पहले प्रस्तावित कोटली भेल चरण-1 अ और ब, दोनों ही परियोजना क्षेत्रें में पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट व प्रबंध योजना प्रभावितों से छुपाई गई। प्रधानों को दिये गए नोटिसों में मात्र सूचना थी। जिसमें जनसुनवाई के कारणों और उससे सबंधित कागजातों की सूचना भी नहीं थी। माटू जनसंगठन ने जब इसकी जानकारी प्रभावित गांवों में दी तो एनएचपीसी नें गांवो मे लाभों के पर्चे बांटे। प्रभावितों से परियोजना के दुष्प्रभावों को छिपाने का ये भी एक तरीका था। एक दिन सैंकड़ों कि संख्या में ग्रामीण ‘बिना जानकारी जनसुनवाई रद्द करो, जानकारी नही तो बांध नहीं’ के नारों के साथ नेशनल हाइड्रो पावर कारपोरेशन की प्र्रस्तावित कोटली-भेल चरण 1 ब के लिए हो रही जनसुनवाई के बड़े से पंडाल में घुस गए। एनएचपीसी व पुलिस ने लोगों को रोकने की असफल कोशिश की। प्रभावित 27 ग्राम सभाओं की ओर से लिखा गया एक पत्र मलेथा गांव के प्रधान रघुबीर सिंह नेगी ने ताकत के साथ पढ़ा। सबने इस मांग का समर्थन किया कि पर्यावरण प्रभाव आकलन व प्रबंध योजना की सूचनाओं के अभाव में कोटली-भेल चरण 1 ब की जनसुनवाई स्थगित होनी चाहिए। लोगों ने बायकाट भी किया लेकिन जनसुनवाई चालू रही। प्रभावित लोग अंत तक जनसुनवाई के पंडाल के बाहर धरना देकर बैठे रहे, नारेबाजी की और बाद में मुख्य विकास अधिकारी सौजन्या उनसे मिलने बाहर भी आर्इं। प्रभावितों ने उन्हें भी बताया कि लगातार पत्र भेजने के बावजूद उन्हें परियोजना के प्रभावों की जानकारी नही मिल पाई है। लोगों की मांग थी कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट और पर्यावरण प्रबंध योजना में दिए गए पत्र के सभी मुद्दों को सही रूप में जोड़कर पुन: दोनों कागजात पर्यावरण विशेषज्ञों से बनवाए जाएं। साथ ही ये रिपोर्ट हिन्दी में अगली जनसुनवाई से एक महीना पहले दी जाए।

बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रभावितों को ये भी नहीं मालूम कि किसकी कितनी जमीन जा रही है? कहां तक जा रही है? प्रभावित जमीन का आधार कैसे तय किया गया? शेष जमीन पर क्या प्रभाव पडेग़ा? चारागाहों व उसके रास्तों का क्या होगा? जो पेड़ काटे जाएंगें उसके बदले में वे कहां लगाए जाएंगे? कौन लगाएगा? परियोजना से खेती पर क्या असर पडेग़ा ? झील से उठने वाली धुंध के क्या असर होंगे? विभिन्न तरह के छोटे भूस्खलनों से खेती और अलकनंदा नदी में गाद की मात्र बढ़ने का क्या कोई सर्वे या अध्ययन किया गया है?

यह क्षेत्र रिक्टर स्कैल पर चार या पांच स्तर के भूकंप क्षेत्र में आता है। उत्तरकाशी का भूकंप रिक्टर स्केल पर छह से ज्यादा था। जिसमें दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे और हजारों लोग घायल हुए थे। मनेरी भाली-1 बांध के ऊपर स्थित जामक गांव उत्तरकाशी भूकंप में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था। श्रीनगर फाल्ट कोटली भेल चरण-1 ब पास में ही है। क्या इस बांध निर्माण में इसका ध्यान रखा जा रहा है? इस क्षेत्र में रोजगार की समस्या बड़ी है। इसका भी अब तक की बनी जलविद्युत परियोजनाओं में लोगों को कोई ठोस समाधान नहीं मिला है। एनएचपीसी ने धौली गंगा परियोजना में कितनों को नौकरी दी? भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा टिहरी जलाशय के रिम क्षेत्र में भागीरथी व भिलंगना नदी पर किया गया सर्वेक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस सर्वेक्षण से लोगों की आशंका सही साबित हुई है। ग्रामीण पहले से ही यह संदेह कर रहे थे कि बांध जलाशय से ऊपर के गांवों के नीचे गिरने का खतरा है। अब यह बात सही साबित हो रही है।

उत्तराखंड एवं देश के दूसरे हिस्सो में एनएचपीसी ने अपनी परियोजनाओं से प्रभावितों तथा पर्यावरण की क्या दुर्दशा की है, यह किसी से छुपी नहीं है। माटू जनसंगठन ने फरवरी में कोटली-भेल चरण 1 ब की जनसुनवाई में हुई कानूनी व जनाधिकारों की अवहेलना पर केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय, उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और एनएचपीसी को कानूनी नोटिस दिया था। इसलिए कोटली-भेल चरण 1 ब की दूसरी जनसुनवाई पौड़ी जिले में भी की गई। क्योंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन संशोधित अधिसूचना सितंबर 2006 के अनुसार परियोजना प्रभावित सभी जिलों में जनसुनवाई करनी आवश्यक है। इसलिए टिहरी के साथ पौड़ी में भी जनसुनवाई जरूरी थी। कोटली- भेल चरण 1 ब की दूसरी जनसुनवाई पौड़ी जिले में हुई। इस बार ग्राम प्रधानों को सूचना पत्र के साथ वही पुराना सार-संक्षेप दिया गया जो पहली जनसुनवाई में दिया गया था। जब चार महीने बाद जनसुनवाई दुबारा हुई तो न लोगों को पिछली मांग के अनुसार हिंदी में कुछ समझाया गया और न ही परियोजना के प्रभावों के बारे में कुछ बताया गया। जो सार संक्षेप दिया गया वह भी अपूर्ण है।

आज भी बांध के दुष्प्रभावों की सही जानकारी एनएचपीसी नहीं दे रही है। अब बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यहां भी लोग टिहरी वालों की तरह ही ठगे जाएंगे? आसार तो यही लग रहे हैं। अगर वाकई इसे हम रोकना चाहते हैं तो सारे आपसी मतभेदों को भुलाकर सबको एक साथ विकास के नाम पर चलाए जा रहे विनाश के खेल के खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी। अगर ऐसा नहीं हो सका तो तय मानिए कि इसका खतरनाक परिणाम मौजूदा पीढ़ी के साथ-साथ आने वाली पीढ़ी को भी भुगतना पड़ेगा।