बचपन मुस्कुराने से महरूम न हो जाए

इन दिनों बन रहे समाज में बच्चों की स्कूल जाने की उम्र लगातार घटती जा रही है, बच्चों के खेलने की उम्र को पढ़ाई-लिखाई में झोंका जा रहा है, उन पर तरह-तरह के स्कूली दबाव डाले जा रहे हैं। अभिभावकों की यह एक तरह की अफण्डता है जो स्टेटस सिम्बल के नाम पर बच्चों की कोमलता एवं बालपन को लील रही है, जिसके बड़े घातक परिणाम होने वाले है। इससे परिवार परम्परा भी धुंधली हो रही है। तने के बिना शाखाओं का और शाखाओं के बिना फूल-पत्तों का अस्तित्व कब रहा है? हम उड़ान के लिये चिड़िया के पंख सोने के मण्ड रहे हैं, पर सोच ही नहीं रहे हैं कि यह पर काटने के समान है।

कामकाजी महिलाओं की बढ़ती होड़ ने बच्चों के जीवन पर सर्वाधिक दुष्प्रभाव डाला है। एक और घातक स्थिति बन रही है जिसमें हम दुधमुंहे बच्चों से उन्नत कैरियर की अपेक्षा करने लगे हैं। इतना ही नहीं हम अपनी स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता के लिये बच्चे को पैदा होते ही स्वतंत्र बना देना चाहते हैं। उसके अधिकारों और कैरियर की बात तो है, मगर उसकी भावनात्मक मजबूती की बात कहीं होती ही नहीं है। हमारे यहां भी पश्चिमी देशों की भांति इस विचार को किसी आदर्श की तरह पेश किया जाने लगा है कि बच्चे का अलग कमरा होना चाहिए, उसे माता-पिता से अलग दूसरे कमरे में सोना चाहिए। मगर क्या सिर्फ महंगे खिलौनों, कपड़ों, सजे-सजाए कमरे और सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाने भर से बच्चे का मानसिक और भावनात्मक पोषण और जरूरतें पूरी हो सकती हैं? मां से बच्चे को जो मानसिक संबल एवं भावनात्मक पोषण मिलता रहा है, क्या वह प्ले स्कूलों से संभव है?

दो-तीन वर्ष की उम्र के बच्चों पर लादा जा रहा शिक्षा का बोझ एक ऐसी विकृति को रोपना है जिससे सम्पूर्ण पारिवारिक व्यवस्था के साथ-साथ एक सम्पूर्ण पीढ़ी  लड़खड़ाने वाली है। यह बचपन पर बोझ है, इसका प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि अस्पतालों में आधी से अधिक भीड़ बच्चों की होती है। आंखों पर मोटे-मोटे चश्मे लग जाते हैं। सिरदर्द की शिकायत बढ़ती जा रही है। पढ़ाई को लेकर बच्चे लगातार तनाव में रहते हैं। जितना अधिक दबाव होगा, उतने ही बच्चे और किशोर मानसिक रूप से परेशान और बीमार होंगे, उतना ही अधिक आत्महत्या जैसे विचार आएंगे। इसके लिए ठोस उपाय शीघ्र ही खोजने होंगे। व्यावसायिकता और अति महत्वाकांक्षाओं के जाल में फंसकर हम कहीं नई पीढ़ी को खो न दें। इस नई पीढ़ी को संभालना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।

परिवार के बदलते स्वरूप, माताओं के कामकाजी बन जाने और बढ़ती व्यस्तताओं के बीच अब उनके बच्चों के स्कूल जाने की उम्र पांच साल या इससे ऊपर नहीं रही, बल्कि शहरों-महानगरों में यह घट कर महज तीन साल रह गई है। तीन साल ही नहीं, कुछ मामलों में तो यह और भी कम हो गयी है। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि कुछ सालों पहले तक तीन से छह साल तक के बच्चों के लिए प्ले या प्री स्कूल की व्यवस्था प्रचलित हुई थी, जिसमें  इतने छोटे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई न होकर उनके खेलने-कूदने एवं मानसिक विकास के लिये उनसे तरह-तरह के उद्यम करवाये जाते थे। लेकिन देखने में आ रहा है कि प्ले एवं प्री स्कूलों के लिये भी बाकायदा पाठ्यक्रम बन गये हैं और इसके बढ़ते दायरे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों के भीतर इसने एक बड़े कारोबार का रूप ले लिया है। न केवल भव्य एवं आलीशान प्ले एवं प्री स्कूलें बन गयी है बल्कि उनके पाठ्यक्रम भी आकर्षक एवं खर्चीले बनने लगे हैं। फीस के नाम पर मोटी रकम की वसूली से लेकर बच्चों के साथ बर्ताव तक के मामले में अक्सर कई तरह गड़बड़ियां सामने आती रही हैं। इसके अलावा, कई जगहों पर सिर्फ एक कमरे या किसी बेसमेंट तक में ऐसे स्कूल चलाए जाते हैं। क्या वास्तव में हम बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं। आधुनिकता और विलासिता की चकाचैंध में बच्चों को कच्ची उम्र से ही अपने अनुसार ढालने की प्रक्रिया और टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे आधुनिक माध्यमों के प्रभाव के चलते बचपन कहीं गुम होता जा रहा है। हम अपने बच्चों को एक रोबोट जैसा बनाते जा रहे हैं, जिसका रिमोट हमारे हाथ में होता है। कहीं यही कारण तो नहीं हैं कि कच्ची उम्र से ही आत्महत्या करने की भावना जन्म लेने लगी है। ये वह दौर है, जब हर तरह के सर्वे हो रहे हैं, अध्ययन हो रहे हैं, शोध हो रहे हैं, लेकिन कोई शोध इस बचपन के बोझ को कम करने के लिए हो रहा है क्या? क्या ऐसा नहीं लग रहा कि बचपन को हमने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन-दौलत के लालची व्यापारियों के हाथों में सौंप दिया है?

विकास और आधुनिकता के नाम पर हमारे चारों ओर जो घेरा बन गया है, वह एक चक्रव्यूह की तरह हो गया है और हम अभिमन्यु की भांति इसमें प्रवेश तो कर गए हैं, परंतु बाहर निकलने का रास्ता हमारे पास नहीं है। कोई अर्जुन या कृष्ण भी हमारे पास नहीं है, जो हमारा मार्ग प्रशस्त कर सके। यहां मुद्दा हमारी बाल पीढ़ी का है, जो बेहद संवेदनशील है। ऐसे में बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत सिंह की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है कि… ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी… इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ, असंवेदनशील होते रिश्तें और आज की मशीनीकृत जीवनशैली लीलती जा रही है।

इन प्ले स्कूलों पर नियंत्रण या निगरानी के लिए अब तक कोई सरकारी संस्थागत व्यवस्था नहीं है, इसलिए इनके संचालकों की मनमानी की शिकायतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसी के मद््देनजर इन्हें नियमन के दायरे में लाने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। अब देर से सही, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इन स्कूलों की खातिर बाकायदा दिशा-निर्देश जारी किया है। इसके तहत अब किसी भी प्ले या प्री-स्कूल को चलाने के लिए मान्यता अनिवार्य होगी। इसमें संबंधित प्राधिकार से अनुमति, बीस बच्चों पर एक शिक्षक, देखभाल के लिए सहायक-सहायिका, इमारत में चारदिवारी, रोशनदान, बेहतर बुनियादी सुविधाएं, सुरक्षा-व्यवस्था और सीसीटीवी जैसी शर्तें शामिल हैं। बच्चों को किसी भी तरह का शारीरिक या मानसिक दंड देना अपराध होगा। वहां काम करने वाले सभी कर्मचारियों को न्यूनतम योग्यता और पुलिस जांच की तय प्रक्रिया से गुजरना होगा। इन प्रावधानों के साथ-साथ न्यूनतम उम्र का भी निर्धारण होना अपेक्षित है। इस राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए और विशेषज्ञों की एक कमिटी बनाकर उनसे राय ली जानी चाहिए कि प्ले स्कूलों में प्रवेश के लिये उम्र क्या होगी? इन स्कूलों में पाठ्यक्रम की बजाय शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये खेलकृूद के साथ-साथ अन्य उपक्रम होने चाहिए। आॅस्कर वाइल्ड ने कहा है कि ‘‘मेरे पास बहुत से फूल हैं लेकिन बच्चे सबसे सुंदर फूल हैं। इन बच्चों पर वक्त से पहले चिन्ताएं लादना त्रासदभरी प्रक्रिया है। जिन विकासशील और विकसित राष्ट्रों ने बचपन को अनदेखा किया, वे पछता रहे हंै। वे महसूस कर रहे हैं कि कुछ पाने में बहुत कुछ खो दिया है। हम उन राहों पर चलकर क्यों आत्महंता बन रहे हैं?

खेल के मैदान का मुंह तो महानगरों के बच्चे शायद ही कभी देख पाते हों। महानगर ही क्यों, अब तो यही हाल कमोबेश शहरों और कस्बों का होता जा रहा है। दरअसल, पढ़ाई के बढ़ते उत्तरोत्तर बोझ ने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। यह बात दीगर है कि इसकी वजह से वे भले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, प्रशासनिक अधिकारी बन रहे हों, पर इंसान बनने के मूलभूत गुणों से वंचित होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानी संगत का विकल्प टीवी, स्वचालित खिलौने और केवल किताबी ज्ञान ही नहीं हो सकता। छोटे परिवार, स्वार्थमय जीवन, अपने पराये का भेद आज की पीढ़ी कच्ची उम्र में ही सीख जाती है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर मानव सभ्यता विकास और उन्नति के शीर्ष पर अपने कदम रख रही है, तो दूसरी ओर हम और हमारी पीढ़ी संवेदनाशून्य, भावशून्य होकर मानवीय मूल्यों व उसकी गरिमा को रसातल में ले जाने पर उतारू हैं। इसकी वजह बहुत हद तक जीवन में विद्यमान प्रतियोगिता और कृत्रिमता है।

समय का तकाजा है कि हम उन सभी रास्तों को छोड़ दें जहां बच्चों की शक्तियां बिखरती हैं। बच्चों को संवारना, उपयोगी बनाना और उसे परिवार की मूलधारा में जोड़े रखना एक महत्वपूर्ण उपक्रम है। इसके लिए हमारे प्रबल पुरुषार्थ, साफ नियत और दृढ़ संकल्प की जरूरत है। इसके लिये परिवार के परिवेश को ही सशक्त बनाने की जरूरत है।

जिंदगी वह है जो हम बनाते हैं। ऐसा हमेशा हुआ है और हमेशा होगा। इसलिए बच्चों से बचपन में ही अतिश्योक्तिपूर्ण अपेक्षाएं करना, उन पर शिक्षा का बोझ लादना और उनके कोमल मस्तिष्क पर दबाव डालना उचित नहीं है। महान विचारक कोलरिज के यह शब्द-‘पीड़ा भरा होगा यह विश्व बच्चों के बिना और कितना अमानवीय होगा यह वृद्धों के बिना?’ वर्तमान संदर्भ में आधुनिक पारिवारिक जीवनशैली पर यह एक ऐसी टिप्पणी है जिसमें वृद्ध और बच्चों की उपेक्षा को एक अभिशाप के रूप में चित्रित किया गया है।

ऐसा देखा गया है कि शहरों-महानगरों की तेज जीवनशैली से प्रभावित कई माता-पिता जल्दी से जल्दी पढ़ाई शुरू कराने के चक्कर में दो साल की उम्र में ही अपने बच्चे को प्ले या प्री स्कूल में भेजना शुरू कर देते हैं। जबकि इतनी छोटी उम्र के बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क को भावनात्मक संरक्षण और बाल मनोविज्ञान की समझ रखने वाले प्रशिक्षित कर्मी की जरूरत ज्यादा पड़ती है। इसलिए यह तय किया गया है कि प्ले स्कूल तीन साल से छोटे बच्चे को दाखिला नहीं दे सकेंगे। एक और अच्छी बात यह है कि इन स्कूलों के लिए मॉड्यूल और पाठ्य-पुस्तकें तैयार की जा रही हैं, ताकि वहां आने वाले बच्चों को नियमित शिक्षा के ढांचे के तहत आगे की दिशा मिल सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि आयोग सिफारिशें देकर खामोश नहीं बैठ जाएगा, बल्कि उन पर अमल का संज्ञान भी लेगा।

कैसी विचित्र स्थिति बनती जा रही है, बच्चे का जन्म आज के माता-पिता के सुख-साधन में रोड़ा बनने लगा है। उनकी आजादी में बाधा बनता है, इसलिए वे उसे भार की तरह मानते हैं। उसकी जिम्मेदारी उठाने से भागते हैं, जल्दी से जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं या आया के हवाले कर देना चाहते हैं। सोचिए कि अगर माता-पिता ही बच्चे के बारे में ऐसा सोच रहे हैं, तो बच्चा कितना अकेला होगा? ऐसा बच्चा अपनी जरूरतों के लिए किसके सहारे बड़ा होगा। बड़ा होकर वह कैसा नागरिक बनेगा। मगर वर्तमान और सिर्फ आज में जीने वालों के लिए भविष्य का शायद कोई मायने ही नहीं। जैसे-जैसे समय बीत रहा है, कोरी विकास की बातें हो रही हैं, माता-पिता अपनी-अपनी नौकरियों और करिअर में ज्यादा से ज्यादा व्यस्त होते गए हैं। जितना उनके पास समय कम हुआ है, उसी अनुपात में बचपन पीछे छूटता गया है। हो न हो आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहु ओर पसर रही है उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है, बाल मन की इस बोझिल पढाई और उससे मुक्ति की मुहिम जरूरी है, ताकि बच्चा मुस्कुराने से महरूम न हो जायंे।