फिल्मी दुनिया पर खौफ का साया

उड़ी के आतंकी हमले के बाद अब मुंबइया फिल्मों पर हमला शुरु हो गया है। एक आतंकी हमले का जवाब दूसरे आतंकी हमले से देना कहां तक ठीक है, यह मेरा सवाल है? क्या जो पाकिस्तानी कलाकार हमारी फिल्मों में काम कर रहे हैं, उनका आतंकियों से कोई संबंध है? क्या उन्होंने कभी आतंकियों का मौखिक समर्थन भी किया है? उन पर आतंक की तोहमत जड़ना और उन्हें निकाल बाहर करने की बात करना कोरा सनकीपना है। यह कहना कि देश में भारत-पाक युद्ध का माहौल है और इस माहौल में महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना मुंबई की धरती पर पाकिस्तानी कलाकारों को बर्दाश्त नहीं करेगी, शुद्ध दीमागी दिवालिएपन का परिचय देना है। फौजी शल्य-क्रिया, जो एक अक्सर होनेवाली मामूली घटना है, उसे युद्ध कहना पागलपन की हद है। जिस सरकार ने यह शल्य-क्रिया करवाई है,वह भी पाकिस्तानी कलाकारों के विरुद्ध कोई प्रतिबंध नहीं लगा रही तो यह सेना-वेना कौन होती है, उन भारतीय फिल्मों को जलानेवाली, जिनमें पाक कलाकारों ने काम किया है। अपने आप को यह नव-निर्माण सेना कहती है।

इसे अपना नाम बदलकर नव-विनाश सेना रख लेना चाहिए। इसे भारतीय कलाकारों, फिल्मों और सिनेमाघरों पर हमला बोलने का कोई अधिकार नहीं है। हां, वह विरोध करना चाहती है तो जरुर करे लेकिन वह अहिंसक होना चाहिए। महाराष्ट्र की फड़नवीस सरकार बधाई की पात्र है कि जिसने सेना की गुंडागर्दी के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की। सेना को पता नहीं है कि भारतीय फिल्में पाकिस्तान में करोड़ों रु. कमाती हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पाकिस्तान को उसकी मूल भारतीय संस्कृति से जोड़े रखती हैं। ‘सेना’ अपने दुराग्रह के कारण भारतीय फिल्म-निर्माताओं और कलाकारों का नुकसान तो करती ही है, वह लोकतंत्र के रुप में भारत को बदनाम भी करती है। कलाकारों, लेखकों, चिंतकों का विरोध आपको करना है तो आप उनकी भाषा में करें लेकिन उनके विरुद्ध आतंकी हरकतें करना शुद्ध कायराना काम है। इसमें शक नहीं कि हमारे ‘प्रचारमंत्री’ के अत्यंत सुंदर पैतरों के कारण देश में पाकिस्तान-विरोधी माहौल बन गया था। लेकिन उस पैंतरे को जितना ज्यादा दुहने की कोशिश की जा रही है, उसकी हवा उतनी ही निकलती जा रही है।

मुंबई की जो सेनाएं, हमारे प्रचारमंत्री का मजाक उड़ाती रहती हैं, वे अब उनके उसी पैंतरे के दम पर अपने पंचर हुए टायर को फुला रही हैं। ये सेनाएं और पाकिस्तान के आतंकवादी जुड़वां भाई हैं। उनमें सिर्फ अनुपात का अंतर है। वे मरने-मारने पर उतारु हो जाते हैं और ये तोड़ फोड़ करके अपने आपको तीसमारखां सिद्ध करने में लगे रहते हैं। दोनों देशों की बहुसंख्यक जनता इन्हें पसंद नहीं करती है। आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान की सरकार हमारे सांस्कृतिक आतंकियों के हाथ का खिलौना बन रही है। उसने भारतीय रेडियो और टीवी चैनलों पर प्रतिबंध लगा दिया है।